स्त्री जीवन की त्रासदी को रेखांकित करती कहानियाँ

01-08-2021

स्त्री जीवन की त्रासदी को रेखांकित करती कहानियाँ

डॉ. आरती स्मित (अंक: 186, अगस्त प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

पुस्तक: आख़िरी चिट्ठी 
लेखक: डॉ. रामदरश मिश्र 
प्रकाशक: प्रतिभा प्रतिष्ठान(प्रथम संस्करण) 
पृष्ठ: 160 
मूल्य: 200/- 

एक पुस्तक भेंट मिली . . . वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. रामदरश मिश्र की पुस्तक, उन्हीं के हाथों! मुखपृष्ठ पर अंकित शीर्षक ने एकबारगी मुझे अपनी ओर खींचा . . . . ‘आख़िरी चिट्ठी’। कौतूहल जगना स्वाभाविक था कि ईमेल के इस युग में चिट्ठी की ख़ुशबू अपने में क्या-क्या समेटे होगी—ख़ासकर, जब वह आख़िरी हो! किसके नाम होगी? माँ के या प्रेमी के या सखी के?? कई जिज्ञासाएँ फूट पड़ी थीं, जब यह पुस्तक मेरे हाथ में आई। 

पुस्तक मेरे साथ यात्रा पर निकल गई और जीवन के त्रासद क्षणों में सखी बनकर इसने मुझे गले से लगा लिया। सबसे पहले पलटकर इसकी जन्मतिथि देखी—वर्ष 2012.

भूमिका में पहुँची तो ठिठक गई जहाँ मिश्र जी ने लिखा है, ‘मैंने हर आकार की कहानियाँ लिखी हैं और हर आकार वस्तु की माँग से पैदा हुआ है। लंबे आकार की कहानियों में मेरे या मेरे आसपास के लोगों की जीवनयात्रा के कुछ व्यापक और संश्लिष्ट यथार्थ की कथाएँ हैं। घटना में घटना, प्रसंग में प्रसंग, चरित्र में चरित्र, सवाल में सवाल धँसे हुए हैं, अत: इनमें मध्यम आकार की कहानियों की सी तीव्र गति नहीं है, वस्तु और कथन की संक्षिप्ति नहीं है।’

तो मुझे उन बातों की खोज नहीं करनी है जिनके लिए कथाकार ने स्वयं स्पष्ट कर दिया है तो क्या मुझे कहानी के साथ लंबी यात्रा पर निकलना चाहिए? मन ने एक बार प्रश्न खड़ा किया, मगर शीर्षक ललचाने लगे, उत्कंठा जगाने लगे तो बैठ ही गई नौका में और तैर चली कथा की धारा के साथ, मगर मैं तैर न सकी, डूबने लगी . . . डूब ही गई आख़िरकार! इसकी प्रत्येक कहानी मेरे भीतर प्रविष्ट करने के साथ ही मुझे स्वयं में समाहित कर, एक पात्र बनाती गई। मैं साक्षी न बनकर भोक्ता बन गई और प्रत्येक आयाम से गुज़रती हुई, हर्ष-विषाद के आरोह-अवरोह को आत्मसात करती हुई, स्त्री जीवन की त्रासदी से मुक्ति के लिए छटपटाती रही। हालाँकि इस पुस्तक की अधिकांश कहानियाँ ग्रामीण पृष्ठभूमि की हैं, स्त्री जीवन की त्रासदी और विडंबनाएँ भी ग्रामीण परिवेश के उत्स से प्रकट हुई हैं, तो भी कई बार यह सकल संसार की स्त्री-गाथा प्रतीत होती हैं—त्रासद साँसों का लेखा-जोखा! 

इस पुस्तक के साथ यात्रा शुरू करने पर पहला पड़ाव ‘अकेला मकान’ है, जहाँ संवेदनाएँ, बुद्धि-विचार कुछ क्षण विश्राम पाने के लिए रुकते हैं। मगर क्या वे क्षण वाक़ई आराम के क्षण होते हैं? नहीं! जगरानी के जीवन में झाँकने के बाद ऐसी प्रतीति होती है कि इस अकेले मकान ने जगरानी के जीवन के इतिवृत्त को ही बिंबित नहीं किया, सोहन के माध्यम से पति, या कहूँ कि पुरुष की मानसिकता का ताना-बाना बुनते हुए ग्रामीण परिवेश में पलते विभिन्न संबंधों के चरित्र को बड़ी ही सूक्ष्मता से भेदते हुए और उसमें अपनी पैठ बनाते हुए मानव के सामाजिक जीवन के कई तहों को खोला है। जगरानी मुझे अपनी व्यथा-कथा सुनाती रही— परत-दर-परत उघाड़ती रही स्त्री मन और जीवन की पीड़ा – और मैं उससे दूर भागना चाहकर भी भाग न सकी, उसके दर्द में आख़िरकार डूब ही गई और अंतत: अपनी पत्नी की ज़मीन पर हक़ जतानेवाले सोहन जैसे पुरुष के प्रति मन तिक्तता से भर उठा। मन ने सवाल किया, ‘क्यों होता है ऐसा? क्यों हर बार स्त्री का स्वाभिमान और उसका वजूद ही कठघरे में खड़े हो उस गुनाह की सज़ा पाता है जो उसने किए ही नहीं?’ 

परित्यक्ता होकर भी पति के प्रति अंत तक समर्पण-भाव, सौतिया डाह, और स्वाभिमान की आँच में पकती-खदकती यह कहानी स्त्री मन के संतापों को ही नहीं उघाड़ती, बल्कि उसके अंतस की सुकोमल पंखुरियों को भी बड़ी हल्की छुअन के साथ खोलती है—धीरे-धीरे, परत-दर-परत। प्रतिकूल परिस्थिति में जीवट होने का भाव जगरानी के इस कथन से स्पष्ट है जो समग्र परित्यक्त स्त्री समाज के मनोभावों को रेखांकित करने में सफल है— “नहीं, अब उदास नहीं रहूँगी, मेरे बेटे! फिर हँसूँगी, गाऊँगी। रो-रोकर तो मैं हार ही जाऊँगी और वे जीत जाएँगे। नहीं, मैं झूठ को जीतने नहीं दूँगी। तुमने मुझे जगा दिया बेटे!”  

जगरानी के घेरे से मुक्त भी नहीं हो पाई थी कि ‘पराया शहर’ में किराए का मकान ढूँढ़ने की मर्मांतक पीड़ा से बच न सकी। लेखक ने बड़े शहरों में नए-नए आए नौकरीशुदा व्यक्ति की परेशानियों का जो रेखांकन किया है, वह यथार्थ के क़रीब क्या आम किराएदारों का भोगा हुआ यथार्थ है। एक अदद किराए के मकान के लिए जो ज़िल्लत उठानी पड़ती है, मकान मिलने पर मकान मालिक को ख़ुश रखने की कोशिश करनी पड़ती है और उनके कहे अनुसार मकान ख़ाली करने की विवशता जीवन के रस को किस क़दर सूखा देता है, इसे एक भोक्ता ही समझ सकता है। 

मैं लंबे समय तक ‘पराया शहर’ में घूमती रही, एक ढंग के किराए के मकान के लिए नायक और उसकी गर्भवती पत्नी की बेचैनियों, अनिश्चितताओं की साक्षी बनी रही और निम्नांकित पंक्तियाँ भीतर कहीं छीलती रही . . . 

“उसे अनुभव हुआ कि उसका बुखार भी तेज़ हो रहा है। कहाँ जाएगा कल? सामने एक रेगिस्तान है, जिसमें रास्ते नहीं हैं। रास्ते दीखते भी हैं तो हवा मिटा जाती है।”

किराएदार की अनिश्चित अवस्था से परेशान मैं ‘निर्णयों के बीच’ पहुँच गई। यह अनुभव मेरे लिए नया रहा—पूरी तरह नया। कहानी का अंत मन को कचोटता हुआ—नहीं-नहीं टीसता हुआ मुझे सवालों के दोल में त्रिशंकु की भाँति छोड़ गया कि क्या यही व्यावहारिकता है . . . ? एक ऐसा सच, जिसे स्वीकारने को जी नहीं करता मगर इनकार भी नहीं कर सकती। महानगरों में साहित्य-परिवेश कुछ ऐसा ही है। 

मिश्रजी की लेखनी हर पड़ाव पर रोकती, उद्वेलित करती और झकझोरती है। ऐसा ही कुछ हुआ, जब ‘एक अधूरी कहानी’ से गुज़री। स्त्री विमर्श के लिए बुद्धिजीवियों और स्त्रीवादी लेखकों को आमंत्रित करती यह कहानी उस समय को अंकित करती है, जब स्त्री का अर्थ ही परिवार के लिए वंश-वृद्धि का कारख़ाना बनना था। विवाह, संतानोत्पत्ति और उनकी देखभाल से अधिक की सोच उसके जीवन का हिस्सा नहीं मानी जाती थी। आज भी ग्रामीण और क़स्बाई समाज में बहुत कुछ ऐसा ही है। तत्कालीन समाज की स्त्री के देह-धर्म को मान्यता देने का साहस रखने वाली यह कहानी ग्रामीण समाज की ढँकी-तुपी विद्रूपताओं को उजागर करने का साहस करती है। सुहागी भौजी उस स्त्री समाज का प्रतिनिधित्व करती है जो कामाग्नि में दग्ध होती हुई, अपना विवेक खो देती है और फिर न घर की रहती है न घाट की। दूसरी ओर, परिवार में ही अमर्यादित यौनाचार का रेखांकन यह सोचने पर विवश कर देता है कि किसी भी कर्म के लिए स्त्री ही दोषी क्यों समझी जाती है, वही नर्कद्वार क्यों? जबकि उस ओर धकेलनेवाला पुरुष ही होता है।

अदालत में स्त्री अस्मिता के चीथड़े उड़ाने में निपुण वकीलों की लेखक ने नायिका द्वारा जो लानत-मलामत की है– “बदचलन होगी तेरी माँ बहन! ओ हारामजादे काले कोट वाले! मैलाखोर, सूअर की औलाद। तेरे मन में औरत के लिए कोई इज्जत-मरजाद नहीं है? तू निहायत झूठ बोलनेवाला गिरा हुआ आदमी है। सुनती थी कि वकील झूठ बोलते हैं।”

 . . . वह आम वकीलों के दोगले चरित्र का पर्दाफ़ाश करती है। मुवक्किल से मोटी रक़म लेकर सच को झूठ और झूठ को सच बनाने का धंधा करने ये न्याय के पक्षधर कम दलाल अधिक नज़र आते हैं। लेखक ने वकील के जिरह से ख़ुद को बेआबरू महसूस करती स्त्री की मनःस्थिति का करुण चित्रण किया है– “हुज़ूर, मुझे फाँसी दे दीजिए, शेर-चीते के सामने डाल दीजिए। लेकिन इस काले कोट वाले जानवर के पास से मुझे हटाइए। इससे मुझे बदबू आ रही है।”

इन पंक्तियों में लेखक ने बेबस स्त्री की मनोदशा को रेशे-रेशे उद्घाटित कर दिया है।

‘आख़िरी चिट्ठी’ संबंध के ताने-बाने को पूरे कसाव के साथ, समाज के थोपे हुए रिश्तों की पगडंडी से गुज़ारती हुई भी कहीं डगमग नहीं करती। समाज में इधर-उधर प्रभा की-सी ज़िंदगी जी रही ललनाओं की ओर हमारा ध्यान खींचती है। आख़िरी चिट्ठी की कुछ पंक्तियाँ, जो हम सबकी भावनाओं के आलोड़न-विलोड़न को टोहती हुई, उस कसमसाहट को अभिव्यक्त कर देती हैं जो मानव समाज का कड़ुआ सच है जिससे हम सभी उबरना चाहते हुए भी विरोध या प्रतिरोध करके उसी समाज में जी नहीं पाते। स्त्री जीवन और स्त्री की आत्मा को सही-सही टटोल लेने की, लेखक की क्षमता इन पंक्तियों में स्वयमेव प्रकट है– “संबंधों की बेड़ी जकड़ने के लिए हैं। शायद इन संबंधों से मुक्त होकर वह अपने भाग्य के सहारे जी भी लेती, लेकिन इन संबंधों की जकड़न में वह मेरी या मुझ जैसी लड़कियों की कहानी की पुनरावृत्ति ही करेगी। संबंधों की ये बेड़ियाँ न होतीं तो शायद तुमसे एक बार साहस करके कहती कि मेरी थाती को सँभालना और मेरी कहानी की पुनरावृत्ति से इसे बचाना। लेकिन संबंधों के भयावह यथार्थ को मैं जानती हूँ। ये न सुरक्षा देते हैं, न मुक्त करते हैं। केवल अपने पूरे बोझ से आदमी पर लदे होते हैं। और मैं तुमपर अपना बोझ डालती भी तो किस अधिकार से? जब मेरे भाई, पति, सास सभी ने अपने संबंधों से जकड़कर केवल मारा-पीटा, केवल उपेक्षा की, केवल ज़हर दिया, फिर तुमसे मेरा क्या संबंध? नहीं, मैं भूल रही हूँ, संबंध नहीं है तभी तो तुमसे मैं यह सबकुछ कह रही हूँ। शायद जाने-पहचाने संबंधों से परे भी एक संबंध होता है, जो आरोपित नहीं होता, स्वयं बनाया गया होता है और जो अधिक मानवीय और विश्वस्त होता है। इस जीवन में तुमसे जो प्यार और आत्मीयता पा सकी, उसी से लगा कि जीवन है। नहीं तो जीवन लगने जैसी और क्या बात थी इस प्यासे जीवन में?”

कुछ शेष नहीं रह जाता है फिर कहना! रक्त और विवाह के नाम पर संबंधों की जटिलता कभी-कभी किस तरह जोंक बनकर जीवन रस चूस लेती है, उपर्युक्त पंक्तियाँ इसकी बेहतर बानगी देती हैं।   

‘आज का दिन भी’ बेहद सहज किंतु विशिष्ट कहानी है। डायरी के किसी पन्ने की तरह यह कहानी मन को लेखक के मन से जोड़ देती है। पाठक मन लेखक बन जाता है और उन प्रसंगों को जीने लगता है और क्षोभ, ख़ुशी, आकुलता के उन संचारी भावों को बड़ी शिद्दत से महसूस करता है।

‘बसंत का एक दिन’ ग्रामीण समाज का एक भद्दा चेहरा सामने लाता है। बाल मनोविज्ञान के विश्लेषण के साथ ही स्वार्थपरता, जातिवाद, वर्णभेद पर कुठाराघात करती यह कहानी कई मोड़ों से गुज़रती हुई, मर्म स्पर्श करती चलती है। जयराम और फुलवा समाज के सताए वे पात्र हैं जिन्हें अपनों ने डँसा है। अक़्सर ऐसा ही होता है जब तथाकथित अपने ही जीवन नष्ट कर देते हैं और सामाजिक विडंबना यह कि जिस संबंध में स्नेह का अजस्र सोता बहता है, उसे कुछ भी निर्णय लेन–देने का हक़ नहीं होता। ‘आख़िरी चिट्ठी’ भी इस विडंबना को रेखांकित करती है। 

इस पुस्तक में जिन लंबी कहानियों का संकलन किया गया है, वे ग्रामीण समाज के अलग-अलग चेहरों की सपाटबयानी का महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हैं। ग्रामीण समाज के भीतर गहरी पैठी विद्रूपताओं, मूल्यहीनताओं, भ्रष्टाचारों की जिस तरह बखिया उधेड़ी गई है, वह हमारी पीढ़ी को नई समझ, नई दृष्टि देती है। कथाकार ने जितनी सहजता से ग्रामीण समाज से संबद्ध सरोकारों को साहित्य में तवज्जो दी और एक मुक़ाम पर पहुँचाया, वह सराहनीय है। सरल शब्दों और वाक्यों के संयोजन से ग्रामीण स्त्री के जीवन के सरोकारों को उजागर करते हुए, उन्हें इतनी गहरी अर्थवत्ता प्रदान करना सचमुच एक बार नहीं, कई बार रुककर सोचने को विवश करता है। यह कहानी संग्रह लंबी यात्रा पर ले जाते हुए, हर पड़ाव पर दृष्टि को व्यापकता प्रदान करने में सक्षम है। ‘आख़िरी चिट्ठी’ कथाकार के लेखन अंत नहीं। लेखनी चलती रहे और साहित्य समाज समृद्ध होता रहे, यही कामना है।

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