शब्द-स्वर

30-04-2007

शब्द-स्वर

सुमन कुमार घई

ओ कवि! तूने यह क्या किया
मौन को भगवान से मिलाया
और मुझे बिल्कुल भुला दिया?

 

मौन तुम्हारी अनुभूति तो
मैं उसकी अभिव्यक्ति हूँ
अगर उसमें उत्त्पन्न होता भाव
तो मैं उसकी वाक`-शक्ति हूँ
उसे कहा असीम और
मुझे सीमित बना दिया?

 

मौन तो खो जाता है अपने ही में
मैं देता संदेश हर युग से - हर युग में
मेरी ही गूँजी कर्म-भूमि में वाणी
पाता ज्ञान - सुख पढ़ हर प्राणी

 

मैं आदि कवि की जीवित रचना -
उसकी पहली पंक्ति
मैं व्यास कृत चिरकालीन अभिव्यंजना,
कर्म-ज्ञान की अभिव्यक्ति
तुमने कहा कि - मैं होता लुप्त मौन में
युग युग का संदेश भुला दिया?

 

अरे! मैं ब्रह्मनाद, हरता हर विषाद
शिशु मुख से ‘माँ’ सुनने का
मैं ही अपरमित आह्लाद
मुझे सुन बाप का हृदय भी डोलता है,
देता धन्यवाद प्रभु कि शिशु बोलता है।

 

मैं करके भाव और तर्क व्यक्त
खींचता पशु मानव के मध्य
सीमा रेखा सशक्त

 

और मौन कैसा-
शिष्टता का या अशिष्टता का
अनुशासन का या धृष्टता का
अज्ञान का या ज्ञान का
सौम्य का या अभिमान का

 

मौन जिसका कोई अन्त नहीं
कोई आदि नहीं
मौन है भी या है ही नहीं

 

ओ कवि मौन तो केवल है
दो शब्दों के बीच का अन्तराल

 

कवि बोल उठा -
हाँ मौन ही है वो अन्तराल
जिसके बिन तुम रहते व्यंजन
स्वर, चीख या निरन्तर गुँजन
इसी अन्तराल बिन तुम
शब्द बन सकते नहीं!
और तुम मौन को कह
केवल अन्तराल, थकते नहीं!!

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