रिश्तों की पगडंडियाँ

03-05-2012

रिश्तों की पगडंडियाँ

सुमन कुमार घई

समीक्ष्य पुस्तक : रिश्तों की पगडंडियाँ
लेखिका :  रेखा मैत्र
मूल्य : रु.150.00
पृष्ठ संख्या : 92
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
सम्पर्क  : vani_prakashan@yahoo.com

रेखा मैत्र के इस काव्य-संग्रह को पढ़ते हुए मन में स्यात्‌ विचार आया कि लेखिका ने कितना उपयुक्त नाम चुना है अपनी पुस्तक के लिए। एक के एक बाद लगता है कि कविता लेखिका के साथ ही सफ़र कर रही है। देश-विदेश, दृश्यों, अनुभवों और सम्बन्धों की भीड़ में से गुज़रती हुई। रेखा जी भी इस सफ़र के प्रति सचेत हैं क्योंकि उन्हीं के शब्दों में –

“मेरी कविता का सफ़र कभी खत्म नहीं हुआ है। घटनाएँ, दृश्य, हादसे यानि जो कुछ सामने से गुज़रता रहता है, उसे लिखने की कोशिश रहती है।“

हर पन्ने पर उनका विचार शब्दों में बँधा पाठक से बात करने के लिये प्रतीक्षा करता हुआ प्रतीत होता है। एक अभिव्यक्ति है कविताओं में – कोई झंकझोरता हुआ प्रश्न नहीं है जो कि मन को क्षुब्ध करता रहे, आत्मा को सालता रहे देर तक। सीधी-सादी भाषा में, भावों के गहनतम रहस्यों को छूते हुए भी कविता बोझिल नहीं लगती। प्रसिद्ध लेखक/शायर गुलज़ार पेश-लफ़्ज़ में कहते हैं –

“लेकिन उनके लहजे का अंदाज़ा वो उनके अलफ़ाज़ के चुनाव और बहर (मीटर) के बहाव से कर सकते हैं। वो बयक-वक़्त सरल भी है और मुश्किल भी। सरल इसलिए हैं कि उनकी उपमाएँ रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में से उठाई हुई हैं और मुश्किल इसलिए कि रोज़मर्रा कि मामूली सी बात के पीछे वो कोई भी ज़िंदगी का बड़ा असरार (रहस्य) खोल देती हैं।

“पहले उसे जब देखा था, 
चाबी वाली गुड़िया-सी लगी थी
लोगों ने हँसाया वो हँस दी
लोगों ने रुलाया वो रो दी
वर्षों मेरी उससे मुलाकात नहीं हुई
सुनने में आया
वो बिगड़ गई है
उसे सुधारना ज़रूरी है
मैंने देखा – और कुछ नहीं हुआ था
खाली उसने चाबी से चलना
बंद कर दिया था
अपनी मर्ज़ी से चलना
शुरू कर दिया था
भीतर का भय
रिस गया था!”

व्यक्तिगत संबंधों पर टिप्पणी करती  उनकी कविता “रिश्तों की टूट-फूट” –

“सम्बन्धों का स्थायीत्व
  कभी दूर तक जाता है
     हमेशा पास रहने का
       भ्रम भी बनाता है।“

और “रिश्तों की पगडंडियाँ” कविता में –

“अपने आस-पास फैले
    ये सारे रिश्ते
      कच्चे रास्ते से
         बनी पगडंडियों पर
            ही उगा करते हैं।“

यह सहज शब्द मानवीय सम्बन्धों के सूक्ष्म धरातल को सीधे सपाट शब्दों में कुरेदते हैं।

रेखा मैत्र ने इस काव्य संग्रह में अपनी यात्राओं और अपने सैलानी भावों को भी पर्याप्त अभिव्यक्ति दी है और वो दृश्यों को निर्जीव सौन्दर्य के रूप में न देखती हुईं उसे सजीव देखते हुए मानव के समानंतर धरातल पर रख देती हैं। “पैरिस” में दृश्य वर्णन कुछ ऐसा है –

“ये कुछ यूँ दाखिल करती
    अपने इस शहर में
       जैसे उनीन्दी पत्नी
         पति के लिए
            दरवाज़ा खोलकर
                  दोबारा से सो जाए”

“गाथा सड़क की” में भी ऐसा ही कुछ विचार है –

“गाड़ियाँ ही गाड़ियाँ
उसके नीचे बिछी सड़क को
दम मारने की फ़ुर्सत कहाँ?
सड़क ने सोचा –
अगर मुझे ज़मीन ही
बनना था, तो कम से कम
घास का हरा समुन्दर ही मुझे छाए होता
उसका ज्वार-भाटा मुझे
अपने स्पर्श से तो दुलारता
मेरा जिस्म दिन-रात के
रौंदने-कुचलने से बचा होता!”

“रिश्तों की पगडंडियाँ” अपने ९२ पृष्ठों के आकार में ७६ कविताएँ समेटे हुए यात्रा करती है। साहित्य कुंज के आने वाले अंकों में इस पुस्तक पर अवश्य ही विस्तार में चर्चा होगी यह मेरा विश्वास है।

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