नीर पीर

11-01-2005

(26 दिसम्बर 2004  सुनामी की आपदा से प्रभावित हुए लोगों की पीड़ा से प्रेरित कविता)

 

समय की लहर 
उठी और बिखर गई
सदियों से बसी 
वो बस्ती - किधर गई


तिनके तिनके जोड़, 
सजाता रहा नीड़
बिखरे हैं टूटे सपने - 
दृष्टि जिधर गई


अपलक अवाक आँख 
तकती है उस दिश
लौटती नहीं क्यों माँ - 
जब से उधर गई,


उसे फिर से हँसना -
सिखा रहे हैं लोग,
और रह-रह उसकी 
सिसकी उभर गयी


सूखी आँखों से वो 
रोती है आज भी
आँसू तो उसके - 
लहर निगल गई


पीर बन नीर बहे 
अब क्यों और कैसे
लहर बन पीर, 
पलक पर ठहर गयी


समुद्र का ज्वार तो 
कब से उतर चुका
जाती नहीं है लहर 
जो दिल में उतर गयी

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी
कविता
साहित्यिक आलेख
पुस्तक समीक्षा
पुस्तक चर्चा
किशोर साहित्य कविता
सम्पादकीय
विडियो
ऑडियो