मैं मरु का पत्थर
यूँ ही खड़ा रहा, यूँ ही अड़ा रहा

 

कभी यह रेत
एक बहती नदिया थी
मैं उसका किनारा
बरगद की छाँव में, पथिक की सेज
थके माँदों का सहारा
कभी गूँजती बँसी की धुन
कभी बच्चों की हँसी
कभी देखता पनघट पर
सखियों की चुहुल,
नयी दुल्हन का शर्माना
मैं दँभी, सोचता-
मैं हूँ तो यह सब है,
मैं नहीं तो कुछ भी नहीं

 

यही सोचता रहा
समय की धारा बहती रही
नदिया किनारा बदलती रही
मैं पाषाण दंभी
यूँ ही खड़ा रहा, यूँ ही अड़ा रहा

 

मैं हूँ विशाल, सक्षम
बलिष्ट कन्धों से समय चक्र रोक दूँगा
वो नदिया तो मुझी से थी
उसी की धारा बदल दूँगा

 

मैं विमूढ़, न समझा
मैं तो कुछ भी न था
वो समय था, वो नदिया थी
मैं था बस एक किनारा
अब न बरगद की छाँव
न बँसी की धुन
न बच्चों की हँसी
न सखियों की चुहुल, न दुल्हन का शर्माना

 

बस है तो इस बबूल के काँटे
गर्म लू और एक सन्नाटा
और. . . 
मैं मरु का पत्थर, एक बेचारा

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी
कविता
साहित्यिक आलेख
पुस्तक समीक्षा
पुस्तक चर्चा
किशोर साहित्य कविता
सम्पादकीय
विडियो
ऑडियो
लेखक की पुस्तकें