बेशर्म के फूल

03-05-2012

बेशर्म के फूल

सुमन कुमार घई

समीक्ष्य पुस्तक : बेशर्म के फूल
लेखिका :  रेखा मैत्र
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य : रु. 150.00
पृष्ठ संख्या : 87
सम्पर्क  : vani_prakashan@yahoo.com

’बेशर्म के फूल’ रेखा मैत्र की 2008 में प्रकाशित काव्य संकलन पढ़ने को मिला। इससे पहले मैं रेखा मैत्र की ’रिश्तों की पगडंडियाँ’ पढ़ चुका था। सबसे पहले तो काव्य संकलन का नाम पढ़ते ही मन में अनेक भाव उपजे। ’बेशर्म के फूल’ निःस्संदेह उद्वेलित करने वाला वाक्य है। फूल तो सर्वमान्य प्रेम या सुन्दरता का प्रतीक है। बेशर्म के फूल दो विरोधात्मक शब्द एक ही वाक्य में निश्चय ही मन में एक बहस शुरू करने वाले हैं। लगा कि – एक ताना है, एक शिकायत है, एक लाचारी निहित है या विद्रोह है इस वाक्य में? इन्हीं भावों को लेकर पुस्तक का पहला पन्ना पलटा। पहली ही रचना के पहले ही वाक्य में मुझे मन में उपजे भावों का समर्थन मिला – कविता है “बेशर्म के फूल” और कवयित्री लिखती है –

“अजीब सा लगा था ये नाम
पहले जब सुनने में आया
उससे मिलने पर महसूस हुआ
बड़ी समानता थी, उन फूलों से उसकी!

X                X                      X
 
जैसे वो ज़िन्दगी को
अँगूठा दिखा रही हो!
 
“मुझे कुचलो तो जानूँ
मैं हूँ बेशर्म का फूल”

अगली कविता “तुमसे क्षमा माँगते हुए...!” में भगवान को सम्बोधित करते हुए भी कुछ ऐसा ही भाव उभरता है –

“ये तो इंसानी जिगर है
जिसने तुम्हें कभी मंदिर में
उच्च सिंहासन पर बिठाया
कभी मस्जिद में तुम्हारी दुआएँ कीं
गिरजे में तुम्हारे नाम की
मोमबत्तियाँ सुलगाईं
और कभी गुरुद्वारे में
तुम्हारे शब्द कीर्तन गाए!”

फिर यही विद्रोह उभरता है “तल्ख़ियाँ” में-

“भूल जाना चाहती थी
वो तल्ख़ियाँ ज़माने की
हुआ यूँ है कि अब वो
भूलने लगी ज़माने को!”

इस शे’अर में रेखा ने बहुत ही ठोस बात कही है। लाचारी नहीं विद्रोह चुना है जीवन को जीने के लिए।  अगले पद में कहती है –

“कुछ अच्छे किरदारों को
कुछ ख़ुशनुमा नज़ारों को
रड़कन ही सही वो आँखों की
अब उनको याद भी रखना होगा”

सब कुछ सहते देखते नायिका गिलास आधा भरा देखना चाहती है आधा खाली नहीं। तभी तो रेखा “जिजीविषा” में लिखती हैं –

“कितनी जिजीविषा रही होगी मुझमें
ढेरों तूफ़ान आए और गुज़रे
कभी मुझे कभी मेरे परिवार को ले डूबे
कभी तो मैंने अपना अस्तित्व
खंड-खंड बटोरते ख़ुद को पाया है!
यानि अब भी बची रहती हूँ मैं!
ये सबूत है इस बात का
अब भी कुछ बाक़ी रहता है
मेरे पास देने के लिए!”

जिस कविता की नींव में अटूट साहस हो, जीवन के प्रति आस्था हो और कवयित्री अपने अस्तित्व के लिए चिन्तित न होकर अपितु विश्वास के साथ कहती हो कि वह दूसरों को कुछ दे भी सकती है - वास्तव में आशा की चरम सीमा है। यानी रेखा जी ने फिर से एकबार विपदाओं को अँगूठा दिखा के ललकार के कह दिया हो –

“मुझे कुचलो तो जानूँ
मैं हूँ बेशर्म का फूल”

ऐसा नहीं कि यह काव्य संकलन केवल इसी भाव में बँध के रह गया हो। पुस्तक के मध्य तक पहुँचते-पहुँचते हुए वही जानी पहचानी रेखा उभरने लगती हैं कविताओं में। जैसा कि “रिश्तों की पगडंडियाँ” में है वैसा ही उस संकलन में भी कविता व्यक्तिगत रिश्तों को कविता में परिभाषित करती है। जैसा कि उस पुस्तक के परिचय में मैंने लिखा था कि कविता रेखा जी के साथ-साथ सफ़र करती है। ऐसा इस पुस्तक में भी होता है और उन्होंने कविताओं के नीचे टिप्पणिओं में स्पष्ट भी किया है। ऐसी ही एक कविता “अफ्रीका” में रेखा पूछती हैं –

गरीबी, भुखमरी और बीमारियाँ
अपना साम्राज्य फैलाए हैं यहाँ
फिर भी इन अफ्रीकियों की
काली, चमकीली आँखें
रोशनी से भरी दीखती हैं!
 
कौन सा जादू जानते हैं ये
जो फिर भी हँसते और गाते हैं!

शायद इस प्रश्न का उत्तर स्वयं रेखा मैत्र ने “जिजीविषा” में दे दिया है यानि कि कविता आशा की और इंगित करती है निराशा की ओर नहीं।

रेखा मैत्र ने इस काव्य संग्रह में जीवन-दर्शन को भी पर्याप्त स्थान दिया है। मन में उभरते प्रश्नों के अर्थ और उत्तर टटोलते हुए दीखती हैं कई बार। “पिंजरा” में जैसे यह पंक्तियाँ -

और मैं...?
देह के पिंजरे में कैद
तुम्हें महसूस तो कर पा रही
छू नहीं पा रही!

 ऐसे ही “अंतर्मुखी” में स्वयं को सम्बोधित करते हुए कहा है –

अब लगता है-
जो कुछ करना बाक़ी है
उसके लिए बाहर रहना कहाँ ज़रूरी है?

रोज़मर्रा की चीज़ों में या आस-पास की घटनाओं में रेखा जीवन का अर्थ ढूँढती हैं और सहजता से कह भी जाती हैं - कविता है “स्टेशन” –

“मुझे भी क्या कभी
इनमें से कोई रेलगाड़ी
मेरे गंतव्य स्थल तक
ले जा सकेगी?
मैं प्लेटफॉर्म पर खड़ी सोचती हूँ
असीम तक क्यों कोई भी
रेलगाड़ी नहीं जाती
ताकि मैं उसमें सवार हो जाती!”

“रेस” में भी यही चिन्तन है –

“कौन जाने कब
मैं जीत जाऊँ
कौन जाने कब
मैं सूरज बन जाऊँ!”

“चित्रकार” की यह पंक्तियाँ पुन: प्रकृति के चित्रकार की सफलता और अपनी विवशता को रेखांकित करती हैं –

“एक तुम हो जो पानी पर भी
चित्र खींच देते हो!
एक मैं हूँ जो काग़ज़ पर भी
नहीं उतार पाती!
अनोखे चित्रकार हो तुम...!

पुस्तक में प्राकृतिक सौन्दर्य की अभिव्यक्ति भी देखने को मिलती है। पर वह परंपरागत शैली में न होकर रेखा मैत्र के काव्य में यूँ ढलती है –

“कल रात मैंने चाँदनी
छक कर पी ली
चाँद पिलाता रहा प्याऊ-सा
और मैं पीती रही प्यासी सी”
(ओक भर चाँदनी –पृ० ४०)

 कविता “अंतरिक्ष में स्नान” –

“शून्य में लटकते-झूलते
ये बादलों के टुकड़े
एक बहुत बड़े नहाने के टब में
जैसे किसी ने ढेर सा साबुन घोला है।“

 ऊपर की दोनों कविताओं में कवयित्री ने स्वयं को प्रकृति के साथ एक भोक्ता के रूप में जोड़ा है और इसी भाव की पुष्टि करती हुई एक और कविता –

“राह के दोनों ओर
लंबे-लंबे घने दरख़्त
अपनी परछाईं से रास्ते के
बीचोंबीच चटाई बिछाते से दीखे!

X                X                      X

पर, हम दरख़्तों की
मेहमान नवाज़ी के
कायल हो लिए!”

व्यक्तिगत सम्बन्धों उकेरती हुई कविताएँ या अपने स्वजनों को सम्बोधित करती हुई कविताएँ पढ़ने के बाद ऐसा अनुभव हुआ कि रेखा जी सोचती भी कविता में ही हैं तो उसकी अभिव्यक्ति कविता में उतर आना स्वाभाविक ही है। रेखा जी ने तो लगभग अनिवार्य ही कहा है इस भावाभिव्यक्ति को। दो कविताओं को उद्धृत करता हूँ। पहली है “कविता” -

“मैंने कब कहा है कि
कविता मेरा शौक है
वो मेरी दुखती रग ज़रूर है
कभी मन का कोई हिस्सा दुखा
तो कविता जनी
उसके जन्म के बाद
एक अजीब सा चैन
प्रसव पीड़ा के बाद की राहत!”

दूसरी है “सोडे की बोतल” –

“सही कहा था तुमने
मेरी कविता सोडे की बोतल सी होती है
उद्‌गार बाहर आने को बेचैन”

“बेशर्म के फूल” काव्य संकलन की भाषा रोज़मर्रा की भाषा है। भाव भी ऐसे हैं कि पाठक को अपने ही लगते हैं और वह सहजता से ही कविता के साथ जुड़ता चला जाता है।  जैसा कि “नींद” में रेखा जी कहती हैं –

“कई बार सोचा है –
पलकों के दोनों किवाड़ों को
बंद करते वक़्त एक तख़्ती लटका दूँ
बगैर इजाज़त अंदर आना सख़्त मना है

X                X                      X

बाकायदा ऊल-जलूल बातें आती जाती हैं
बंद पलकों को धकिया कर खोलती रहती हैं”

अन्त में मैं अपनी ओर से रेखा मैत्र की कविता के विषय में कुछ कहने कि बजाय स्वयं उन्हीं एक कविता “कतरनें” प्रस्तुत कर रहा हूँ – इसी संकलन से –

“अनुभूतियों की इतनी
रंगबिरंगी-रेशमी
कतरनें जमा हो गई हैं
सीना-पिरोना जानती तो
सुंदर सी कथरी सी डालती!

अगर काढ़ना आता
तो पैबंद के सुंदर नमूने काढ़ती
अपनी शानदार पोशाक बनाती
या उन्हें गीतों की लड़ियों में पिरोती!

इनमें से कुछ भी
न हो पाया मुझसे
सवाल है एक मेरे सामने खड़ा
इतनी सारी कतरनों का
आख़िर करूँ भी
तो करूँ क्या?

मेरे विचार से शायद उन्हीं भावों की कतरनों का संकलन है रेखा मैत्र की कविता जो कि बौद्धिक होते हुए भी भारी और नीरस नहीं है।

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