कुछ तो दिन शेष हैं
चेतना सिंह ‘चितेरी’
कुछ दिन ही बचे हैं
अब चूक रहा है जीवन,
पछताने से क्या?
मैं चूक गया था उसी रोज़,
जिस लोक लाज के भय से,
तुझसे कुछ कह न सका।
लगता है अब मैं झुक गया,
कैसी हो तुम? बीच बाज़ार में,
तुमसे कुछ पूछ न सका।
आज भी मैं तुझसे, कुछ कह न पाया,
तुझे देख कर दिल तड़प उठा,
लोक लाज के डर से, नज़रें चुराईं,
इसके सिवा, कुछ कर न सका।
काश! तुझसे बातें कर लेता,
मन हल्का हो जाता,
सालों का दर्द सिलता,
अगर तुमसे कुछ कहता।
लगता है अब घुटने टेक दिए हैं मैंने,
मति मेरी मारी हुई थी,
तुझको मैं पहचान न सका।
ठुकरा कर तुझको,
ठोकरें खायीं मैं जीवन भर,
मेरे कर्मों की सज़ा
मुझको मिल रही है,
अब प्रायश्चित करने से क्या?
आँख भर तुझको देख न सका,
क़िस्मत से न लड़ पाया
तेरे लिए रचा था कुछ और
मेरे लिए अब बचा ही क्या है?
विकल उर बारंबार प्रश्न करता,
सुन ले चेतना कि—
. . . कुछ तो दिन शेष हैं . . .
जी लो! जी भर के . . .
अपने को कोसना छोड़ो!
जो होना था हो गया,
आज तक कोई अपना,
भविष्य देख न सका है।
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