कैसी है मेरी मजबूरी
चेतना सिंह ‘चितेरी’
हम अपनों से दूर हुए
कैसी है मेरी मजबूरी?
जिस माँ ने जनम दिया
वह माँ आज है अकेली।
उसके प्यार के लिए
हम भाई
आपस में लड़ जाते थे,
हम दोनों को झगड़ते देख
माँ कहती—
तुम दोनों मेरे राम लखन हो
संस्कार दिया है हमने
श्रवण कुमार बनकर
माता-पिता की सेवा करना,
हम अपनों से दूर हुए
कैसी है मेरी मजबूरी?
पिता देखें मेरे आने की राह
कोई पूछे मेरे बारे में,
हँसकर कह देते—
परिवार में है ख़ुशहाल
मुझे अब क्या चाहिए?
मेरे बच्चे सब ख़ुश रहें
हमसे दूर होकर भी देते हैं दुआ
हम अपनों से दूर हुए
कैसी है मेरी मजबूरी?
कहाँ गई मेरे घर की रौनक़?
चंद रुपयों के लिए
मैं सिमट कर रह गया
हम अपनों से दूर हुए
कैसी है मेरी मजबूरी?
थका हुआ-सा जब घर आता
मंदिर में भगवान को न पाता हूँ
उदास मैं हो जाता
काश! मुझे भी! कोई समझ लेता
मैं क्या चाहता हूँ?
छोड़ के मैं न आता,
साथ उन्हें भी लाता
हम अपनों से दूर हुए
कैसी है मेरी मजबूरी?
सोचता हूँ कभी-कभी
पति, पिता, दामाद
बनकर मैं रह गया,
सबसे से नाता तोड़
कैसा रिश्ता जोड़ लिया?
सबके रहते हुए भी,
मैं अकेला रह गया
हम अपनों से दूर हुए
कैसी है मेरी मजबूरी
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