दुःख के बादल

15-05-2025

दुःख के बादल

चेतना सिंह ‘चितेरी’ (अंक: 277, मई द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

दुःख से घिरे हुए बादल, 
रुक रुक कर बरस रहे हैं। 
 
कोना कोना भीग रहा, 
एक एक करके अपने, 
हमसे बिछड़ रहे हैं। 
 
धैर्य हमारा टूट रहा, 
अपनों से नाता छूट रहा। 
 
क़िस्मत की मारी, 
हाय! बनी बेचारी! 
कलेजा फट रहा है, 
दिल तड़प रहा है। 
 
गर्जना हो रही है, 
एक के ऊपर एक
बिजली गिर रही है, 
कैसे संँभालें चेतना! 
अंँखियों से आंँसू बह रहे हैं। 
 
मानवता दहलीज़ पे
सांँसें तोड़ रही है, 
विकल्प है तो बतलाओ! 
कोई है! तो समझाओ, 
 
भरोसा उठ गया है, 
तड़प तड़प के, 
आंँचल सिमट रहा है। 

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