तुम
बालकनी में खड़ी
देखती हो
क्षितिज तक बेतरतीब फैली
झुग्गियों को।
देखती हो
उस बस्ती की
उधड़ने पर आमादा
सिलाई को।
और तुम देखती हो
चाँद को,
टिन की खपरैलों पर चुपड़ी
जगमगाती चाँदनी को।
वही चाँद जिसे मैं प्यार करना चाहती थी
क्योंकि तुम उसे देखती थी
हर रात, दूरबीन से।
शहर से दूर
झींगुरों के शोर में छुपी झील पर
चुपचाप फैली चाँदनी।
चाँद की सतह पर
नहीं पड़ेगा पाँव
किसी भी स्त्री का।
हमारे उत्थान से पहले ही
ख़त्म हो गई चढ़ाई
चाँद की।
क्या कभी चाँद पर बसेंगी झुग्गियाँ?
उसकी सिलाई उधड़ रही है
पर फिर भी जगह बन ही जाएगी
एक और ग़रीब के लिए
और फिर एक और के लिए
और फिर एक और के लिए।
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