अरुणाचल से आए मिथुन
कुमार लवजैसे झड़ते पत्ते मौसम का हाल सुना देते हैं
एक रोज़ मिथुनों का झुंड बर्फ़ पर दौड़ता आया
झुंड में मिथुन? उसे कौन रोक पाता?
उनके सींगों के सामने भला कौन टिक पाता?
फ़ायरवॉल को भेद कर वे दिल्ली तक जा पहुँचे
अखंड शान्ति तोड़ कर वहाँ एक नेता बोले—
कौन है इन पशुओं का गड़रिया?
क्यों खुली पड़ी है गौशाला?
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कविता
-
- अभिषेक
- अरुणाचल से आए मिथुन
- आशा
- उल्लंघन
- ऊब
- एक ख़्वाब सा देखा है, ताबीर नहीं बनती
- एकल
- कानपुर की एक सड़क पर
- काला चाँद
- गंगाघाट पर पहलवानों को देख कर-1
- तो जगा देना
- नियति
- बातचीत
- बुभुक्षा
- भीड़
- मुस्कुराएँ, आप कैमरे में हैं
- यूक्रेन
- लोकतंत्र के नए महल की बंद हैं सब खिड़कियाँ
- लोरी
- शव भक्षी
- शवभक्षी कीड़ों का जनरल रच रहा नरमेध
- शाम
- शोषण
- सह-आश्रित
- हर फ़िक्र को धुएँ में . . .
- हूँ / फ़्रीडम हॉल
- हूँ-1
- हूँ-2
- कविता-मुक्तक
- विडियो
-
- ऑडियो
-