अभिषेक
कुमार लवगर्भगृह—
नीली दीवारें,
ऊँची खिड़कियाँ,
धूप—
कभी सिन्दूरी तो कभी सुनहरी,
पहुँच से परे।
एक बोतल में काँच की,
पिघली हुई रोशनी भर
तुम्हारे पास लानी है।
शायद
तब तुम देख पाओ—
मकड़ी के जालों को,
नागों को,
नीली पड़ी उस लाश को,
(हे राम!! )
शायद तब
कुछ सीटें नहीं,
कुछ और बदले!!
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