गंगाघाट पर पहलवानों को देख कर-1
कुमार लव
एक सोई हुई सुबह
मटमैला सूरज उगा
डामर की सड़क पर।
तवे सी गरम हो गई सड़क
पिघलने लगा डामर
पर किसी के पैर नहीं थे
उस सुबह सड़क पर।
सड़क के किनारे
अकेला खड़ा था एक पेड़
सड़क के एक छोटे से टुकड़े को
ठंडा रखने की मेहनत करता।
उस दोपहर बहुत तेज़ हवा चली
ईंट के रंग की आँधी
वह अकेला पेड़ ख़ूब झूमा
ज़ोर-ज़ोर से चीखे उसके पत्ते
पर किसी ने नहीं सुनी उसकी आवाज़
सब सोए हुए थे।
इस शहर में
लोग या तो अकेले सोते हैं
अपने अपने घरों में बंद,
या ख़ूब चिल्लाते हैं, हर नियति से लड़ने को तैयार
और तब वे और भी अकेले होते हैं।
(एक बार यों हुआ
एक सुपरहीरो अपने लोहे के सूट में
चला आया मेरे शहर
अन्याय से लड़ने।
मेरे घर के सामने वाले मोड़ पर
वह पहुँचा ही था जब
एक वायरस ने शटडाउन कर दिया
उसका लोहे का सूट।
पाँच दिन तक उस सूट में बंद
चिल्लाता रहा वह-ज़ोर ज़ोर से
फिर हमेशा के लिए हो गया शांत।
आज उस पाँचवे दिन की सालगिरह है
आज उस सूट पर नई माला चढ़ी है)
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कविता
-
- अभिषेक
- अरुणाचल से आए मिथुन
- आशा
- उल्लंघन
- ऊब
- एक ख़्वाब सा देखा है, ताबीर नहीं बनती
- एकल
- कानपुर की एक सड़क पर
- काला चाँद
- गंगाघाट पर पहलवानों को देख कर-1
- तो जगा देना
- नियति
- बातचीत
- बुभुक्षा
- भीड़
- मुस्कुराएँ, आप कैमरे में हैं
- यूक्रेन
- लोकतंत्र के नए महल की बंद हैं सब खिड़कियाँ
- लोरी
- शव भक्षी
- शवभक्षी कीड़ों का जनरल रच रहा नरमेध
- शाम
- शोषण
- सह-आश्रित
- हर फ़िक्र को धुएँ में . . .
- हूँ / फ़्रीडम हॉल
- हूँ-1
- हूँ-2
- कविता-मुक्तक
- विडियो
-
- ऑडियो
-