सरकार कुछ भी कहे, इस देश में सब यह समझते हैं कि यह प्रथा सरकार की सहमति और भागीदारी के बिना कभी की समाप्त हो गई होती। इस समय भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ से गिरमिट मज़दूर जाते हैं, भारत को इस अपमान का भागीदार क्यों बनाया जा रहा है? भारत अंतरआत्मा दुर्भाग्य से बहुत दिनों से सो रही थी। अब उसे इस समस्या की विराटता का अनुभव हुआ है। और मुझे कोई संदेह नहीं है कि वह अपने को अभिव्यक्त किए बिना चैन नहीं लेगी। मैं सरकार से कहूँगा कि हमारी भावनाओं की अवहेलना ना करें। ‘गोपालकृष्ण गोखले, 4 मार्च, 1912 भारत की इम्पीरियल लेजिस्लेटिल काऊंसिल में।
भारत ने 1947 में आज़ादी प्राप्त की। यह माना जाता है कि 1857 की क्रांति भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम था। मेरे विचार से लाखों भारतीयों को शर्तबंदी की प्रथा से निकालने वाला, उन्हें खुले आकाश के नीचे साँस लेने का अधिकार देने वाला, जंज़ीरों से मुक्त करने वाला, लाखों भारतीय अबलाओं को घिनौने जीवन से मुक्त करने वाला गिरमिट समाप्ति का आदेश देश का दूसरा स्वतंत्रता संग्राम था। इससे भारत भौगोलिक रूप से तो आज़ाद नहीं हुआ पर विदेशों में रहने वाली लाखों भारतीय संतानों को अपनी इच्छानुसार जीवन व्यतीत करने का, स्वतंत्र जीवन जीने का अवसर मिला। इस महत्वपूर्ण व ऐतिहासिक उपलब्धि के शताब्दी समारोह के अवसर पर इसके विभिन्न आयामों और गिरमिट समाप्ति की यात्रा की चर्चा करना ज़रूरी है।
यह वर्ष गिरमिट की समाप्ति का शताब्दी समारोह है। मार्च 1917 में औपचारिक रूप से गिरमिट प्रथा समाप्त हुई थी। इस अवसर को सौ साल पूरे होने का आए। इस अवसर पर देश -विदेश में कई कार्यक्रम कई किए जा रहे हैं। फीजी में मज़दूरों को लाने वाले आखिरी जहाज़ सतलुज V के आने का शताब्दी समारोह 2016 में धूम-धाम से मनाया गया। इसी प्रकार हाल में ही फीजी में गिरमिट शताब्दी समारोह के चलते एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें देश-विदेश के विद्वानों / लेखकों ने भाग लिया। इसी कड़ी में त्रिनिडाड में भी एक सम्मेलन आयोजित किया गया है। इसी तरह भारत में भी प्रवासी भारतीयों की संस्था ’अंतर्राष्ट्रीय सहयोग परिषद’ की ओर से एक भव्य कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है। इन सब कार्यक्रमों का क्या महत्व है? शताब्दी समारोह हो ना हो क्या फ़र्क़ पड़ता है? यह कौन सा डायसपोरा है? इस प्रथा के समाप्त करने के लिए किन महापुरुषों ने काम किया? लाखों भारतीयों के जीवन को नर्क बनाने वाली इस प्रथा का ख़त्म होना क्यों जरूरी था और कैसे ख़त्म हुई? यह संघर्ष भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में क्या महत्व रखता है? इन सब प्रश्नों पर इस लेख में विचार किया गया है।
लाखों भारतीयों को ग़ुलामी में ठेलने वाली, कोड़ों और जूतों की मार खिलाने वाली, महिलाओं की अस्मिता से खिलवाड़ करने वाली, भारतीयों के किसी प्रतिकार को अपराध कह जेल में ठेलने वाली, हजारों भारतीयों को आत्महत्या के लिए मजबूर करने वाली, अमानवीयता की इस घिनौनी दास्तान को समाप्त करने में महात्मा गाँधी के साथ गोपाल कृष्ण गोखले, पं.मदन मोहन मालवीय, रविन्द्र नाथ टैगोर, सी.एफ़. एंड्रय़ुज़, सरोजनी नायडू, बनारसी दास चतुर्वेदी और तोताराम सनाढ्य जैसे लोगों के भागीरथ प्रयत्न रहे हैं। भारतीय अस्मिता के इस संघर्ष और भारतीय पुनर्जागरण के इस शंखनाद की इस यात्रा को समझना बहुत ज़रूरी है।
प्रवासी भारतीयों का यह सौभाग्य था कि गाँधी जी एक प्रवासी के रूप में दक्षिण अफ्रीका गए और उन्हें प्रवासी भारतीयों के जीवन को निकट से देखने का, उनके कष्टों और प्रताड़नाओं में सहभागी बनने का, उनके संघर्षों की अगुआई करने का मौका मिला। बैरिस्टर होने के कारण अंग्रेजी भाषा और कानून पर उनकी पकड़ थी। उनकी नेतृत्व क्षमता ऐसी थी कि बीसवीं शताब्दी में उनसे बड़ा कोई नेता नहीं माना जाता। उनकी संघर्ष यात्रा की भूमि दक्षिण अफ्रीका बना जहाँ उन्होंने, रंगभेद और गिरमिट के नाम पर ग़ुलामी के संघर्ष का नेतृत्व किया। उन्हें पता था कि ट्रांसवाल और नेटाल की यह लड़ाई दक्षिण अफ्रीका की भूमि पर नहीं लड़ी जाएगी। 1896 में पहली बार गाँधी जी ने भारत में आकर कांग्रेस के अधिवेशन में यह मुद्दा उठाया। इसको राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विस्तार दिया। धीरे-धीरे भारत के स्वतंत्रता संग्राम में गिरमिट की समाप्ति का मुद्दा एक बड़े प्रश्न के रूप में उभरा।
फीजी की कहानी इस पूरे परिदृश्य में विशेष है। फीजी को गिरमिट प्रथा की दृष्टि से अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में लाने का काम मुख्य रूप से श्री तोताराम सनाढ्य ने किया। उत्तरप्रदेश के इस निर्धन और अर्धशिक्षित व्यक्ति ने स्वयं गिरमिट के पाँच साल काटे थे। आरकाटियों की चालों का शिकार बन इनकी भर्ती हुई थी। कलकता में रोते-पीटते आदमी की कोई सुनवाई ना होने पर जहाज़ में बैठा दिया गया। फीजी में जाकर इन्होंने हर तरह के अत्याचार सहे पर पाँच साल में गिरमिट समाप्त होने पर फीजीवासियों की भलाई और मुक्ति के लिए प्रयत्न किए। बेगुनाह भारतीयों पर होने वाले अत्याचारों से रक्षा करने के लिए किसी बैरिस्टर को भेजने की प्रार्थना करते हुए उन्होंने गाँधी जी को पत्र लिखा -
’हम लोग फीजी में गोरे बैरिस्टरों से अनेक कष्ट पा रहे हैं। ये गोरे लोग हम पर नाना प्रकार के अत्याचार करते हैं और हमारे सैंकड़ों पौंड खा जाते हैं। यहाँ पर एक भारतवासी बैरिस्टर की बड़ी आवश्यकता है। श्रीमान एक प्रसिद्ध देशभक्त हैं, अतएव आशा है कि आप हमारे ऊपर कृपा करके किसी भारतवासी बैरिस्टर को यहाँ भेजने का प्रबंध करेंगे। इस विदेश में आपके अतिरिक्त कोई सहारा नहीं है।’
गाँधी जी ने जवाब में लिखा –
’श्रावण वदी 8, सं 1967
आपका खत मिला है। वहाँ के हिंदी भाइयों की दुख की कथा सुनके मैं दुखी होता हूँ। यहाँ से कोई बैरिस्टर भेजने का मौक़ा नहीं है। भेजने जैसा कोई देखने में भी नहीं आता है। जो इजा परे उसका बयान मुझे भेजते रहना। मैं यह बात विलायत तक पहुँचा दूँगा।
स्टीमर की तकलीफ़ का ख्याल मुझे बार-बार यहाँ आता है। यह सब बातों के लिए वहाँ कोई अंग्रेजी पढ़ा हुआ स्वदेशाभिमानी आदमी होना चाहिए। मेरे ख्याल से आवेगा तो मैं भेजूँगा।
आपके दूसरे खत की राह देखूँगा।
मोहनदास करमचंद गाँधी का यथायोग्य पहुँचे।’
गाँधी जी ने यह पत्र हिन्दी में लिखा है। गाँधी जी ने तोताराम जी से प्राप्त पत्र को कई अख़बारों में प्रकाशन के लिए दे दिया। बैरिस्टर मणिलाल ने पत्र को इंडियन ओपिनियन में पढ़ा। वे उस समय मॉरिशस में गिरमिटियों के लिए काम कर रहे थे। उन्होंने गाँधी जी के आदेश पर फीजी में आने का निर्णय किया। फीजी में आने पर उनका ज़बर्दस्त स्वागत हुआ। सैकड़ों लोग सड़कों पर उतर आए। फीजी आदिवासियों ने भी मणिलाल का स्वागत किया। बैरिस्टर मणिलाल के आने से फीजी में नेतृत्वविहीन भारतीयों को नेतृत्व मिला। उनके तार गाँधी जी के दूत से जुड़ गए। भारतीयों का संगठन खड़ा हुआ। मणिलाल जी ने ’इंडियन सैटलेर’ नाम से एक अख़बार भी निकालना शुरू किया। थोड़े दिन में मणिलाल इतने लोकप्रिय हो गए कि जब फीजी की संसद में भारतीयों के प्रतिनिधित्व की बात आई तो मणिलाल जी के समर्थन में हज़ारों भारतीयों ने ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए। इस बीच ब्रिटिश सरकार ने गिरमिट प्रथा पर अध्ययन के लिए श्री मैकलीन और चिम्मनलाल की दो सदस्यीय कमेटी बनाई थी। यह कमेटी जब फीजी में आई तो गन्ना खेत के मालिकों ने मज़दूरों को डराना -धमकाना शुरू किया था। तोताराम सनाढ्य ने एक घटना का उल्लेख किया है ‘एक दिन क्या हुआ कि एक गोरे ओवरसियर ने एक भारतवासी को इतने घूँसे मारे कि उस के मुँह से खून गिरने लगा और उसके दो दाँत भी टूट गए। उस दशा में दाँतों को हाथ पर रख कर चिम्मनलाल जी के पास लाया और कुल हाल सुनाया। श्री चिम्मन लाल जी ने उसे चिट्ठी देकर थाने में जाने को कहा। वह थाने को जा रहा था कि ओवरसियर साहब मिल गए और उन्होंने उसे ख़ूब धमकाया और कहा ’सब्र करो चार दिन बाद चमनलाल चले जाएँगे, क्या चिम्मनलाल तुम्हारा बाप है? पाँच साल के लिए हम तुम्हारा बाप है। कमीशन के जाने पर हम तुम्हारी सारी गर्मी निकाल देंगे, वह बेचारा इस धमकी में आ गया और चुप रह गया।’ दुख की बात है कि यह सब देखकर भी कमेटी ने गिरमिट को जारी रखने की सिफ़ारिश की और मज़दूरों के हाल में बेहतरी आई है, यह रिपोर्ट दी। यद्यपि इसके पश्चात सी. एफ़. एंड्रूयज और पीयरसन ने एक स्वतंत्र कमेटी के सदस्य के रूप में फीजी की यात्रा कर अपनी रिपोर्ट दी।
तोताराम सनाढ्य इस बीच गिरमिट प्रथा के ख़िलाफ़ प्रचार करने के लिए भारत आ गए थे। उनकी मुलाक़ात प्रसिद्ध पत्रकार बनारसी दास चतुर्वेदी से हुई। उन्होंने अपनी आपबीती श्री चतुर्वेदी को सुनाई। बनारसीदास जी के सहयोग से उनकी एक पुस्तक प्रकाशित हुई, ’फीजी में मेरे 21 वर्ष’, किताब भारतीय समाज को झकझोरने वाली साबित हुई। फीजी में बैरिस्टर मणिलाल को आमंत्रित कर, इंडियन एसोसिएशन की स्थापना कर, अपनी पुस्तक से हलचल मचाकर तोताराम सनाढ्य ने जो काम किया है, उसके आधार पर उन्हें गिरमिट के खिलाफ फीजी के संघर्ष का अगुआ कहा जा सकता है। उन्होंने अपना शेष जीवन भी गाँधी आश्रम में रहकर सामाजिक कार्यों मे बिता दिया। तोताराम सनाढ़्य ने अपनी पुस्तक में कई और लेखों और पुस्तकों के संदर्भ दिए। जैसे उसी समय एक और पुस्तक प्रकाशित हुई जिसके लेखक एक मिशनरी जे. डब्लयू. बर्टन थे, पुस्तक का नाम था Fiji of Today उस पुस्तक में भी फीजी में भारतीयों की स्थिति का दारूण चित्र है। इसी प्रकार एक और महिला मिशनरी कुमारी डडले जो फीजी रहकर आई थी, उनके लेखों के अंशों को भी तोताराम जी ने अपनी पुस्तक में सम्मलित किया। कुमारी डडले के Modren Review में प्रकाशित अंश को उन्होंने प्रकाशित किया। वे लिखती हैं–
‘जब यह स्त्रियाँ डिपो पहुँच जाती हैं तो उनसे कहा जाता है कि जब तक तुम खाने का खर्च ना दोगी और दूसरी चीजों का खर्च ना दोगी तब तक तुम यहाँ से अपने घर नहीं जा सकती हैं। ये बेचारी कहाँ से दे सकती हैं। ये भीरू हृदय और डरपोक स्त्रियाँ इस देश मे भेज दी जाती हैं और उन्हें यह भी नहीं मालूम होता है कि कहाँ भेज दी गई हैं। वे खेतों पर काम करने के लिए गूँगे जानवरों की तरह लगा दी जाती हैं। जो काम उन्हें दिया जाता है, यदि वे उसे ठीक तरह से नहीं करती हैं तो पीटी जाती हैं, उनपर जुर्माना होता है। यहाँ तक कि जेल भेज दी जाती हैं। खेतों पर काम करते-करते उनके चेहरे और हाव-भाव बदल जाते हैं। कुछ टूट जाती हैं, कुछ उदास हो जाती हैं, कुछ पीड़ित, कुछ कठोर और डरावनी। उनके चेहरे मेरी नज़रों में हमेशा घूमते रहते हैं।’
श्री जे. डब्लयू. बर्टन ने भी अपनी पुस्तक Fiji of Today में दारूण कहानी का उल्लेख किया है। वे लिखते हैं–
‘असभ्य और जवान ओवरसियर जो कि आस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड के होते हैं, ख़ूबसूरत हिंदुस्तानी स्त्रियों पर मनमाने अत्याचार करते हैं और अगर ये स्त्रियाँ मना करती हैं तो उन पर और उनके पति पर बहुत अत्याचार करते हैं। कभी-कभी दवाखाने के कंपाऊडर किसी भारतीय स्त्री को एक बंद कमरे में बुला लेते हैं और यह बहाना करते हैं कि आओ हम तुम्हारी डॉक्टरी परीक्षा करें, चाहे वह बेचारी विरोध करे और कहे कि मुझे कोई बीमारी नहीं, मैं नहीं जाना चाहती, पर तब भी बलात् उसे कोठरी में ले जाते हैं फिर अपनी कामेच्छा पूरी करने के लिए अत्यंत असभ्यता के साथ उस पर पाशविक अत्याचार करते हैं अथवा उसे इसलिए तंग करते हैं कि वह एक ऐसे भारतवासी के विरूद्ध गवाही दे दे जिससे कि उनकी कुछ अनबन हो गई है। सुना गया है कि स्त्रियाँ वृक्षों में एक कतार से बाँध दी गई है और उनके छोटे-छोटे बच्चों के सामने उन पर कोड़े फटकारे गए हैं।’
वो आगे लिखते हैं – ‘जिस स्थिति में भारतीय रह रहे हैं उसमें और ग़ुलामी में ज़रा सा ही फ़र्क़ है। ज़्यादातर कुली इसे साफ़ तौर पर नर्क कहते हैं। ….जब तक कंपनी का काम मज़दूर लोग भली प्रकार से करते रहते हैं, तब तक कंपनी वालों को कोई फ़र्क़ नहीं पढ़ता। और यही बात कंपनी के खच्चरों और बैलों के संबंध में कही जा सकती है।’
‘अगर किसी आदमी में थोड़ी भी दया है तो उसके लिए सबसे कष्टदायक और दुख और विषाद से भरने वाली जगह कुली लेन है।’
इस बीच अपना सम्मान बचाने के लिए जान की बाज़ी लगाने वाली फीजी की महिला कुंती की चारों तरफ चर्चा हो रही थी।
तोताराम सनाढ्य, सुश्री डडले, श्री जे. डब्लयू. बर्टन, एंड्रूयज कमेटी की रिपोर्ट ने भारतीय चेतना को झकझोर दिया। प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी सुश्री सरोजनी नायडू ने इलाहाबाद में 9 जनवरी,1916 में यह भाषण दिया –
‘मैं एक महिला हूँ, चाहें भारत की माँ-बहनों का अपमान देखकर आपकी आत्मा जाग्रत नहीं होती, पर मेरी होती है, स्त्री होने के नाते मेरे सम्मान पर कोई चोट करता है तो मुझे पीड़ा होती है। हमारे लिए सबसे गर्व की स्मृति वह है, जब सीता के सतीत्व को चुनौती दी गई और उसने धरती माता से प्रार्थना की कि वह धरती में समा जाना चाहती है और धरती माँ ने उसको अपनी गोद में ले लिया। मैं उन महिलाओं की तरफ से बोलने के लिए आयी हूँ जिनके लिए सबसे गौरव का क्षण वह है जब चितौड़ की रानी पद्मनी ने अपने सम्मान के लिए चिता पर चढ़ जाना बेहतर समझा। मैं उन स्त्रियों की तरफ से बोलने के लिए आई हूँ जो मृत्यु के द्वार से अपने पति को वापिस खींच लाईं। मूक प्यार से उसमें प्राण फूँक डाले। मैं ऐसी ही एक मारी गई स्त्री के नाम पर अपील करती हैं, जैसा Mr Andrew ने बताया जिसके भाइयों ने उसका सतीत्व, परिवार और धर्म को अपना खून देकर बचाया।’
वर्ष 1912 में श्री गोपालकृष्ण गोखले ने गिरमिट की समाप्ति के लिए संसद में प्रस्ताव रखा। यह प्रस्ताव ऐतिहासिक माना जाता है और इसे श्री गोपाल कृष्ण गोखले की भारतीय राजनीति में सबसे महत्वपूर्ण देन माना जाता है। इस प्रस्ताव में गिरमिट के सभी पक्षों को व्यवस्थित, प्रभावशाली रूप से तर्कों और तथ्यों के साथ रखा गया। यह प्रस्ताव दिल और दिमाग का सुंदर संयोजन है। 4 मार्च, 1912 को भारत की Imperial legislative Council में गिरमिट प्रथा समाप्त करने के लिए रखे गए इस प्रस्ताव की मुख्य बातें निम्नलिखित थीं –
प्रस्ताव के प्रारंभ में श्री गोखले ने गिरमिट की समाप्ति की अपील करने के छह कारण बताए–
पहला– यह कि जो लोग इस प्रथा के अंतर्गत आते हैं, वह ऐसे दूर और अज्ञात जगह पर जाने के लिए हाँ करते हैं, जिसकी भाषा, संस्कृति, रीति-रिवाज़ के बारे में उनको नहीं पता होता, ना ही उनका वहाँ कोई संबंधी व मित्र होता है,
दूसरा–उनको ऐसे ज़मीन मालिक से बाँध दिया जाता है, जो उन्हें नहीं जानता और ना वो उसे जानते हैं, जिसको चुनने में उसकी कोई भूमिका नहीं है।
तीसरा– वो ज़मीन मालिक के स्थान को छोड़कर स्पेशल परमिट के बिना कहीं नहीं जा सकते,
चौथा– उन्हें जो काम दिया जाएगा, वह करना ही होगा। यह पाँच साल के लिए उनपर अनिवार्य है उससे निकलने का उनके लिए कोई रास्ता नहीं है,
पाँचवाँ, वो ऐसे वेतन पर काम करने के लिए तैयार होते हैं, जो उस क्षेत्र में काम करने वाला मुक्त मज़दूर की तुलना में कम है, कई बार तो बहुत ही कम है,
छठा– उन्हें ऐसे कानून के अंतर्गत डाल दिया जाता है, जिसके बारे में उन्हें देश छोड़ने से पहले बताया नहीं जाता, जो उस भाषा में है जिसकी उनको कोई जानकारी नहीं है। किसी छोटी सी बात पर उन्हें कड़े श्रम और जेल की सजा दी जा सकती है। यह धोखाधड़ी, अपराध की बात नहीं किसी छोटी सी बात पर जैसे ज़रा सी लापरवाही, कोई शब्द, कोई इशारा उन्हें दो -तीन महीने के लिए जेल में ले जा सकता है।
उन्होंने अपनी बात रखते हुए ज़ोर देकर कहा–
‘मैं यहाँ कहना चाहूँगा कि यह एक राक्षसी प्रणाली है, जो अपने आप में अन्यायपूर्ण है, जो धोखाधड़ी और ताकत के गलत प्रयोग पर आधारित है, जो न्याय और मानवीयता की वर्तमान भावनाओं के खिलाफ है और जो देश इसको सहता है उसकी सभ्यता पर गहरा कलंक है।‘
उन्होंने गिरमिट प्रथा के इतिहास की बात करते हुए कहा–
गिरमिट प्रणाली के इतिहास पर नज़र डालें तो तीन बातें साफ़ नज़र आती हैं- पहला, ग़ुलामी प्रथा का 1833 में समाप्त होने पर उसके विकल्प के रूप में 1834 में इस प्रथा को शुरू किया गया। दूसरा, इस प्रथा के अंतर्गत ग़ुलामी प्रथा में काम करे हुए ग़ुलाम भी काम नहीं करना चाहते थे। तीसरा, शुरू से ही इसके अमानवीय पक्ष के कारण इतनी समस्याएँ आई कि ब्रिटिश सरकार को भी इसे बार-बार बंद करना पड़ा क्योंकि इसके खिलाफ बहुत शिकायतें थी। श्री गोखले ने यह सवाल भी उठाया कि जिसे Fair Contract कहा जा रहा है, वह क्या है? उन्होंने कहा कि इसे Fair Contract कहना अंग्रेज़ी भाषा का अपमान है। यह ऐसा Contract है जो ऐसे दो व्यक्तियों के बीच हो रहा है कि एक पक्ष अशिक्षित, भोला-भाला और साधनविहीन है और दूसरा शक्तिशाली। शक्तिशाली पक्ष यह भी सुनिश्चित करता है कि दूसरे पक्ष को यह भी पता ना चले कि इस Contract में क्या लिखा है। उसे यह नहीं बताया जाता कि इसमें काम ना करने, या कम करने पर दंड है, जुर्माना है। उन्होंने Protocter of Imigrants और मजिस्ट्रेट को गिरमिटियों की सुरक्षा के लिए होने की बात को मज़ाक बताया। उन्होंने मॉरिशस के एक मजिस्ट्रेट Mr Coombs का वक्तव्य पढ़ा जो यह कहते हैं ‘कि हम कुलियों को यह बताते थे कि काम तो उनको करना ही है, अगर खेत में करोगे तो उसके पैसे मिलेंगे, वर्ना जेल में जाकर मुफ़्त में काम करना पड़ेगा।‘ उन्होंने त्रिनिडाड की एक घटना का उल्लेख किया जिसमें एक गर्भवती मज़दूर महिला के पेट पर लात मारने पर एक ओवरसियर पर सिर्फ 3 पोंड जुर्माना किया गया जबकि किसी साधारण सी हुक्मउदूली पर मज़दूरों को तीन महीने की जेल सुना दी गई।
उन्होंने 100 पुरुषों पर 40 महिलाओं को भेजने को अनैतिकता की जड़ बताया और महिलाओं की करुण स्थिति के लिए सरकार को ज़िम्मेदार ठहराया। उन्होंने गिरमिट मज़दूरों की दशा का वर्णन करते हुए कहा कि उनकी कहानी सुनकर कोई पत्थर-दिल भी पिघल जाएगा। ऐसे भोले-भाले लोग जो अत्याचारों से तंग आकर चल देते हैं कि क्या पता समुद्र के बीच में से कोई ज़मीन का रास्ता हो जो उनके देश और गाँव तक जाता हो! रास्ते में उन्हें पकड़ कर सजा दी जाती है या जंगली जानवरों ने खा लेते हैं, या सर्दी -गर्मी और भूख से बदहाल होकर मर जाते हैं। श्री गोखले ने कहा इन गिरमिट मज़दूरों की मृत्यु-दर बहुत अधिक है, बड़ी संख्या में आत्महत्याओं का उल्लेख करते हुए उन्होंने पूछा कि वे क्या परिस्थितियाँ हैं जिसमें किसी व्यक्ति को अपना ही जीवन समाप्त करना पड़ता है!
उन्होंने अँग्रेज़ सरकार की निष्पक्षता और इस सारे में कोई भूमिका नहीं होने की बात पर सवाल उठाए और पूछा कि यह सारी प्रणाली किस की मर्ज़ी से चलती है? कौन भर्ती करने वालों को लाइसेंस देता है? कौन मजिस्ट्रेट नियुक्त करता है?
उन्होंने सरकार को चेतावनी देते हुए कहा, ‘सरकार कुछ भी कहे, इस देश में सब यह समझते हैं कि यह प्रथा सरकार की सहमति और भागीदारी के बिना कभी की समाप्त हो गई होती। इस समय भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ से गिरमिट मज़दूर जाते हैं, भारत को इस अपमान का भागीदार क्यों बनाया जा रहा है। भारत की अंतर्रात्मा दुर्भाग्य से बहुत दिनों से सो रही थी। अब उसे इस समस्या की विराटता का अनुभव हुआ है और मुझे कोई संदेह नहीं है कि वह अपने को अभिव्यक्त किए बिना चैन नहीं लेगी। मैं सरकार से कहूँगा कि हमारी भावनाओं की अवहेलना ना करें।’
यह प्रस्ताव बहुमत से अस्वीकृत हो गया। परंतु भारतीयों ने हार नहीं मानी और श्री मदन मोहन मालवीय ने 20 मार्च 1916 में गिरमिट प्रथा समाप्त करने संबंधी प्रस्ताव रखा। उन्होंने भर्ती करने वालों की धोखा-धड़ी और भोले -भाले लोगों को फँसाने की बात की। Contract के अन्यायपूर्ण होने की बात की। विदेशों में उनके साथ आने वाली समस्याओं की बात की। इस संदर्भ में उन्होंने एंड्रयूज़ और पीयरसन की गैर -सरकारी कमेटी की फीजी यात्रा का उल्लेख किया। स्वतंत्र रूप से फीजी गई एंड्रयूज़ कमेटी लिखती है ‘हम कुली लेन को पहली बार देखने के अनुभव को नहीं भूल सकते। आदमियों और औरतों के चेहरे के भाव इस घोर पाप और अत्याचार की कहानी कह रहे थे। आसपास छोटे बच्चों को देखना तो स्थिति को और भी करुण बना देता है। एक खेत से दूसरे खेत जाते हुए निरंतर वही एक जैसा चेहरा और हाव-भाव। वही नैतिक रोग जो उनके दिल और दिमाग को खाए जा रहा था। – ऐसा नहीं कि हमने अपने जीवन में विपत्ति और करुणा में पड़े लोगों को देखा नहीं पर फीजी में हमने जिन स्थितियों को देखा। वो हमारी सोच से बाहर थी। कुछ नई और ऐसी परिस्थिति जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। बेहिसाब पाप और अत्याचार की महामारी से ग्रस्त पूरा समाज। ‘विवाह की पवित्रता का यहाँ कोई मतलब नहीं है, … लड़कियाँ बेची और खरीदी जाती हैं। धार्मिक परंपरा से विवाह होने की कोई मान्यता नहीं है। भारत में आत्महत्या की दर जो दस लाख पर 45-65 थी वह वहाँ पर 926 है। एंड्रयूज़ कमेटी की रिपोर्ट से उल्लेख करते हुए श्री मालवीय ने कहा कि क्या वज़ह है जितनी हत्याएँ होती हैं, वे सब महिलाओं की होती हैं और जितनी आत्महत्या होती हैं, वह सब पुरुषों की होती है। उन्होंने कहा कि अब इस प्रथा की मरम्मत करने से काम नहीं चलेगा अब इसको जड़ से उखाड़ना पड़ेगा।
जिस संसद ने 1912 में गोखले के प्रस्ताव को अस्वीकार किया था, उसने अनमने मन से मालवीय जी का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। प्रस्ताव की स्वीकृति की भाषा में आश्वासन तो था पर समयबद्धता नहीं थी।
अक्तूबर, 1916 को मुंबई राज्य का कांग्रेस अधिवेशन बुलाया गया। इसके तीसरे दिन यानी 23 अक्तूबर को गाँधी जी ने अपने विचार हिंदी और गुजराती में रखे। उन्होंने लार्ड हार्डिंग के इस आधे-अधूरे आश्वासन को स्वीकार नहीं किया जिसमें कहा गया था कि वह महामहिम से विहित समय में In due course गिरमिट प्रथा को समाप्त करने का आश्वासन ले लेंगे।
गाँधी जी ने अपने भाषण में कहा, ’भारत आधे-अधूरे आश्वासन से संतुष्ट नहीं होगा, भारत ने अपनी लापरवाही से इस प्रणाली को लंबे समय तक सहा। अब समय आ गया है कि इस समस्या को हल करे। इसके लिए सफलता पूर्वक आंदोलन करेंगे। जनमत और प्रेस इसे तत्काल समाप्त करना चाहती है। यह मेरे द्वारा सत्याग्रह का विषय हो सकता है।’
अंतत: गाँधी जी के सत्याग्रह और भारत में उभरते असंतोष को देखते हुए मार्च 1917 में गिरमिट प्रथा समाप्त की गई।
संदर्भ –