(वर्ष 2015 में लिया गया उनका साक्षात्कार)
जोगिंदर सिंह कँवल फीजी में हिंदी लेखन के भीष्म पितामह थे। 88 वर्ष की आयु में चहल-पहल, महत्वाकांक्षाओं से दूर, बा की पहाड़ियों में साहित्य साधना में रत थे। जीवन के इस लंबी दौड़-धूप और यात्रा में उन्होंने अपनी मुस्कान नहीं खोयी, साहित्यकारों को सामान्य रूप से मिलने वाली सांसारिक असफलताओं के कारण उनमें कोई कटुता नहीं आई, उदासीनता और निराशा तो उनसे कोसों दूर है। बात-बात पर ठहाके अपनी कवयित्री पत्नी अमरजीत कौर के साथ वे निरंतर जीवन और भाषा के सत्यों का अन्वेषण कर रहे हैं। हिंदी के 4 उपन्यास, 3 काव्यसंग्रह, फीजी के हिंदी लेखकों की कविताओं, कहानियों और निबंधों के संग्रह, अपना कहानी संग्रह, अँग्रेज़ी में एक उपन्यास यानी वे पिछले 40 सालों से लगातार लिख रहे हैं। उनसे मिलकर मुझे हिंदी के लेखक विष्णु प्रभाकर, रामदरश मिश्र और प्रभाकर श्रोत्रिय की याद आती है। जिनकी कलम को उम्र की आँच ने गला नहीं दिया बल्कि जिन्होंने अनुभवों के प्रकाश में दुनिया को और बारीक़ी से देखा, उसकी सुंदरताओं और पल-पल परिवर्तन के स्वभाव को समझा, ज़मीन की ख़ुशबू को महसूस किया और क्षितिज के उस पार के अबूझे भविष्य को जन-जन के सामने प्रस्तुत किया। उनका पहली पुस्तक 'मेरा देश मेरी धरती' 1974 में प्रकाशित हुई थी। तब से अब तक यानी 40 वर्ष से वे निरंतर साधनारत हैं। इतिहास को खँगालते हुए, इतिहास के निर्जीव तथ्यों में अपनी रचनात्मकता से प्राण फूँक कर जीवंत, खिलंदड़ी कहानियों, कविताओं, उपन्यासों को सृजित करते हुए . . .।
फीजी में आने के कुछ दिनों के बाद मेरी कँवल जी से फोन पर बात हुई, जब आप किसी वरिष्ठ लेखक से बात करते हैं तो आमतौर पर पाते हैं कि वह अपनी वरिष्ठता यानी आयु और ज्ञान के बोझ से दबा होता है या आपको दबाना चाहता है। उम्र उसे तल्ख़ बना देती है। वो आसमान में बादलों को इतनी बार आते-जाते देख चुका होता है कि बरसात की संभावना उसमें उत्साह पैदा नहीं करती पर ये तो अलग थे। ख़ुशमिज़ाज, हर बात में सकारात्मकता देखने वाले, सबको प्रोत्साहित करने वाले, आशावादी। लाटुका में (फीजी के पश्चिमी क्षेत्र) में अध्यापकों की एक कार्यशाला 18 सितंबर को थी। मैं राजधानी सुवा (मध्य क्षेत्र) से लाटुका गया तो कँवल जी के घर जाने का कार्यक्रम बनाया। मेरे साथ पत्नी सरोज शर्मा, युनिवर्सटी ऑफ़ साउथ पैसिफ़िक की श्रीमती इंदु चन्द्रा और शिक्षा विभाग के अधिकारी थे। लाटुका से बा का रास्ता बहुत सुंदर है। चारों और पहाड़, गन्ने के खेत और हरियाली। यहाँ सुवा (फीजी की राजधानी) की तरह निरंतर बरसात नहीं होती रहती। अगर आपको बताया जाए कि यहाँ बहुत बार सूखा रहता है तो आप आश्चर्य करेंगे कि समुद्र के इतनी पास और सूखा। कँवल जी के उपन्यास ‘सवेरा' में इस बात का ज़िक्र आता है कि सूखा होने पर अँग्रेज़ों के अत्याचार बढ़ जाते थे। बा के रास्ते में चौराहे पर मूर्तियाँ बनी हुई हैं जहाँ अँग्रेज़ों को किसानों को कोड़े मारते हुए गन्ने के खेतों में काम करवाते हुए दिखाया गया है। बा पहुँचे तो देखा कँवल जी का घर हिल व्यू पर है। कुछ भटकाव के बाद पहुँचे तो कँवल जी की प्रसन्नता का पारावार नहीं। उन्होंने और उनकी कवयित्री पत्नी अमरजीत ने स्वागत की पूरी तैयारी कर रखी थी। खीर और पंजाबी पकौड़े! खीर खिलाने के साथ ही कँवल जी ने अमीर खुसरो की खीर संबंधी पंक्तियाँ सुना दीं। माहौल ख़ुशगवार हो गया था। हालचाल पूछने के बाद कँवल जी से फीजी, साहित्य, यहाँ का जीवन, जीवन शैली के बारे में बात हुई।
बातचीत शुरू हुई और मैंने पूछा– कब लिखना शुरू किया? जवाब में वही खिलंदड़ापन और विनम्रता। मैं लिखता-विखता कहाँ हूँ। मुझे तो भाषा से इश्क़ है। फिर कहते हैं सुनो पहली कविता अमरजीत (पत्नी) के बारे में लिखी थी–
मैं बेड़े दा माली, तू गलियाँ दी रानी,
वाह, वाह फेंका सदरां दा पानी,
रही युगां तों दबी मेरी प्रीत कंवारी,
मेरी कविता बन गयी,
तेरी अलख जवानी -
अमरजीत जी मज़ाक में कहती हैं, मैं तो तब तक आपको मिली नहीं थी, ये कविता किसी और पर लिखी होगी। कँवल जी के प्रिय लेखकों में अमृता प्रीतम, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ रहे हैं। फीजी के वरिष्ठ साहित्यकार कमला प्रसाद मिश्र उनके प्रिय मित्र थे।
उन्होंने पचास के दशक में पंजाब में पढ़ाई की थी। वे अर्थशास्त्र में एम.ए हैं। स्कूल में उस समय पंजाबी और उर्दू पढ़ाई जाती थी। परंतु डी.ए.वी कॉलेज में पढ़ने के कारण वे हिन्दी भी पढ़ सके। खालसा कॉलेज में पढ़ाने के कारण वे पंजाबी से भी जुड़े रहे। भगवान सिंह जी की प्रेरणा से जब हिंदी में लिखने लगे तो प्रारंभ में मुश्किलें आई। परंतु पत्नी अमरजीत हिंदी की अध्यापिका थी। वे मदद करती। इधर हिंदी के पढ़ने वालों की संख्या कम होने के कारण वे अँग्रेज़ी में लिखने लगे। अपने उपन्यास ‘सवेरा' का अनुवाद 'द मार्निंग' के रूप में किया। नब्बे के दशक में उन्होंने 'द न्यू इमिग्रेंट' उपन्यास लिखा। जो प्रवास के कारण नई पीढ़ी के पति -पत्नी में आए मतभेदों को प्रस्तुत करता है।
लेखन के लिए उन्हें सबसे अधिक प्रेरणा भारत के सत्तर के दशक में उच्चायुक्त रहे भगवान सिंह से मिली। भगवान सिंह फीजी में बहुत लोकप्रिय थे। वे भारतीय हिंदी और संस्कृति के सच्चे पोषक थे। रेडियो पर हर हफ़्ते उनके प्रसारण होते थे जिसे हज़ारों लोग बड़े चाव से सुनते थे। फीजी आज़ाद हो चुका था। नया देश और सुनहरा भविष्य सबको दिखाई दे रहा था। गिरमिट के नाम पर भारतीयों पर हुए अत्याचारों की याद अभी ताज़ा थी। गिरमिटियों की आखिरी पीढ़ी अभी जीवित थी। पर उनकी दर्द भरी दास्तान का दस्तावेज़ीकरण (documentation) अभी नहीं हुआ था। भगवान सिंह के कहने से कँवल जी में यह प्रेरणा जाग्रत हुई। उन्होंने तोताराम सनाढ्य की किताब 'फीजी में मेरे 21 वर्ष’ पढ़ी। वह रोंगटे खड़े कर देने वाली पुस्तक थी। जो लोग पूछते हैं लिखने का क्या प्रभाव होता है, उन्हें तोताराम सनाढ्य की पुस्तक और उसके प्रभाव का अध्ययन करना चाहिए। तोताराम सनाढ्य ने अपने संस्मरण बनारसी दास चतुर्वेदी को सुनाए थे। चतुर्वेदी जी ने उसे पुस्तक का रूप दिया। पुस्तक के प्रकाशन के साथ ही भारत में गिरमिट प्रथा के ख़िलाफ़ ज़बर्दस्त जनमत बन गया और अंतत: गिरमिट प्रथा समाप्त हुई। कँवल जी उस दर्द भरे इतिहास को उसके मानवीय परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करना चाहते थे। उन्होंने गिरमिटियों के इतिहास पर रिसर्च करनी शुरू की। इसमें उन्हें सबसे अधिक मदद मिली- आस्ट्रेलिया के लेखक श्री के. एल. गिलियन की किताब से। गिलियन ने इस विषय पर काफ़ी रिसर्च की थे। गिलियन इस संबंध मे रिसर्च करने भारत, इंग्लैंड और आस्ट्रेलिया भी गए। कँवल जी बताते हैं कि इस संबंध में उनकी चर्चा फीजी के प्रमुख विद्वानों सुब्रामनी, ब्रजलाल, सत्येन्द्र नंदन, मोहित प्रसाद से होती रहती थी। लेकिन वे केवल किताबी रिसर्च से संतुष्ट नहीं थे। वे गाँवों मे ब्याह-शादी या अन्य समारोहों में जाते तो पाते कि बड़े-बूढ़े गिरमिट के दिनों की बात कर रहे हैं। और यगोना (फीजी शराब) पीने के बाद तो फिर जो महफ़िल जमती, तो यादें फीजी की बरसात की तरह उमड़ आतीं, थमने का नाम ना लेती। कँवल जी ने वहाँ से क़िस्से बटोरने शुरू किए। उनका कहना है कि उनका उपन्यास सत्य घटनाओं से भरा है, उन्होंने तो केवल घटनाओं को एक सूत्र में पिरोने का काम किया है।
‘सवेरा' उपन्यास में भारत से फीजी आए भारतीयों की भारत में परिस्थितियाँ, फीजी लाने मे झूठ-कपट, बेईमानी का हाथ, अँग्रेज़ों, कोलम्बरों, सरदारों की कारस्तानियों को प्रस्तुत किया गया है। इसमें निरीह भारतीय मज़दूरों के साथ अमानवीय, पशुओं जैसे बर्ताव का मार्मिक वर्णन है। उन दिनों भारतीयों का कोड़ों और जूतों से पिटना कोई ऐसी घटना नहीं थी जो कभी एक बार होती थी, बल्कि यह रोज़ होने वाली घटना थी। घर से हज़ारों किलोमीटर दूर, समुद्र में बिना माझी की एक छोटी नाव, लहरों के थपेड़े खाती . . . , अपनी नियति को झेलती . . . । उसे पता नहीं कि भारत में उसका परिवार, बूढ़े माता-पिता किस हालत में हैं, वह कभी मिल पाएँगे अथवा नहीं! उसकी मौत समुद्री जहाज़ पर होगी या फीजी पहुँचने के बाद? वह ज़्यादा काम करने से मर जाएगा या बीमारी से? मुँह खोलने पर उसे जेल मे ठूँस दिया जाएगा या विद्रोह करने पर हत्या कर पेड़ से लटका, आत्महत्या का मामला बना दिया जाएगा? किसी भी महिला की अस्मिता सुरक्षित नहीं थी। खेतों में काम करती ये औरतें कभी भी सरदार, ओवरसियर या अँग्रेज़ अधिकारी का शिकार बन सकती थीं। ‘सवेरा' 1880 से शुरू होता है और 1920 में गिरमिट प्रथा की समाप्ति की ख़बर से समाप्त होता है। इतिहास का यह लोमहर्षक कालखंड जोगेन्द्र सिंह कँवल ने ‘सवेरा’ उपन्यास में बडे़ ही संवेदना और विज़न के साथ दर्ज किया है।
उपन्यास की ख़ास बात है, पात्रों का चरित्र चित्रण और कँवल जी की उदात्त दृष्टि। उपन्यास के दो महिला पात्र जमना और शांति की कहानी भारतीय महिलाओं के त्याग, संघर्ष, प्रेम, समर्पण और अदम्य साहस की कहानी है। जिस-तिस की बुरी नज़रों की पात्र बनी भारत की बालविधवा जमना परिस्थितियों का शिकार बन फीजी पहुँच जाती है। पर फीजी में उपन्यास के मुख्य पात्र अमर सिंह से संपर्क में आने के बाद उसके जीवन में बड़ा परिवर्तन आता है और वह अपनी जान पर खेलकर अमर सिंह की जान बचाती है और आखिर में पुरुष पात्र जो चाह कर भी ना कर पाए वह करने का साहस दिखाती है और अत्याचारी अँग्रेज़ अधिकारी की महिलाओं से ऐसी पिटाई करती और करवाती है कि वह दुष्ट अपमान के चलते फीजी छोड़कर भाग जाता है। लेखक की दृष्टि इतनी उदात्त है कि छूआछूत में यक़ीन रखने वाले पंडित परमात्मा प्रकाश को सद्बुद्धि देता है और दलित पात्र कर्मचन्द और मुसलमान रहीम की मानवीयता को सशक्त रूप से प्रस्तुत करता है। इसी प्रकार उपन्यास का नायक जिस प्रेमिका को भारत छोड़कर आ गया था। वह नायक की प्रेरणा और प्रेम पा स्वाधीनता सेनानी बन जाती है। पूरा उपन्यास विडंबनाओं, कुरीतियों, दुर्बलताओं, द्वेष से ऊपर उठकर मानवता का सशक्त दस्तावेज़ बन गया है।
कँवल जी गिरमिटियों के इस उपन्यास का चित्रण करते हुए गिरमिटिया काल पर नहीं रुके। सामाजिक-राजनैतिक जागृति और 20वीं सदी के नागरिक होने के नाते अपने अधिकारों को लेकर भारतीयों के संघर्ष को उन्होंने अगले उपन्यास ‘करवट' में प्रस्तुत किया।
'धरती मेरी माता’ उपन्यास का पहला संस्करण 1978 में प्रकाशित हुआ, दूसरा संस्करण 1999 में। दूसरे संस्करण की भूमिका में वे लिखते हैं– 'कुछ लोग कहते हैं कि वक़्त रुकता नहीं। वह आगे ही बढ़ता है लेकिन अपनी इस रचना को पढ़कर मुझे महसूस होने लगा कि जैसे वक़्त पिछले इक्कीस सालों से एक ही स्थान पर ठहरा हुआ है। वक्ता की घड़ी की सुईयाँ एक ही जगह पर रुककर खड़ी हैं। ज़मीन की जो समस्याएँ भारतीय किसानों के लिए वर्षों से पहाड़ बनकर खड़ी हैं, वे आज भी उसी तरह सिर उठाए खड़ी हैं।'
कँवल जी सशक्त कवि हैं। उन्होंने फीजी के कवियों के संकलन का संपादन किया है और फीजी की कविता-शक्ति को एक स्थान पर प्रस्तुत किया है। उनकी अपनी कविताएँ अपने समय का आईना हैं। 1987 के कू यानी विद्रोह के कुछ दिन बाद ’शांतिदूत’ में प्रकाशित एक कविता उनके काव्य-कौशल, संवेदन शक्ति और हिम्मत की कहानी कहती है। उन दिनों राजनीतिक अस्थिरता चरम पर थी। देश में अशांति थी, हिंसा की लपटें जल रही थी ऐसे में कँवल जी की प्रकाशित कविता उनके साहस और राजनीतिक परिस्थितियों के सटीक आकलन का प्रमाण हैं। देखिए-
जीवन संग्राम
जीवन संग्राम में जूझते, संघर्ष करते लोग,
कभी रोते, कभी हँसते, ये डर-डर जीते लोग
कभी सीनों में धड़कती, उम्मीदों की हलचल,
कभी बनते, कभी टूटते, दिलों में ताजमहल
पत्थर जैसी परिस्थितियों के बनते रहे पहाड़,
भविष्य उलझा पड़ा है, काँटे– काँटे आज
चेहरों पर अंकित अब, पीड़ा की अमिट प्रथा,
हर भाषा में लिखी हुई, यातनाओं की कथा
जोश, उबाल व आक्रोश, छाती में पलटे हर दम,
चुपचाप हृदय में उतरते सीढ़ी-सीढ़ी ग़म
दर्द की सूली पर टँगा, कोई धनी है या मज़दूर,
है सब के हिस्से आ रहे, ज़ख्म और नासूर
जिस तरह से प्रेमचंद अपने समाज की एक-एक समस्या को समझ, उसको बारीक़ी से पकड़ उपन्यास लिखते थे, उसी प्रकार कँवल जी की पकड़ अपने देश और समाज की नब्ज़ पर है। आपको अगर फीजी को समझना है तो सवेरा, करवट, धरती मेरी माता जैसे उपन्यासों को पढ़ना, जानना और समझना आवश्यक है। ये उपन्यास नहीं है, यह पिछले 150 वर्षों का फीजी का रचनात्मक इतिहास है।