इकाई भी दहाई भी
अविनाश ब्यौहार
1222 1222
इकाई भी दहाई भी।
नगर में हो सफ़ाई भी॥
नदी है और पर्वत हैं,
मुहाने हैं तराई भी।
उन्होंने है ग़ज़ल गाई,
पढ़ी है औ रुबाई भी।
बुरा होने लगे गर तब,
जहाँ में हो भलाई भी।
दिवस यदि शुभ हुआ है तो,
हमारी लें बधाई भी।
हँसी का यदि ख़ज़ाना है,
मगर आती रुलाई भी।
मुसलमाँ हैं सनातन हैं,
तथागत हैं इसाई भी।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- गीत-नवगीत
-
- आसमान की चादर पे
- कबीर हुए
- कालिख अँधेरों की
- किस में बूता है
- कोलाहल की साँसें
- खैनी भी मलनी है
- गहराई भाँप रहे
- झमेला है
- टपक रहा घाम
- टेसू खिले वनों में
- तारे खिले-खिले
- तिनके का सहारा
- पंचम स्वर में
- पर्वत से नदिया
- फ़ुज़ूल की बातें
- बना रही लोई
- बाँचना हथेली है
- बातों में मशग़ूल
- भीगी-भीगी शाम
- भूल गई दुनिया अब तो
- भौचक सी दुनिया
- मनमत्त गयंद
- महानगर के चाल-चलन
- लँगोटी है
- वही दाघ है
- विलोम हुए
- शरद मुस्काए
- शापित परछाँई
- सूरज की क्या हस्ती है
- हमें पतूखी है
- हरियाली थिरक रही
- होंठ सिल गई
- क़िले वाला शहर
- कविता-मुक्तक
- गीतिका
- ग़ज़ल
- दोहे
- विडियो
-
- ऑडियो
-