शापित परछाँई
अविनाश ब्यौहारनफ़रत के कारण भाईचारा
बदसूरत लगता है।
बदमाश हो गए हैं लोग
आज स्वभाव से।
अदना सा इंसान
देखता रहा ताव से॥
आज हमारा संविधान
रावण की मूरत लगता है।
दिखी कोर्ट में धोखे की
शापित परछाँई।
सिर पर कनिष्ठ कर्मी के
कैसी शामत आई॥
मेल-मिलाप की बातें हुईं
उन्हें कदूरत लगता है।
त्यौहारों के रंग बहुत
फीके-फीके हैं।
सदाचार के माथे पर
कलंक के टीके हैं॥
उलझन के चुभते पल-छिन हैं
उन्हें महूरत लगता है।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- गीत-नवगीत
-
- आसमान की चादर पे
- कबीर हुए
- कालिख अँधेरों की
- किस में बूता है
- कोलाहल की साँसें
- खैनी भी मलनी है
- गहराई भाँप रहे
- झमेला है
- टपक रहा घाम
- टेसू खिले वनों में
- तारे खिले-खिले
- तिनके का सहारा
- पंचम स्वर में
- पर्वत से नदिया
- फ़ुज़ूल की बातें
- बना रही लोई
- बाँचना हथेली है
- बातों में मशग़ूल
- भीगी-भीगी शाम
- भूल गई दुनिया अब तो
- भौचक सी दुनिया
- मनमत्त गयंद
- महानगर के चाल-चलन
- लँगोटी है
- वही दाघ है
- विलोम हुए
- शरद मुस्काए
- शापित परछाँई
- सूरज की क्या हस्ती है
- हमें पतूखी है
- हरियाली थिरक रही
- होंठ सिल गई
- क़िले वाला शहर
- कविता-मुक्तक
- गीतिका
- ग़ज़ल
- दोहे
- विडियो
-
- ऑडियो
-