शापित परछाँई

01-04-2021

शापित परछाँई

अविनाश ब्यौहार (अंक: 178, अप्रैल प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

नफ़रत के कारण भाईचारा
बदसूरत लगता है।
 
बदमाश हो गए हैं लोग
आज स्वभाव से।
अदना सा इंसान
देखता रहा ताव से॥
 
आज हमारा संविधान 
रावण की मूरत लगता है।
 
दिखी कोर्ट में धोखे की
शापित परछाँई।
सिर पर कनिष्ठ कर्मी के
कैसी शामत आई॥
 
मेल-मिलाप की बातें हुईं
उन्हें कदूरत लगता है।
 
त्यौहारों के रंग बहुत
फीके-फीके हैं।
सदाचार के माथे पर
कलंक के टीके हैं॥
 
उलझन के चुभते पल-छिन हैं
उन्हें महूरत लगता है।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

गीत-नवगीत
कविता-मुक्तक
गीतिका
ग़ज़ल
दोहे
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में