खेत, सरोवर, बाग़-बग़ीचे।
तुहिन कणों के बिछे ग़लीचे।।
रात-रात भर आँखें रोईं,
ख़्वाब खड़े हैं पलकें मींचे।
अंधकार से ठँसी गुफाएँ,
कैसे खुलते वहाँ दरीचे।
पर्वत बैठा ऊपर-ऊपर,
दरिया बहता नीचे-नीचे।
ऋतुएँ कैसे बदल रहीं हैं,
मौसम इसका ख़ाका खींचे।