तुम देखी सीता मृगनयनी

01-10-2025

तुम देखी सीता मृगनयनी

प्रकाश मनु (अंक: 285, अक्टूबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

 

सशंकित राम और लक्ष्मण तेज़ी से क़दम बढ़ाते हुए कुटिया में पहुँचे तो देखा कि वही हुआ है, जिसका उन्हें भय था। कुटिया सूनी थी और वहाँ सीता जी नहीं थीं। 

“ज़रूर, यह राक्षसों का ही कोई षड्यंत्र है . . .!” राम ने धीरे से बुदबुदाते हुए कहा। 

फिर उन्होंने दीर्घ निश्वास लेकर कहा, “लक्ष्मण अगर तुम सीता जी को अकेला न छोड़ते तो ऐसा न होता।” 

लक्ष्मण भला क्या कहते? वे चुप थे। एक शब्द भी नहीं बोल सके। 

“चलो भाई, हमें सीता को ढूँढ़ना होगा,” कहकर राम उसी समय भाई लक्ष्मण के साथ कुटिया से बाहर निकल आए। 

राम जब सीता जी को ढूँढ़ने निकले, तो उनका एक-एक गुण उन्हें याद आता और आँखें छलछला उठतीं। 

सीता जी की अनुपम सुंदरता। सीता जी का प्रेम। सीता जी का सेवा भाव। उनके सुंदर बोल। थोड़े में ही संतुष्ट हो जाने वाला स्वभाव और पशु-पक्षियों के प्रति ममता। . . . एक-एक गुण राम जी की आँखों के आगे आता, और आँखों में आँसू भर आते। 

सीता जी ने उनके जीवन को आनंद से भर दिया था, और उनसे ही वे पूरे होते थे। सीता ही उनकी शक्ति थीं। और अब लग रहा था, सीता के बिना वे एकदम असहाय से हो गए हैं। 

“हाय, वे अयोध्या के सारे सुख-आनंद छोड़कर किस तरह आग्रह करके मेरे साथ वन में आई थीं। उन्होंने अपना सर्वस्व अर्पित करके, मेरे जीवन को हर तरह के सुख से भर दिया। उनके कारण यह वन भी वन नहीं, मेरे लिए आनंदधाम हो गया। कितने उपकार हैं उनके मुझ पर, गिन पाना कठिन है। . . . पर भला मैंने क्या किया? इस घोर राक्षसों से भरे वन में उनकी रक्षा तक नहीं कर सका!” कहकर राम फूट-फूटकर रो पड़े। 

“हाय, अयोध्या लौटने पर मैं तीनों माँओं और परिजनों से क्या कहूँगा? अयोध्यावासियों को क्या कहकर समझाऊँगा। जनक आकर अपनी बेटी के बारे में पूछेंगे, तो मैं किस मुँह से उत्तर दूँगा?” राम विकल होकर बोले। उनकी आँखों से आँसू बरस रहे थे। 

“सीता के साथ मैं हर तरह से पूर्ण था। पर अब उसके बिना मैं अपने को पूरी तरह असहाय महसूस कर रहा हूँ,” कहकर प्रभु राम विलाप कर उठे। 

लक्ष्मण बार-बार भाई राम को समझाने और धीरज बँधाने की कोशिश करते। पर लगता था, रामचंद्र जी के धीरज का बाँध आज टूट गया था। वे साधारण मनुष्यों की तरह विलाप कर रहे थे। सीता जी से जुड़ी बातें याद आतीं, तो उनके लिए ख़ुद को सँभाल पाना कठिन हो जाता। 

“सीते, सीते, हा सीते . . .!” कहकर पुकारते हुए राम वन में भटक रहे थे। सीता जी कहाँ मिलेंगी, कुछ पता नहीं था। पर व्याकुल आँखों से वन का चप्पा-चप्पा छानते हुए, वे आगे बढ़ते जा रहे थे। 

कहीं सुंदर वन-लताओं का कुंज दिखाई देता, तो उसके पास जाकर पुकारने लगते, “हे लताओ, ज़रा बताओ, क्या तुमने सुंदर नयनों वाली मेरी सीता को देखा है?” 

वन के किसी कोने में पक्षियों का झुरमुट दिखाई देता, तो व्याकुल होकर पुकार उठते, “अरे सुंदर पक्षियो, ज़रा बताओ तो। क्या तुमने मेरी सीता को देखा है . . .? वह तुम्हारी तरह ही मधुर स्वर में मुझे पुकारा करती थी।” 

कहीं हिरनों का झुंड दिखाई देता तो पुकारकर कहते, “अरे हिरनो, सीता जी की आँखें बिल्कुल तुम्हारे जैसी ही थीं। क्या तुमने सुंदर आँखों वाली उस मृगनयनी सीता को देखा है . . .?” 
यहाँ तक कि वन का एक-एक पेड़, तालाब, उपवन, बावड़ी सब कुछ उन्होंने देखा। हर जगह राम की करुण पुकार गूँज रही थी, “सीते, सीते, सीते, हा सीते . . .!” 

लग रहा था, वन में सब ओर राम का करुण रुदन बिखर गया है। पूरा वन ही जैसे शोकमग्न होकर सीता जी को पुकार रहा हो, तुम कहाँ हो सीता, कहाँ . . . कहाँ . . . कहाँ? 

जिस वन में सुखपूर्वक इतना समय बीता, सब तरह की ख़ुशियाँ और आनंद मिला, उसी वन में यह कैसा अँधियारा सा छा गया . . .! 

राम सोचते और एकाएक रो पड़ते। आज उनके आँसू थमते ही न थे। अपना पूरा जीवन उन्हें सूना-सूना सा लग रहा था। 

वे बार-बार लक्ष्मण से कहते, “हे भाई लक्ष्मण, जैसे वह कुटिया सूनी है, वैसे ही मेरा मन भी अब सूना-सूना हो गया है। सीता के बिना यह जीवन निस्सार है। निरानंद है। . . . ऐसा जीवन जीकर मैं क्या करूँगा?” 

लक्ष्मण उन्हें हर तरह से दिलासा दे रहे थे। उन्हें हिम्मत बँधाते हुए वे कहते, “नहीं भैया, आप इतनी चिंता न करें। भाभी जी जहाँ भी होगी, उनका पता ज़रूर लग जाएगा। आप थोड़ा धैर्य रखें।” 

♦ ♦ ♦

राम का यह नया रूप स्वयं लक्ष्मण के लिए अजाना था। वे जानते थे, प्रभु राम तो ब्रह्म का रूप हैं। वे जगत पिता है। इस सृष्टि के नियंता। फिर वे इस तरह साधारण मनुष्यों की तरह क्यों इतने शोक विह्वल हो रहे हैं? 
फिर उन्हें भीतर से ही जवाब मिला, “राम और उनकी लीलाओं का कोई अंत नहीं!” 
वे फिर से भाई को दिलासा देने लगे, “हे भैया, आप तनिक भी चिंता न करें। भाभी जहाँ भी होगी, उनका ज़रूर पता चलेगा। शत्रु चाहे कितना ही प्रबल क्यों न हो, हम उसे परास्त करके, भाभी जी को वहाँ से ले आएँगे।” 

राम ने सुना। पर उनकी विरह कातरता ज़रा भी कम नहीं हुई। आँखों से अश्रु बरसने लगे। 

आज उनका धैर्य जैसे उन्हें छोड़कर जा चुका था। उनके दुख और संताप का कोई अंत न था। 

सीता शक्ति स्वरूपा थीं। वे ही तो राम का बल थीं। उनकी आत्मशक्ति, जिसके कारण वे बड़ी से बड़ी बाधाओं की परवाह नहीं करते थे। बड़े से बड़े बलशाली शत्रुओं से भिड़ जाते थे। उनके बिना राम अपने को एकदम अशक्त महसूस कर रहे थे। इसीलिए पूरे वन में उनकी पुकार गूँज रही थी, “सीते, सीते, हा सीते, तुम कहाँ हो, कहाँ हो, कहाँ . . .?” और उनके आँसू थमते न थे। 

♦ ♦ ♦

(2)

जटायु ने बनाई सब बात

भाई लक्ष्मण के साथ राम इसी तरह सीता को खोजते हुए आगे बढ़ रहे थे। तभी उन्हें घायल जटायु दिखाई पड़ा। उसके पंख बुरी तरह कटे हुए थे, और वह अंतिम साँसें ले रहा था। 

राम उसके पास गए और विह्वल होकर उसके शरीर पर हाथ फेरने लगे। पूछा, “अरे तुम्हारा यह हाल . . .?” 
तभी जटायु में कुछ चेतना आई। बोला, “हे प्रभु राम, मेरा यह हाल दुष्ट और पापी रावण ने किया है। वही सीता माता का हरण करके ले गया है। सीता जी आर्त्त स्वर में सहायता के लिए पुकार रही थीं। उनकी कातर पुकार सुनकर, मैंने उसे ललकारा तो वह तलवार लेकर मुझसे भिड़ गया। मैंने भरसक उससे युद्ध किया। पूरी शक्ति से उसे रोका। पर उसने अपनी तलवार की तीक्ष्ण धार से मेरे पंख काट दिए और यह हालत कर दी। . . .” 

फिर कुछ रुककर उसने कराहते हुए कहा, “हे राम, मैं तभी से अपने प्राणों को रोककर पड़ा हूँ, ताकि आप सीता जी को ढूँढ़ते हुए यहाँ आएँ, तो आपको बता सकूँ कि वह दुष्ट रावण अभी थोड़ी देर पहले ही उन्हें दक्षिण दिशा में, लंका में लेकर गया है . . .” 

कहते-कहते उसके मुँह से फिर एक तीखी कराह सी निकली। 

किसी तरह अपनी वेदना पर क़ाबू पाकर उसने कहा, “हे प्रभु राम, मैं तो नीच, अधम प्राणी हूँ। पर पिछले कई जन्मों के सत्संग का ही यह सुफल है कि बचपन से ही मेरे मन में आपके लिए प्रेम और भक्ति है। इसीलिए माता सीता की पुकार मैं अनसुना न कर पाया। रावण के आगे तो मेरी शक्ति कुछ भी नहीं है। यह जानते हुए भी मैं उससे भिड़ गया और जितनी सामर्थ्य थी, उसे रोके रखा। . . . मेरे प्राण अब निकलना ही चाहते हैं। पर मरते समय मुझे संतोष है कि मैं थोड़ा-सा तो आपके काम आया। आप जल्दी ही दक्षिण दिशा में सीता जी की खोज करें, और दुष्ट रावण का वध करके सीता माता को वापस ले आए। बस, यही कहने के लिए मैंने अपने प्राणों को रोक रखा था। नहीं तो मेरा अंत . . .!” 

राम ने प्रेम से भरकर जटायु को गोद में ले लिया। उनकी आँखों में आँसू छलछला उठे। 

प्रेम विह्वल होकर बोले, “तुम धन्य हो जटायु। तुम्हारा निर्मल प्रेम और भक्ति भी धन्य है। तुम जैसे उपकारी इस दुनिया में बहुत विरले होते हैं। तुमने निहत्थे ही उस दुष्ट रावण का सामना किया और अपने प्राणों तक की चिंता नहीं की। . . . हे भाई, तुम्हारा त्याग और समर्पण अपार है। भला कौन इसकी बराबरी कर सकता है। और मैं तो कभी इससे उऋण हो ही नहीं सकता।” 

कहते हुए प्रभु राम ने एक बार फिर प्यार से जटायु के शरीर पर हाथ फेरा। उसी क्षण बड़ी शान्ति से उसके प्राण निकल गए। 

प्रभु राम ने उसे अपने अमर लोक में भेजा, और देर तक प्रेमविभोर होकर उसके गुणों को याद करते रहे। 

फिर लक्ष्मण के साथ मिलकर उन्होंने अपने हाथों से जटायु का अंतिम संस्कार किया। उनका मन जटायु के प्रेम को याद करके बार-बार भीग जाता। 

लंकापति रावण के द्वारा सीता जी के हरण और रावण की क्रूरता के बारे में जटायु ने बहुत कुछ बता दिया था। राम कुछ देर व्यथित होकर उसके बारे में सोचते रहे। फिर भाई लक्ष्मण के साथ सीता जी की खोज करते हुए आगे चल दिए। 

चलते-चलते अचानक उन्हें भीषण शोर सुनाई दिया। कुछ देर में पर्वत जैसा एक विशालकाय राक्षस कबंध दिखाई पड़ा, जिसका सिर और पैर नहीं थे। केवल पेट था, उसी में मुँह और आँख बनी थी। अपनी विशाल भुजाओं से वह जीवों को पकड़-पकड़कर खा जाता था। 

उसने भीषण नाद करते हुए, राम और लक्ष्मण को भी पकड़कर खाना चाहा। उसकी आँख से अग्नि की लाल-लाल लपटें निकल रही थीं। पर राम ने बड़ी फ़ुर्ती से भयानक रूप वाले राक्षस कबंध का वध कर दिया। 

तभी वह अपने असली रूप में आ गया। वह एक गंधर्व था, जो दुर्वासा के शाप से राक्षस बन गया था। कबंध ने शापमुक्त होकर प्रभु राम को प्रणाम किया। कृपालु रामचंद्र जी ने उसे मुक्ति देकर अपने लोक में भेज दिया। 

♦ ♦ ♦

इसके बाद रामचंद्र जी छोटे भाई लक्ष्मण के साथ शबरी के आश्रम की ओर चल दिए। 

शबरी की भक्ति बड़ी निर्मल और पावन थी। तीनों लोकों से अलग। बड़े-बड़े ज्ञानी और तपस्वी भी उसकी सीधी-सरल भक्ति का मुक़ाबला नहीं कर सकते थे। वह बहुत लंबे समय से प्रभु राम का स्मरण करते हुए, उनकी प्रतीक्षा में दिन बिता रही थी। जब राम छोटे भाई लक्ष्मण के साथ उसके आश्रम में पधारे, तो शबरी के आनंद का ठिकाना न रहा। वह प्रेमविह्वल होकर कहने लगी, “अहा, राम आ गए, मेरे प्रभु राम आ गए . . .! आज धन्य हो गई मेरी कुटिया, जहाँ प्रभु राम के चरण पड़े! मैं कब से टेर रही थी। पर आज सचमुच राम आ गए, मेरे राम आ गए . . .!” 

शबरी ने प्रभु रामचंद्र जी और लक्ष्मण को एक सुंदर आसन पर बैठाया। फिर स्वच्छ जल लाकर, बड़े प्रेम से उनके पाँव पखारने लगी। उस समय उसके आनंद का ठिकाना न था। 

उसकी आँखों में जल भर आया। प्रेममगन होकर वह अपने आप में खोई-खोई सी, मन के उद्गार प्रकट कर रही थी। बार-बार कह उठती, “हे प्रभु राम, आपको कोई कष्ट तो नहीं हुआ न। मैं आपकी क्या सेवा करूँ, कैसे करूँ? कैसे आपकी पूजा-वंदन करूँ? मैं तो बिल्कुल सीधी-सादी, अज्ञानी स्त्री हूँ। कुछ जानती नहीं कि प्रभु का कैसे स्वागत किया जाए? . . . अगर मेरी सेवा में कुछ चूक हो जाए तो प्रभु आप मुझे क्षमा कर दें!” 

इसके बाद शबरी अपने आश्रम के मीठे-मीठे बेर लेकर आई और अपने हाथ से उन्हें प्रभु राम और लक्ष्मण जी को खिलाने लगी। कहीं बेर खट्टे तो नहीं हैं, यह सोचकर पहले वह उन्हें ख़ुद चख लेती, फिर वही जूठे बेर रामचंद्र जी को खिलाती। 

शबरी का प्रेम निराला था। एकदम सीधा-सरल और अनूठा। वह ज्ञान और भक्ति के सभी रूपों से बड़ा था। उसके मन की सरलता ने प्रभु राम को रिझा लिया। उन्होंने प्रेम से भरकर शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश दिया। 

शबरी ने सुना तो भावुक होकर बोली, “मैं धन्य हो गई प्रभु। मेरा जीवन धन्य हो गया, कि स्वयं आपके मुख से मुझे भक्ति के गूढ़ रस के सम्बन्ध में सुनने को मिला।” 

कहकर उसने बार-बार प्रभु राम के चरण छुए और उनकी वंदना करने लगी। 

फिर उसके पूछने पर रामचंद्र जी ने बताया, “मैं पिता की आज्ञा मानकर, अयोध्या से पत्नी सीता और छोटे भाई लक्ष्मण के साथ वन में आया था। दुष्ट रावण छलपूर्वक सीता का हरण करके ले गया। मैं कहाँ उसे ढूँढ़ूँ? कहाँ वह दुख से विकल सीता मिलेगी? अगर तुम्हें इस सम्बन्ध में कुछ पता हो, तो बताओ।” 

सुनकर शबरी ने प्रेम से दोनों हाथ जोड़कर कहा, “प्रभु आप तो सर्वज्ञ हैं। अंतर्यामी और सर्वव्यापी हैं। भला आपसे क्या छिपा है। फिर भी, आपने मुझे मान देने के लिए यह पूछा है। . . . हे कृपालु, आप यहाँ से पंपा सरोवर की ओर जाएँ। वहाँ आपकी भेंट सुग्रीव से होगी। वह ज़रूर इस काम में आपकी सहायता करेगा, जिससे सीता का पता चल जाएगा।” 

इतना कहकर शबरी ने योग अग्नि प्रकट की, और उसमें प्रवेश करके इस शरीर से मुक्ति पा ली। 

शबरी के अनन्य प्रेम और भक्ति ने रामचंद्र जी को मुग्ध कर दिया था। 

वे आश्रम से बाहर आए तो देर तक उसकी चर्चा करते रहे। फिर सीता जी की खोज करते हुए, पंपा सरोवर की ओर चल पड़े। 

♦ ♦ ♦

(3)

और फिर मिले हनुमान!

रामचंद्र जी भाई लक्ष्मण के साथ सीता जी की खोज करते हुए आगे चलते जा रहे थे। चलते-चलते वे किष्किंधा पर्वत के निकट पहुँचे। 

किष्किंधा पर्वत बहुत सुरम्य था। चारों ओर ख़ूब हरियाली और वनस्पतियाँ। गिरि-गह्वर और वन-प्रदेश। वहाँ राजा सुग्रीव अपने मंत्री और प्रमुख सहायक हनुमान जी के साथ रह रहा था। 

अपने बड़े भाई बाली के डर के कारण उसे छिपकर रहना पड़ रहा था। बाली बहुत बलवान था। किसी कारण वह सुग्रीव से नाराज़ हो गया था, और उसे मार डालना चाहता था। उसने सुग्रीव की पत्नी को छीन लिया था, और उसे मारने के लिए पीछा कर रहा था। इसलिए सुग्रीव भागकर किष्किंधा पर्वत पर आकर छिप गया था। 
पर यहाँ भी उसे हर क्षण उसे बाली का डर सताता रहता था, और वह भयभीत सा एक-एक दिन बिता रहा था। 

दूर से दोनों भाइयों राम और लक्ष्मण को देख, उसे बड़ा अचरज हुआ। सोचने लगा, “ये इतने सुंदर राजकुमार आज इस जंगल में कैसे आ गए? देखने में बहुत वीर और बलवान लगते हैं। चेहरे पर अनोखा तेज। . . . तो फिर इस वन में कैसे आ गए? इसके पीछे क्या बात है? और इनके जंगल में आने का कारण क्या है, यह पता करना चाहिए। कहीं यह बाली की कोई चाल न हो।” 

उसने हनुमान से कहा, “भाई, तुम जाकर पता लगाओ कि ये लोग कौन हैं और यहाँ किसलिए आए हैं? अगर ये बाली के भेजे हुए लोग हों, तो दूर से ही मुझे इशारा कर देना, ताकि मैं यहाँ से भागकर अपने प्राण बचा लूँ।” 

हनुमान ने उसी समय रूप बदला, और ब्राह्मण के वेश में चल दिए। 

♦ ♦ ♦

थोड़ी ही देर में हनुमान प्रभु राम और लक्ष्मण जी के निकट जा पहुँचे। उन्होंने हाथ जोड़कर दोनों का अभिवादन किया। फिर बड़ी विनय के साथ कहा, “आप लोग कौन हैं और इस वन में क्यों आए हैं? आप लोग बहुत सुकुमार जान पड़ते हैं। तो राजमहलों को छोड़कर यहाँ वन-वन क्यों भटक रहे हैं?” 

राम ने कहा, “भाई, हम दोनों दशरथ के पुत्र राम और लक्ष्मण हैं। साथ में मेरी पत्नी सीता भी थी। पर उस सुकुमारी सीता को रावण छलपूर्वक हर करके ले गया है। हम उसी को ढूँढ़ते हुए यहाँ आए हैं।” 

इस पर हनुमान जी, जो ब्राह्मण वेश में थे, अपने वास्तविक रूप में आ गए। 

उन्होंने दोनों भाइयों राम और लक्ष्मण जी को प्रणाम किया। फिर रामचंद्र जी की ओर देखते हुए कहा, “हे प्रभु, मैंने तो आपकी माया के कारण आपको पहचाना नहीं। पर आप तो साक्षात्‌ ब्रह्म हैं। मुझे आश्चर्य है कि आपने मुझे क्यों नहीं पहचाना? मैं हनुमान हूँ। आपका सेवक और जन्म-जन्म का दास। अहा, पिछले कितने जन्मों का साथ है आपसे। यदि मैं आपके किसी काम आ सकूँ तो इससे बड़ा सौभाग्य मेरे लिए कुछ और नहीं हो सकता।” 

रामचंद्र जी की आँखें भीग गईं। उन्होंने हनुमान जी को छाती से लगा लिया, और प्रेम के जल से उन्हें सींचते हुए कहा, “सुनो हनुमान, तुम मुझे लक्ष्मण से बढ़कर प्रिय हो। अब यह साथ कभी छूटेगा नहीं।” 

सुनकर हनुमान जी भावविभोर हो गए, और बार-बार प्रभु रामचंद्र जी के पैरों को छूने लगे। 

फिर एक क्षण के बाद, कुछ सोचते हुए उन्होंने कहा, “प्रभु, यहाँ पास ही किष्किंधा पर्वत है। वहाँ राजा सुग्रीव ठहरे हुए हैं। वे बहुत भले हैं। उन्हें भी आप अपना सेवक ही समझें। आप चलकर उनसे मिल लीजिए। वे ज़रूर सीता जी को ढूँढ़ने का पूरा प्रयास करेंगे।” 

राम और लक्ष्मण जी चलने लगे तो हनुमान बोले, “प्रभु, पर्वत अभी थोड़ा दूर है। आप वैसे ही बहुत थके हुए लग रहे हैं। मैं आपको अपने कंधे पर बैठाकर ले चलता हूँ, ताकि आप जल्दी से वहाँ पहुँच सकें।” 

हनुमान जी की सरलता और भक्ति भाव देखकर प्रभु रामचंद्र जी और लक्ष्मण दोनों को बहुत अच्छा लगा। 

आनंद से गद्‌गद्‌ हनुमान जी को अब वह कार्य याद आ गया था, जिसके लिए उनका जन्म हुआ था। अपना कर्त्तव्य भी। प्रभु राम उनके साथ थे। यही उनका बल और शक्ति थी। वे उसी क्षण प्रभु राम और लक्ष्मण जी को साथ लेकर तेज़ी से किष्किंधा पर्वत की ओर तल पड़े। 

♦ ♦ ♦

(4)

किष्किंधा पर्वत पर राम-सुग्रीव मिलन

थोड़ी देर में राम और लक्ष्मण हनुमान जी के साथ किष्किंधा पर्वत पर आ पहुँचे। 

सुग्रीव ने उठकर बड़े प्रेम से उनका स्वागत किया। बोला, “आप लोग बहुत वीर और तेजस्वी जान पड़ते हैं। आपके आने से मैं धन्य हुआ। . . . आपमें कुछ ऐसा अलौकिक सा है कि देखते ही मन आपके आगे झुकने लगता है।” 

सुनकर प्रभु राम मुसकराने लगे। 

तब हनुमान जी ने दोनों भाइयों राम और लक्ष्मण जी का परिचय देते हुए सुग्रीव को सीता हरण की बात बताई। कहा, “प्रभु रामचंद्र और लक्ष्मण जी अयोध्या के यशस्वी महाराजा दशरथ के बेटे हैं। पिता का कहना मान वन में आए हैं। इनके साथ ही रामचंद्र जी की पत्नी सीता भी थीं। लंकापति रावण उन्हें छलपूर्वक हरकर ले गया है।” 

फिर हनुमान ने राजा सुग्रीव का भी परिचय दिया। बाली ने किस तरह सुग्रीव को बुरी तरह सताया और उसके साथ निर्दयता की, यह भी उन्होंने बताया। फिर कहा, “बाली सुग्रीव को मारने के लिए जगह-जगह उसका पीछा कर रहा है। पर उसे शाप है कि वह किष्किंधा पर्वत पर नहीं आ सकता। इसीलिए सुग्रीव यहाँ छिपकर रह रहा है।” 

सुग्रीव बड़े ही प्रेम से राम और लक्ष्मण जी से मिला। 

“अयोध्या और राजा दशरथ जी की कीर्ति तो तीनों लोकों में व्याप्त है। आप लोग यहाँ आए, यह मेरा सौभाग्य है,” कहकर सुग्रीव ने प्रभु रामचंद्र जी के चरण छुए। रामचंद्र जी ने बड़े प्रेम से उसे उठाकर छाती से लगा लिया। 

फिर सुग्रीव ने राम को अपनी पूरी विपद कथा भी कह सुनाई, जिसके लिए उसे राजधानी छोड़कर वन-वन में भटकना पड़ा। सुनकर राम को पता चला कि सुग्रीव के बड़े भाई बाली ने उसे कितना परेशान किया है। यहाँ तक कि उसने सुग्रीव की पत्नी को भी बलपूर्वक छीन लिया। बाली के डर से ही वह यहाँ छिपकर रह रहा है। पर यहाँ भी बाली के भय से उनका मन आक्रांत रहता है। 

सारी बात सुनकर, राम ने सुग्रीव की सहायता का वचन दिया। कहा, “मित्र, तुम निश्चिंत रहो। मैं इस संकट में तुम्हारा साथ दूँगा, और जो भी सम्भव होगा, ज़रूर करूँगा। बाली तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा।” 

फिर कुछ सोचकर उन्होंने कहा, “सुग्रीव, तुम बाली को द्वंद्व युद्ध के लिए ललकारो। जिस समय तुम लोग आपसे में लड़ रहे होगे, मैं छिपकर एक तीर से ही बाली का वध कर दूँगा। इससे तुम्हारा दुख और कष्ट ख़त्म हो जाएगा। जिस बाली के डर से भागकर तुम्हें गिरि-कंदराओं में शरण लेनी पड़ रही है, जब वही नहीं रहेगा तो तुम्हें फिर से अपना खोया हुआ राज्य वापस मिल जाएगा।” 

सुनकर सुग्रीव के मन में कुछ आशा बँधी। उसने बड़े भाई बाली को द्वंद्व युद्ध के लिए ललकारा। बाली बहुत बलवान था। उसके सामने सुग्रीव कहीं ठहरता न था। द्वंद्व युद्ध हुआ तो उसने सुग्रीव को बुरी तरह पछाड़ दिया। 

सुग्रीव बुरी तरह पस्त और निराश हो गया। उसने उसी समय रामचंद्र जी के पास आकर कहा, “आपने तो वादा किया था कि आप बाली का वध करेंगे। पर आपने मेरी कोई मदद नहीं की। उलटे बाली ने मुझे बुरी तरह पराजित कर दिया।” 

इस पर रामचंद्र जी ने मुस्कुराते हुए कहा, “इसमें मेरा दोष नहीं है। असल में तुम दोनों भाइयों की शक्लें आपस में बिल्कुल मिलती-जुलती सी हैं। इस कारण द्वंद्व युद्ध के समय मैं पहचान नहीं पाया कि तुम दोनों में से बाली कौन सा है।” 

फिर उन्होंने सुग्रीव को पास बुलाकर अपने हाथों से पुष्प हार पहनाया। साथ ही अपने स्पर्श से उसके शरीर को वज्र जैसा मज़बूत बना दिया। फिर कहा, “अब तुम फिर से बाली के पास जाकर उसे द्वंद्व युद्ध के लिए ललकारो। तुम यह पुष्प हार पहनकर द्वंद्व युद्ध करना। इससे मैं तुम्हें दूर से पहचान लूँगा। फिर बाली पर निशाना साधकर तीर छोड़ूँगा तो वह बच नहीं पाएगा।” 

अब सुग्रीव ने फिर से बाली को द्वंद्व युद्ध के लिए ललकारा। जब बाली चलने लगा, तो उसकी पत्नी तारा ने विनय करते हुए उससे कहा, “स्वामी, मुझे डर लग रहा है। आज आप न जाएँ। सुग्रीव अकेला नहीं है। उस पर प्रभु रामचंद्र जी का हाथ है, जो साक्षात्‌ परमात्मा हैं, हर तरह से समर्थ और सर्व शक्तिमान हैं। इसीलिए मुझे इतनी आशंका हो रही है। आप मेरा कहना मानकर आज युद्ध में न जाएँ।” 

पर बाली को अपने बल का बहुत घमंड था। वह गरजता हुआ आया और फिर से उनमें द्वंद्व युद्ध आरंभ हो गया। इस बार सुग्रीव के शरीर में अनोखी शक्ति थी। इसलिए बाली चाहकर भी उसे पछाड़ नहीं पा रहा था। फिर सुग्रीव ने राम की दी हुई पुष्पमाला पहनी हुई थी, जो उसके गले में शोभायमान हो रही थी। इससे उसमें असाधारण कांति आ गई थी। 

‘यह विजयिनी पुष्पमाला है, सुग्रीव। इस कारण अब तुम्हारी जीत निश्चित है। बाली को उसके कर्मों की सज़ा मिलेगी,’ राम ने मन ही मन कहा, मानो वे ऐसा कहकर सुग्रीव की जीत सुनिश्चित कर रहे हों। 

फिर लताकुंज की ओट में बैठे राम ने एक अचूक तीर छोड़ा तो वह बाली के हृदय को बेधता हुआ निकल गया। 

बाली समझ गया कि इतना अचूक निशाना तो बस राम का ही हो सकता है। वह उसी समय ज़मीन पर आ गिरा और बुरी तरह कराहते हुए बोला, “हे प्रभु राम, यह आपका कैसा न्याय है! . . . भला ऐसा क्यों कि सुग्रीव आपको इतना अधिक प्रिय है, जबकि मुझे आपने अपना शत्रु मान लिया। मैंने आपका ऐसा क्या बिगाड़ा है जो आपने बिना किसी कारण मेरा वध किया है?” 

इस पर राम ने उत्तर दिया, “सुनो बाली, जो दूसरे की पत्नी पर लोलुप निगाह डालता है, उसे मैं क्षमा नहीं कर सकता। मेरी नज़रों में वह अधम और घोर अपराधी है। उसका वध करने में मैं कोई दोष नहीं मानता।” 

सुनकर बाली एक क्षण के लिए चुप हो गया। अपना अपराध और पाप-कर्म याद करके, उसका मन लज्जित हो उठा था। किसी तरह अपनी शक्ति बटोरकर उसने कहा, “हे राम, मैं तो मुक्त हुआ, पर मुझे अपने बेटे अंगद की चिंता है। वह हर तरह से योग्य और बुद्धिमान है। बड़ा विनयशील भी है। लेकिन सिर पर से पिता का साया हट जाने से, अब वह अनाथ हो जाएगा। अगर आप उसे अपनी शरण में ले लें, तो मैं निश्चिंत होकर मरूँगा।” 

राम ने बाली के सिर पर हाथ रखकर उसे आश्वासन दिया, “बाली, तुम उसकी चिंता न करो। मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि अंगद अब मेरी छत्रछाया में रहेगा, और मैं उसका कभी कोई अनिष्ट न होने दूँगा।” 

अब बाली के चेहरे पर संतोष की झलक दिखाई दी। “हे राम, मेरे अपराधों को क्षमा करना!” कहकर उसने प्राण छोड़ दिए। 

राम ने प्यार बाली के पापों को क्षमा करके, उसे अपने लोक में स्थान दिया। 

इसके बाद उन्होंने लक्ष्मण से कहा, “भाई लक्ष्मण, मेरा नगर प्रवेश उचित नहीं है। इसलिए तुम अभी राजधानी जाकर पूरे विधि-विधान से सुग्रीव का राजतिलक करवाओ। साथ ही अंगद का युवराज पद के लिए तिलक करवाना।” 

उसी समय लक्ष्मण ने परिवार के सदस्यों के साथ-साथ सभी गणमान्य लोगों को बुलाकर, सुग्रीव का राजतिलक करवाया। उसी समय अंगद का भी युवराज पद के लिए तिलक किया गया। 

चारों ओर हर्षनाद होने लगा। सुग्रीव और अंगद दोनों ने ही प्रभु रामचंद्र और लक्ष्मण जी के लिए बहुत आभार प्रकट किया। 

इस तरह प्रभु राम ने न सिर्फ़ सुग्रीव को निर्भय किया, बल्कि साथ ही उसे सम्मानपूर्वक राज सिंहासन पर भी बैठाया। 

सुग्रीव के साथ-साथ सहस्रों वानर और भालुओं के यूथ भी प्रभु रामचंद्र जी का जय-जयकार कर रहे थे। 

♦ ♦ ♦

लेकिन सीता जी की खोज का काम तो अभी अधूरा ही था। 

राजतिलक के बाद सुग्रीव रामचंद्र जी से मिलने आया, और उन्हें प्रणाम करके कहा, “प्रभु, आपकी मुझ पर बड़ी कृपा है। इसलिए असम्भव भी सम्भव हो गया। आपने मुझे बाली के भय से तो मुक्त किया ही, मुझे फिर से राजपद दिलवाकर अनुगृहीत किया है। मैं अज्ञानी कैसे आपको धन्यवाद दूँ, समझ नहीं पाता। आपको मैं हृदय से बार-बार प्रणाम करता हूँ।” 

कहकर सुग्रीव ने रामचंद्र जी के चरण पकड़ लिए। 

रामचंद्र जी ने उसे प्रेम और न्यायपूर्वक शासन करने की सीख दी, जिससे प्रजा में किसी को कोई कष्ट न हो। 

सुग्रीव ने इसका वचन दिया। फिर कहा, “हे प्रभु, सीता जी की खोज का कार्य अभी बाक़ी है। पर अभी बारिश के दिन हैं। चौमासा ख़त्म होने पर उपयुक्त समय आएगा। तब मैं अपने दूतों को दिशा-दिशा में भेजूँगा। वे ज़रूर सीता जी का पता लगाकर आएँगे। आप बिल्कुल निश्चिंत रहें। फिर वानर-भालुओं की विशाल सेना के साथ शत्रु से युद्ध करके हम ज़रूर उन्हें वापस ले आएँगे।” 

सुनकर रामचंद्र जी को संतोष हुआ। उन्होंने बड़े प्रेम से सुग्रीव को विदा किया, और प्रवर्षण पर्वत पर अपना निवास बनाकर रहने लगे। 

♦ ♦ ♦ 

धीरे-धीरे करके चौमासा भी बीत गया। शरद ऋतु आ गई। पर सुग्रीव ने सीता जी की ख़बर लेने का कोई प्रयास नहीं किया। वह पूरी तरह राजसी सुख-सुविधों और राजकाज की व्यस्तता में खो गया। प्रभु राम के कार्य का उसे स्मरण ही नहीं रहा। 

तब हनुमान जी ने उसे बहुत तरह से समझाते हुए, अपना कर्त्तव्य याद दिलाया। कहा, “जिन प्रभु रामचंद्र जी ने आपको राजपद दिलाया, वे अगर रुष्ट हो गए, तो यह आपके लिए अच्छा नहीं होगा।” 

सुनकर सुग्रीव भयभीत हो गया। उसने उसी समय वानर और भालुओं के यूथपतियों को बुलाकर, उन्हें सीता जी की खोज के लिए जाने का आदेश दिया। 

♦ ♦ ♦

सीता की याद में रामचंद्र जी बहुत उदास थे। उनका एक-एक दिन बहुत कठिनाई से बीत रहा था। चौमासा गया, शरद ऋतु आ गई। पर सुग्रीव ने सीता जी की खोज के लिए कुछ नहीं किया। यह देख रामचंद्र जी को बहुत क्रोध आया। उन्होंने लक्ष्मण से कहा, “तुम सुग्रीव के पास जाकर उसे याद दिलाओ। अगर वह तब भी नहीं चेता, तो उसका भी वही हाल होगा, जो बाली का हुआ था।” 

लक्ष्मण उसी समय सुग्रीव के पास गए। उन्होंने क्रोध से भरकर उसे प्रभु राम को दिए गए वचन और कर्त्तव्य का स्मरण कराया। फिर अपने धनुष पर तीर चढ़ाकर बोले, “तुम अपने मद में प्रभु राम का कार्य भी भूल गए? . . . मैं अभी इसी क्षण पूरे राजमहल को भस्म कर देता हूँ। फिर कोई भी बच न पाएगा।” 

यह देख, सुग्रीव भय के कारण थर-थर काँपने लगा। उसने बार-बार लक्ष्मण जी से अपनी भूल के लिए क्षमा माँगी। 

उसी समय अंगद ने आगे आकर लक्ष्मण जी के पैर छुए, तो लक्ष्मण ने उन्हें उठाकर छाती से लगा लिया। 

सुग्रीव के कहने पर तारा और अंगद लक्ष्मण जी को अंदर अतिथि कक्ष में लेकर आए, और बड़ी ही विनयपूर्वक उनका स्वागत किया। फिर अंगद ने कहा, “आप नाराज़ न हों। हम लोग इस समय बैठकर उसी की तैयारी कर रहे हैं।” 

इस पर लक्ष्मण जी का क्रोध कुछ शांत हुआ। 

लेकिन सुग्रीव का मन अब भी आशंकित था। कहीं प्रभु राम क्रोध में आ गए, तो क्या होगा? सोचकर उसका हृदय थर-थर काँप रहा था। अपनी भूल और घोर लापरवाही पर उसे लज्जा आ रही थी। 

आख़िर लक्ष्मण जी को आगे करके, वह हनुमान और अंगद के साथ सभी सचिवों को साथ लेकर प्रभु रामचंद्र जी के पास चल दिया। साथ ही उसने उसी समय दूर-दूर तक बसे हज़ारों वानर-भालुओं को जल्दी से जल्दी प्रभु राम जी के निकट पहुँचने का संदेश दिया। 

प्रभु रामचंद्र जी के पास पहुँचकर सुग्रीव ने बहुत लज्जित होकर, उनसे क्षमा माँगी। बार-बार उनके पैरों को छूकर उसने कहा, “प्रभु, आप मुझे क्षमा करें। अब इस कार्य में ज़रा भी देर न होगी। मैं अभी दिशा-दिशा में वानर-भालुओं को भेजता हूँ। जल्दी ही सीता जी का पता लग जाएगा।” 

सुनकर प्रभु रामचंद्र जी का मन शांत हो गया। उन्होंने सुग्रीव से कहा, “तुम मुझे अत्यंत प्रिय हो सुग्रीव। तुमने अपनी भूल मान ली। इतना ही बहुत है। अब सीता जी की खोज का काम कैसे जल्दी से जल्दी पूरा हो, बस, इसका ही जतन करो।” 

सुनकर सुग्रीव ने फिर प्रभु रामचंद्र जी के चरण छुए, और कहा, “अब इस काम में ज़रा भी देर न होगी प्रभु। जल्दी ही सीता माता का पता लग जाएगा।” 

देखते ही देखते हज़ारों वानर और भालुओं के यूथ वहाँ एकत्र हो गए। सभी ने आकर रामचंद्र जी को सिर नवाया और बड़े विनम्र भाव से उनके चरणों में बैठ गए। 

ऐसा लग रहा था कि सामने असंख्य वानर-भालुओं के महाकार यूथ नहीं, बल्कि सुनहले रंग का एक विशाल पर्वत आ खड़ा हुआ है, जिसकी छवि अनूठी है। 

रामचंद्र जी मुग्ध भाव से उसे देख रहे थे और वानर-भालुओं के तरह-तरह के क्रीड़ा-कलाप देखकर प्रसन्न हो रहे थे। 

सुग्रीव ने वहीं एक विशाल सभा की। फिर सभी वानर-भालुओं को आदेश दिया, “आप सभी लोग अपने-अपने दल के साथ दिशा-दिशा में जाएँ और माता सीता जी का पता लगाएँ। एक महीने के अंदर ही यह कार्य पूर्ण हो जाना चाहिए।” 

अंत में उसने चेतावनी देते हुए कहा कि अगर आप लोग एक महीने में सीता जी का पता नहीं लग पाए और ख़ाली हाथ लौटे तो मृत्यु दंड दिया जाएगा।” 

फिर उसने अंगद, हनुमान, नल, नील और जामवंत को बुलाकर वानर-भालुओं के यूथ के साथ दक्षिण दिशा में जाकर सीता जी को ढूँढ़ने के लिए कहा। 

सभी तेज़ी से आगे बढ़ते जा रहे थे, तभी रामचंद्र जी ने हनुमान को बुलाकर उन्हें अपनी अँगूठी सौंपते हुए कहा, “भाई हनुमान, तुम यह अँगूठी सँभालकर रख लो। लंका जाकर सीता को दे देना। देखकर उन्हें बहुत अच्छा लगेगा। साथ ही सीता को धीरज और दिलासा देना कि अब अधिक समय नहीं है। जल्दी ही उनके दुख के दिन कटेंगे। मेरी ओर से संदेशा देना कि राम शीघ्र आकर आपको ले जाएँगे।” 

सुनकर हनुमान जी का हृदय आनंद से भर गया। प्रभु राम ने उन पर विश्वास करके, इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी सौंपी है। यह सोचकर उनकी आँखें भर आईं। उन्होंने बड़े आदर से झुककर प्रभु राम के चरण स्पर्श किए, और उनका आशीर्वाद लेकर आगे चल दिए। 

साथ ही सब वानर-भालू भी उत्साह से भरकर अपनी-अपनी मंडली के साथ अलग-अलग दिशाओं में चल दिए। 

वे रह-रहकर प्रभु रामचंद्र जी का जय-जयकार कर रहे थे। दिशा-दिशा में रामचंद्र जी की जय का प्रतुल नाद और हर्षध्वनि सुनाई दे रही थी। 

♦ ♦ ♦

(5)

चले हनुमान सीता जी का पता लगाने

दक्षिण दिशा में लंका की और प्रस्थान करने का ज़िम्मा जामवंत, अंगद, नल-नील और हनुमान जी को मिला। पर यहाँ एक बड़ी बाधा थी। समुद्र पर कोई बाँध नहीं था, तो भला समुद्र लाँघकर लंका तक कैसे पहुँचा जाए? 
वानर और भालुओं की टोली परेशान थी। सब समुद्र के किनारे बैठे सोच रहे थे, कि अब क्या किया जाए? इस समस्या का हल कैसे हो सकता है? 

इसी तरह दिन निकलते जा रहे थे। 

एक दिन सब लोग बैठकर आपस में बातें कर रहे थे। सभी के माथे पर चिंता की लकीरें थीं। 

तभी एकाएक अंगद ने बड़े दुख से भरकर कहा, “अगर हम जल्दी ही सीता जी का पता लगाकर न आए, तो निश्चय ही हम सबको सुग्रीव के हाथों मरना होगा।” 

दुख के कारण उनका गला भर आया। मन अधीर सा हो गया। 

इस पर जामवंत ने अंगद को छाती से लगाकर दिलासा दिया। फिर कहा, “तुम चिंता न करो। जल्दी ही कोई न कोई रास्ता ज़रूर निकल आएगा।” 

फिर जामवंत ने सामने बैठे वानर और भालुओं के सभी यूथों से कहा, “आप लोग इस क़द्र हिम्मत क्यों छोड़ बैठे हैं? समुद्र लाँघना कठिन ज़रूर है, पर असम्भव तो नहीं है न। हम लोगों को कोशिश तो करनी चाहिए। मैं अब बूढ़ा हो गया हूँ, शरीर में उतनी शक्ति नहीं बची। पर आप लोग तो युवा हैं। हिम्मत करें, तो ज़रूर समुद्र को लाँघ जाएँगे।” 

इस पर वहाँ बैठे सभी वानर और भालू मन ही मन अपने-अपने बल को जाँचने और तोलने लगे। अंगद ने कहा, “मैं समुद्र पार करके चला तो जाऊँगा। पर इस बात को लेकर मन में संशय है कि मैं लौट भी पाऊँगा या नहीं।” 

अन्य वानर-भालुओं ने भी इसी तरह की बात कही। किसी को इस बात का पूरा विश्वास नहीं था कि वह समुद्र पार करके लंका चला जाएगा, और फिर सीता जी की सुध लेकर सुरक्षित वापस भी आ जाएगा। 

तभी जामवंत की निगाह हनुमान जी की और गई। वे भी और वानर-भालुओं की तरह संशयग्रस्त बैठे थे, और चिंतित होकर सोच रहे थे, कि इस समस्या का क्या हल हो सकता है? अगर सामने कोई नदी होती तो उसे आसानी से पार किया जा सकता था। पर इतने विशाल सिंधु को पार करना तो सम्भव न था। 

पर जामवंत हनुमान जी के बल-पौरुष से परिचित थे। उन्हें पता ता कि हनुमान जी ने बचपन में आकाश में उड़ते हुए, खेल-खेल में ही सूर्य को मुख में रख लिया था। इससे हर कोई भौचक्का रह गया था। भला ऐसे वीर और बलवान हनुमान जी के लिए क्या समुद्र पार करना कठिन है? 

यह सोचकर जामवंत ने एकाएक हनुमान जी की ओर देखते हुए कहा, “अरे हनुमान, तुम अपना बल और पराक्रम क्यों भूले बैठे हो? तुम्हारी सामर्थ्य तो अपार है। अपनी शक्ति को पहचानो और आगे बढ़ो। समुद्र को पार करना तुम्हारे लिए मुश्किल नहीं है, बल्कि एक तुम्हीं हो जो यह काम कर सकते हो।” 

सुनकर हनुमान जी को लगा, जैसे किसी ने उन्हें सोते से जगा दिया हो। 

उन्होंने एकाएक अपनी जगह से उठकर, बड़े ज़ोर से दाँत किटकिटाकर हर्ष ध्वनि की। उसी समय देखते ही देखते उनका शरीर इतना बड़ा हो गया, जैसे सामने सोने का एक विशाल पर्वत खड़ा हो। 

फिर उन्होंने दो-तीन बड़ी ऊँची छलाँगें मारीं, मानो अपनी शक्ति का अहसास करना चाहते हों। और फिर समुद्र पार करने के लिए तैयार हो गए। 

सभी हनुमान जी का यह विराट रूप देखकर दंग थे। मन ही मन सबको विश्वास हो गया था कि हनुमान जी ज़रूर लंका जाकर, सीता जी का पता लगाकर वापस लौटेंगे। 

हनुमान जी ने सभी वानर-भालुओं से कहा, “जब तक मैं न लौटूँ, आप लोग यहीं कंद-मूल, फल खाकर, मेरे आने की प्रतीक्षा करें। साथ ही, मैं यह कार्य पूरा कर सकूँ, यह प्रार्थना करें। मैं जल्दी से जल्दी माता सीता का पता लगाकर वापस आऊँगा।” 

सुनकर सभी वानर-भालुओं ने हर्षध्वनि करके हनुमान जी का हौसला बढ़ाया। 

♦ ♦ ♦

समुद्र के किनारे एक विशाल पर्वत था। सबके देखते ही देखते हनुमान जी बड़ी तेज़ी से उछलकर, एकाएक उस पर्वत के शिखर पर आ खड़े हुए। यह उनके लिए किसी खेल या कौतुक जैसा ही था। सब अचरज से उन्हें देख रहे थे और मन ही मन सराहना कर रहे थे। 

पर अपना असली पराक्रम तो उन्हें अभी दिखाना था। उन्होंने अपने शरीर को थोड़ा साधा। फिर अपनी पूरी शक्ति लगाकर, असाधारण कौशल के साथ समुद्र पार करने के लिए इतनी लंबी छलाँग लगाई, कि देखकर वानर और भालुओं के यूथ ही नहीं, स्वयं जामवंत भी हैरान रह गए। 

हनुमान अपूर्व लाघव के साथ बड़े वेग से आकाश-मार्ग से उड़ते हुए जा रहे थे। जिस पर्वत पर खड़े होकर उन्होंने समुद्र लाँघने के लिए छलाँग लगाई थी, वह उनके उड़ते ही एकाएक पाताल में धँस गया। किसी को पता ही न चलता था कि यहाँ कोई पर्वत था। 

उनके इस अद्भुत पराक्रम को देखकर हर कोई हैरान था, और ‘साधु, साधु हनुमंत!’ कहकर पुकार रहा था। 
स्वयं हनुमान जी को अपने इस बल और सामर्थ्य का अहसास पहली बार हुआ था। 

हनुमान जी बड़ुत तेज़ी से समुद्र पर से उड़ते हुए जा रहे थे। तभी सुरसा ने उन्हें अपने चंगुल में जकड़ लिया। 
वह बोली, “मैं देवताओं की माता हूँ। आज बहुत दिनों बाद मुझे आहार मिला है। मैं तुम्हें छोड़ूँगी नहीं।” 

सुनकर हनुमान जी ने दोनों हाथ जोड़कर प्रार्थना की, “हे माता, मैं प्रभु रामचंद्र जी के बहुत ज़रूरी काम से जा रहा हूँ। अगर खाना ही चाहती हो, तो थोड़ा इंतज़ार कर लो। मैं अपना कार्य संपन्न करके लौट आऊँ और प्रभु राम को संदेश दे दूँ। उसके बाद तुम ख़ुशी-ख़ुशी मुझे अपना ग्रास बना लेना।” 

सुरसा बोली, “अरे वाह, इतने दिनों बाद भोजन मिला है। मैं उसे कैसे छोड़ दूँ . . .?” 

सुनकर हनुमान जी परेशान हो उठे। 

हनुमान जी का शरीर बड़ा था। सुरसा ने उन्हें खाने के लिए अपना रूप और बड़ा कर लिया, ताकि आसानी से उन्हें अपने मुँह में रख सके। 

यह देख, हनुमान जी ने अपना रूप उससे भी दुगना बड़ा कर लिया। 

इस पर सुरसा ने अपना आकार और बढ़ा लिया तो हनुमान जी ने उससे भी दुगना अपना आकार कर लिया। 

आख़िर सुरसा ने बड़ा ही विशाल और विकट रूप धारण कर लिया। 

हनुमान जी ने यह देखा, तो अत्यंत लघु रूप बनाकर, सुरसा के मुँह में प्रवेश किया, और उसके उदर में जाकर बाहर निकल आए। 

बाहर आकर उन्होंने सुरसा को दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया। बोले, “माता, मुझे देर हो रही है। अब मुझे आगे जाने की अनमति दो, ताकि मैं जल्दी से राम का कार्य संपन्न करके वापस लौट सकूँ।” 

सुरसा हनुमान की वीरता ही नहीं, कौशल और बुद्धिमत्ता से भी बहुत प्रभावित हुई। उसने कहा, “तुम बहुत वीर ही नहीं, बुद्धिमान भी हो। . . . जाओ, समुद्र पार करके लंका जाओ, और सीता जी का पता लगाकर आओ। मैं तो तुम्हारी परीक्षा ले रही थी। मैं तुम्हें आशीर्वाद देती हूँ कि तुम राम का कार्य अच्छी तरह संपन्न करके, सफल होकर लौटो।” 

इस पर हनुमान जी ने एक बार फिर माता सुरसा को प्रणाम किया, और तेज़ी से आगे चल दिए। 

♦ ♦ ♦

अभी वे थोड़ा ही आगे गए थे, कि एक नई मुसीबत आ गई। समुद्र में एक भीषण राक्षस रहता था, जिसमें बड़ी मायावी शक्ति थी। उसी के चलते वह समुद्र पर उड़ते जीवों आदि को देख, उनकी छाया पकड़ लेता था। इससे वे जीव भी उसकी पकड़ाई में आ जाते। फिर उन्हें वह खा जाता था। 

उस राक्षस ने समुद्र पर उड़ते हनुमान जी को देखा, तो उसने समुद्र के पानी पर पड़ने वाली उनकी छाया को हाथ से पकड़ना चाहा, ताकि वह उन्हें अपना भोजन बना सके। पर हनुमान जी उसकी दुष्टता भाँप गए। उन्होंने उस राक्षस को मार दिया, फिर तेज़ी से आगे चल दिए, ताकि जल्दी से जल्दी समुद्र लाँघकर दूसरे किनारे पर जा पहुँचें। 

आख़िर उड़ते-उड़ते हनुमान जी थोड़ी ही देर में समुद्र के दूसरे किनारे पर जा पहुँचे। वहाँ बड़ा ही घना और मनोरम वन था, जिसकी सुंदरता अपूर्व थी। साथ ही एक बड़ा विशाल पर्वत उन्हें नज़र आया। वे एकाएक उस पर्वत के शिखर पर जा पहुँचे। वहाँ से लंका का सोने का दुर्ग, बड़े-बड़े भवन और अट्टालिकाएँ उन्हें दिखाई दे रही थीं। 

लंका चारों ओर से समुद्र से घिरी थी। साथ ही वहाँ दुर्ग की रक्षा के लिए जगह-जगह रक्षक तैनात थे। हनुमान जी ने सोचा, रात के समय लंका में प्रवेश करना ठीक रहेगा। उन्होंने वहीं पर घूमते हुए, रात होने की प्रतीक्षा की। 

फिर रात का अँधेरा घिर आया तो हनुमान जी ने बहुत छोटा-सा रूप बना लिया, ताकि किसी को उनका पता न चल सके। वे लंका में प्रवेश करने ही वाले थे कि एक भयंकर राक्षसी, जिसका नाम लंकिनी था, उन पर झपट पड़ी। बोली, “मैं लंका की रक्षक हूँ। तुम्हें उस ओर नहीं जाने दूँगी। जो भी लंका में प्रवेश करने के लिए आते हैं, उन्हें मैं अपना आहार बना लेती हूँ। अब तुम्हारी भी यही हालत होगी।” 

इस पर हनुमान जी ने लंकिनी को बहुत ज़ोर से घूँसा मारा, तो उसकी हालत ख़राब हो गई। वह रुदन करती हुई बोली, “मैं समझ गई हूँ कि लंका का अंत निकट है। मुझे देवताओं ने बताया था कि लंकिनी, जब तुम समुद्र पार कर रहे किसी वानर के मुक्के के प्रहार से अत्यंत व्याकुल हो जाओ, तो समझ लेना कि अब लंका सुरक्षित नहीं रह गई। जल्दी ही उसका अंत होने वाला है।” 

फिर बोली, “जाओ वानर, मैं तुम्हें आशीर्वाद देती हूँ कि तुम्हारा मनोरथ पूरा हो। तुम प्रभु रामचंद्र जी का कार्य संपन्न करके, लंका से सफलतापूर्वक लौटो।” 

सुनकर हनुमान जी का उत्साह और बढ़ गया। थोड़ी ही देर में वे लंका के अंदर जा पहुँचे। अब गर्व से सिर उठाए लंका के विशाल भवन और अट्टालिकाएँ उनकी आँखों के सामने थीं और वे चकित होकर उन्हें देख रहे थे। पर उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि यहाँ वे सीता जी को कहाँ ढूँढ़ें? 

लंका का वैभव देखकर, बार-बार उनके मन में आ रहा था कि इसके पीछे अच्छाई नहीं, पाप, अन्याय और कुटिलता है। नेकी और सच्चाई तो भला यहाँ ढूँढ़ने से भी कहाँ मिल सकती है! 

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4 टिप्पणियाँ

  • 'तुम देखी सीता मृगनयनी' कहानी पढ़ी। आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी।करुणा-सिंधु में डुबोने वाली रचना। मैं रामचरित मानस अकसर पढ़ता हूँ। उसमें शबरी का प्रसंग मुझे सर्वाधिक प्रिय है। उसमें भी भगवान राम का नवधा भक्ति का उपदेश। उनका यह कथन कि शबरी, तुम्हारे अंदर तो नवों भक्तियाँ समाई हुई हैं। इतना बड़ा सम्मान पाकर शबरी पुलकित हो उठी थी। फिर शबरी से सीता के बारे में पूछना। इतना बड़ा सम्मान पाकर शबरी तो धन्य हो गई। यह राम जैसा महान और मर्यादा पुरुषोत्तम चरित्र ही कर सकता है। रामकथा का ऐसा करुण प्रसंग मन पर अमिट छाप छोड़ता है। आपकी कहानी में तो ऐसे अनेक करुण प्रसंग समाए हुए हैं। ऐसी कालजयी कहानी के सृजन के लिए हार्दिक बधाई, श्रद्धेय। - सादर, सविनय, श्यामपलट पांडेय

  • 'तुम देखी सीता मृगनयनी' कहानी पढ़ी। आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी।करुणा-सिंधु में डुबोने वाली रचना। मैं रामचरित मानस अकसर पढ़ता हूँ। उसमें शबरी का प्रसंग मुझे सर्वाधिक प्रिय है। उसमें भी भगवान राम का नवधा भक्ति का उपदेश। उनका यह कथन कि शबरी, तुम्हारे अंदर तो नवों भक्तियाँ समाई हुई हैं। इतना बड़ा सम्मान पाकर शबरी पुलकित हो उठी थी। फिर शबरी से सीता के बारे में पूछना। इतना बड़ा सम्मान पाकर शबरी तो धन्य हो गई। यह राम जैसा महान और मर्यादा पुरुषोत्तम चरित्र ही कर सकता है। रामकथा का ऐसा करुण प्रसंग मन पर अमिट छाप छोड़ता है। आपकी कहानी में तो ऐसे अनेक करुण प्रसंग समाए हुए हैं। ऐसी कालजयी कहानी के सृजन के लिए हार्दिक बधाई, श्रद्धेय। - सादर, सविनय, श्यामपलट पांडेय

  • 28 Sep, 2025 07:16 PM

    भक्ति भाव परिपूरित मनोहर रचना। आपकी कलम को छूकर हर वर्णन सरस हो जाता है। आपकी प्रतिभा और अध्यवसाय को नमन! - शैली टी

  • 27 Sep, 2025 03:16 PM

    बहुत सुन्दरता से आपने वर्णन किया है बाबूजी। बहुत बहुत बधाई आपको।

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