दुख की गाँठ खुली
प्रकाश मनु
अचानक उसके दुख की गाँठ खुली
खुली दुख की गाँठ तो
खुलता गया बहुत कुछ
पहले रिसा एक बूँद जल आँख से
फिर खुलते गए दुख-तकलीफ़ अपमान के बंद
मैली यातना के
गुम चोटें और नदी-नद तोड़ते कगार करुणा के
बहा इतना इतना जल बहा कि पूरा गाँव शहर सड़कें गलियाँ
खेत-जंगल आदमी मवेशी और घर बहे
बहते चले गए
डूबते-उतराते दिन भर कि जब दुख की गाँठ खुली
रुदन एक पिटा हुआ मार खाई करुणा
टीस कोई गहरे छिपी हुई अंदर की परतों में
सहेजकर तहाई हुई जाने कब-कब की
थी इकट्ठी कि किसी ने प्यार से फेरा पीठ पर हाथ
औचक खुली दुख की गाँठ
और उसके साथ खुलता चला गया बहुत कुछ
सारी धरती को जल-थल करता।
खुली दुख की गाँठ
तो हुआ उथल-पुथल बहुत कुछ
बहुत कुछ तिरा जल में जो दबा था भारी पत्थर तले
निकला भीतर का लावा गरम जलता हुआ
छितराता बहुत कुछ करता भीतर जज़्ब रंगों और आकारों
की दुनिया . . .
हक्का-बक्का, भौचक्का जमाना!
मगर खुली दुख की गाँठ
तो हलका हुआ जी
बहा बहुत कुछ जो रुका पड़ा था सदियों से वहीं
अपनी जगह मनहूसियत लपेटे
पुरानी गंधाती गठरी कि मृत कंकाल-सा अवसाद
पड़ा औँधा किसी कोने में
बहा बहुत कुछ अनजानी बारिश में
और दुनिया में
जीने की सम्भावना थोड़ी बढ़ गई।
बही दुख की गठरी
तो सुख ने दिखाई पहली बार सूरत भली-भली-सी
भीतर जी की उजास, मुलायमियत की धूप-छाँह . . .
नज़र आया बहुत कुछ
जब खुली और खुलकर नदी में धार-धार बही
दुख की गठरी
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