दोस्त चित्रकार हरिपाल त्यागी के लिए
प्रकाश मनु
(1)
जब मैं था उद्विग्न, तुम साथ थे
जब-जब झुलसा, दहका कुचला गया
तुम साथ चले आए ऐन घर तलक
देर-देर तक थपथपाते कंधा . . .
(कंधे पर हरी पुलकित डाल,
मुलायम स्पर्शों वाली!)
हर लड़ाई में
तुम्हारे शब्द थे कि ढाल बनकर खड़े हो गए,
ढाल आदमक़द विराट!
बाज़ दफ़ा तो मैं जा छिपा उसके भीतर
कि जब ढाल ऐसी हो पास—बिलकुल इस्पात
फिर डरूँ क्यों और किससे?
वहीं से शत्रु पर वार पर वार
पर वार—
मुझे तो लड़ना है—सिर्फ लड़ना
(बाक़ी तो तुम सँभाल लोगे!)
मेरी सारी चोटें तो मुझ पर नहीं
तुम पर पड़ती हैं हरिपाल
हर महाभारत में क्या यही होता है—
हर युग में . . .
हर युग का क्या यही है सत्य? . . .
तुम मुस्कुराते हो
और सुनती हैं पास से गुज़रती
सादतपुर की हवाएँ तक—
कि हम दुनिया के सबसे अच्छे लड़ने वाले हैं
अभी तक हम आपस में लड़ते रहे
अब दुश्मन से लड़ेंगे!
यह तुम नहीं—
तुम्हारे चित्रों की लकीरें कहती हैं।
पूरी ज़िन्दगी के सीखे हुए दाँव
लड़ाइयाँ, मोरचे
हर मोरचे पर हिल-मिलकर
संगीन की तरह
तन जाती हैं तुम्हारी लकीरें
बड़ी ही कड़ियल, बड़ी पुरज़ोर . . .
तुम्हारे रंगों की अजब-सी अनबन
से उबलकर
निकलता है सत्य,
हवा में कम्पन भर जाता है!
आसमानों की लाली चीरता हुआ कोई
चिल्लाता है—
(और हिलता है रोम का साम्राज्य!)
हमारी शक्तियाँ छीन-छीनकर
लूटपाट कर तुम बने हो दैत्य
आदमखोर—
हमारा रक्त तुम्हारे होंठों की लाली . . .!
पर अब हम यह चलने नहीं देंगे सम्राट,
हम ग़ुलाम नहीं, आज़ाद हैं . . .!!
—कहता है स्पार्टकस तुम्हारा।
धीमी मगर सुती हुई आवाज़ में
कहता है स्पार्टकस
रोम साम्राज्य की ताक़त पर हँसता,
और भीतर कुछ उबलता है।
तुम्हारी मुस्कुराती आँखें
कहती हैं—बड़े ही यक़ीन से भरी—
हाँ, यह सच है!
कि कला तुम्हारी—विरूप ज़िन्दगी पर
रंगों की चोट पर चोट पर चोट . . .!
तुम चित्रकार नहीं लड़ाका हो हरिपाल
तुम चित्रकार से ज़्यादा लड़ाका हो
हरिपाल
नहीं, नहीं—तुम तो हो लड़ाका चित्रकार . . .
रंग तुम्हारे दोस्त हैं
बड़े ही ज़िद्दी अभिमानी मित्र
लकीरें—
लड़ाई के नक़्शे . . .!
तुम्हारे हाथ लगाते ही
उनमें दौड़ पड़ती हैं बिजलियाँ
खंडहरों में उगने लगती हैं सृष्टियाँ
और भूकंप में साथ-साथ भूँकते दो कुत्ते तक
बुरे वक़्तों में जीने का हौसला बन जाते हैं।
(दो)
तुम्हारी सादा मगर ख़ुद्दार कला
हरिपाल—
मेरे दोस्त चित्रकार—
जीवन से फूटती है जीवन-राग बनकर
तो धरती की परतों को फोड़कर
उग आते हैं मानुस
बाबा नागार्जुन की घुच्ची आँखों की हँसी
त्रिलोचन की श्वेत धवल दाढ़ी
और सादतपुर के हाट-बाज़ार में ख़रीदारी करती
अधेड़ स्त्रियाँ
बन जाती हैं कला की अनमोल सृष्टियाँ
किसी पिछड़े हुए क़स्बे की प्रेम में डूबी
एक आँख वाली नूरजहाँ
में समा जाता है सारी दुनिया का अनाविल सौंदर्य!
और ठूँठ में आँखें खोलते निरालस पुष्प
हमारी आँखों की उजास बन जाते हैं।
अक्सर जब कभी फँसा हूँ,
जहाँ कहीं
फाँस लिया जाता हूँ बुरी तरह धर-पकड़ में!
याद आती हैं तुम्हारी बातें
अलग-अलग संदर्भों में कही
बड़ी ही दमदार—
केदार, त्रिलोचन और बाबा नागार्जुन की मुँहज़ोर
कविताओं की टंकार सी!
याद आती हैं कि जैसे
हरे-हरे पत्तों की थरथराहट उतरती चली आय दिल में!
और गाँठ खुल जाती है अचानक
और रास्ते निकल आते हैं
तहख़ानों से बाहर की हरियाली तक . . .
और मैं नंगा दौड़ पड़ता हूँ
नदियों का पानी
उछालता दोनों हाथ से
धूप और पत्तियों और हरियाली के नशे में धुत्त!
और मैं ख़ुश हूँ
कम से कम एक है महानगर में
जिसके आगे किसी भी कमज़ोर क्षण में
कपड़े उतारकर दिखा सकता हूँ घाव
और मुझे शर्म नहीं जाएगी।
1 टिप्पणियाँ
-
वाह ग़ज़ब। बेहद खूबसूरत अंदाज़ ए बयां
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