भीष्म साहनी को याद करते हुए
प्रकाश मनु
(1)
यहीं कहीं कोई भीष्म साहनी था
जो गुज़र गया . . .
यहीं इसी ज़मीन पर,
जिसे कितने ही ताक़तवर पैर
कितनी तरह से कुचल रहे हैं
दूर तक एक सांस्कृतिक सन्नाटे को तोड़ते
नए तानाशाहों के जूते ठक-ठक बजते हैं।
कोई एक भोंपू सुबह से शाम तक चीखता है—
हमें नई सुबह नहीं चाहिए,
नहीं चाहिएँ नए विचार!
उनका हर ‘सुप्रभात’
आज से पाँच हज़ार साल पहले हो चुका होता है!
यहीं . . . यहीं—इसी ज़मीन पर—
जहाँ धूल और धुएँ के ग़ुबार आप देखते हैं,
ज़रा ग़ौर से देखें तो हवा में वह प्रागैतिहासिक क़िला
नज़र आ सकता है,
जहाँ काठ की तलवारों से इतिहास की झूठी
लड़ाइयाँ लड़ी जा रही हैं
जहाँ कुछ भरे हुए पेटों की लाठियाँ
मंदिर-मस्जिद से ऊबकर
अचानक मज़दूर और किसानों पर टूट पड़ती हैं
और कहीं हलकी चीख तक नहीं सुनाई देती
यहीं . . .
यहीं जहाँ ज़मीन धूल के बगूले बहुत उगलती है
यहीं कहीं दरम्याने क़द का
एक दुबला सा लेखक था भीष्म साहनी
जो गुज़र गया!
मैं दर्जनों बार आविष्ट चेहरा लिए उससे मिला
उसकी आँखों में हमेशा एक पैनी चमक थी,
जो हमेशा मुस्कुराते रहने का भरम देती थी।
मैंने उसे कभी ऊँची आवाज़ में बोलते नहीं सुना,
मैंने उसे कभी अभिमान से कहते नहीं सुना
कि चूँकि हम लेखक हैं, इसलिए बड़े हैं।
मैंने उसे ज़िन्दगी भर किसी पर हिक़ारत से
हँसते नहीं देखा,
नहीं उछालते देखा कोई चालाक फ़िक़रा!
कोई चालीस बरस पहले
जब मैं पहलेपहल अपने युवा ग़ुस्से और पागलपन के साथ
उससे मिला था
खाया झुलसा और झल्लाया हुआ
तब भी, याद है—मेरी हर तीखी फब्ती के जवाब में
वह मुस्कुराता रहा था
फिर हँसते-हँसते उसने धीरे से प्रेमचंद की ओर उँगली उठा दी थी—
देखो प्रकाश मनु, प्रेमचंद . . .!
बोलते समय जिनके किरमिच के फटे जूतों से निकली
पैर की काली उँगली बाहर झाँक रही होती थी
न प्रेमचंद को उसकी परवाह होती थी
न सुनने वालों को!
और अब मैं भीष्म नहीं, प्रेमचंद के रू-ब-रू था
और मेरा मलाल बह गया . . .!!
कोई भावुक खामख्याली, कोई शब्दों का खेल नहीं . . .
बस, छोटे-छोटे वाक्यों के टुकड़ों पर टुकड़े जमाते
उन्होंने अपनी तकरीर पूरी की थी
पूरे इत्मीनान से
जैसे कोई होशियार राज ईंट पर ईंट रखकर
एक सीधी दीवार बनाता है
और दीवारों से एक घर . . .
वह घर जो प्रेमचंद का घर था
मगर जो किसी भी लेखक का घर हो सकता है!
(दो)
मामूली तूलिका से बड़ी लकीरें खींचता वही भीष्म साहनी
जो यहाँ था,
हलके क़दमों से चहलक़दमी करते हुए
अभी-अभी कैनवस से बाहर चला गया।
वही भीष्म साहनी जिसने ‘तमस’ नहीं
एक पछाड़ें खाती इनसानियत का इतिहास लिखा,
फिर ‘मय्यादास की माड़ी’ में ले जाकर
इतिहास की विडंबनाओं से गुज़रे पंजाब के रिसते घाव दिखाए
वह कल तक यहीं कहीं आसपास था
जो गुज़र गया।
मैंने उसे कभी अख़बारों में नहीं देखा
क्योंकि अख़बारों में रोज़ नया शगूफ़ा छोड़ते
कुछ मल्ल क़िस्म के साहित्यिक महानों का स्थायी अधिवास था
जो हर चीज़ को ऊपर से नीचे, फिर नीचे से ऊपर ले जाने की
कला में उस्ताद थे
और जिस दिन अख़बार में नहीं छपता था उनका नाम
उनकी सुबह, सुबह नहीं होती थी।
इसके लिए दोस्तों और दुश्मनों पर मेहरबानियाँ करने से लेकर
उनके पास कई क़िस्म के मामले ओर एजेंडे थे!
पर उन महानों के बीच धीमी मगर सुती हुई आवाज़ में
आहिस्ता-आहिस्ता सोचकर बोलने वाला
एक भीष्म साहनी था,
जिसकी धीमी आवाज़ अचानक किसी ‘तमस’ में बुलंद हो जाती
तो तूफ़ान आ जाता था।
वह शख़्स जो कभी चमकीली सुर्ख़ियों
में नहीं रहा
हमने देखा, मरकर भी साहित्य के तमाम महाभट्टों
से ज़्यादा ज़िन्दा है . . .
हालाँकि वह चला गया
मगर जाकर भी कहाँ गया!
यह दीगर बात है कि जिनकी सारी ज़िन्दगी
हर प्रगति को प्रगति से भिड़ाने में गुज़री है
इस बात से बेपरवाह कि पास ही लाल आँखें किए भेड़िए
बस, अब झपटने को ही हैं . . .
वे अब भी उसी तरह कूदने और ज़मीन खूँदने
के खेल में व्यस्त हैं
मैंने उन अहंकारियों से
उस विनम्र, दुबले और आहिस्ता-आहिस्ता
अपनी चाल से चलने वाले लेखक के बारे में पूछा
जो कभी ज़ोर से नहीं बोला,
और कभी ग़ुरूर से नहीं बोला
तब कंधे उचकाते हुए उनमें से एक ने
कहा—
हाँ-हाँ, यहीं कहीं कोई भीष्म साहनी था,
जो गुज़र गया।
जी हाँ, एक भीष्म साहनी था, जो गुज़र गया।
1 टिप्पणियाँ
-
भीष्म साहनी तरीके शाहकार व्यक्तित्व और उनके कृतित्व को एक सुंदर सा सहज सा सरल सा आयाम दिया है,अपने । आपको सादर प्रणाम।
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