कृष्ण भाईसाहब: वह शांत, मुस्कुराता चेहरा
प्रकाश मनु
यह जीवन एक रंगशाला है। इसमें तरह-तरह के पात्र हैं। अच्छे भी, बुरे भी। सब अपना-अपना पार्ट कर रहे हैं। शायद इसी से जीवन में इतने रंग, इतनी विविधता, इतनी गतियाँ हैं। पर इसी जीवन में कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिनके आसपास जैसे हर वक़्त प्रकाश फूटता रहता है। उनका हँसना, बोलना, मुसकराना सबसे ऐसा लगता है कि इससे दूसरों के दिलों में प्रकाश हो रहा है। सबके दिलों को ठंडक मिल रही है। हम कहते हैं, उनमें ईश्वर का वास है।
हमारे कृष्ण भाईसाहब भी ऐसे ही थे। एक अर्थ में, इस धरती के देवता। अपने आप में भरे-पूरे। उन्होंने कभी किसी की शिकायत नहीं की। कभी किसी पर ग़ुस्सा नहीं किया। उनकी हर बात ऐसी थी कि हमारे दिल को ठंडक पड़ती थी। इसलिए हम लोग चाहे कहीं भी हों, उनसे मिलने के लिए लालायित रहते थे। लखनऊ कुछ अलग पड़ता था, फिर भी हम दौड़-ड़ौड़कर उनके पास आते थे और हर बार उनसे बहुत कुछ लेकर जाते थे।
और फिर हममें से हर किसी को लगता है, कि उसे बनाने में कृष्ण भाईसाहब का बड़ा हाथ है। सबके पास उनकी अनंत स्मृतियाँ हैं। विविध रंगों की। जैसे यादें नहीं, फूलों की कोई क्यारी हो।
इस लिहाज़ से देखें, तो कृष्ण भाईसाहब हमारे घर के कण-कण में बसे हुए थे। हर प्राणी के दिल में थे। और उनके जाने के बाद भी वे घर के कण-कण में बसे हुए हैं। घर के हर प्राणी के दिल में उनका बड़ा कोमल और सुंदर सा बसेरा है। यादों का नीड़। वे घर की आर्द्र स्मृतियों में हैं, और हमेशा बने रहेंगे। इसलिए कि इस घर को बनाने में यों तो सबका अपना-अपना योगदान है। किसी का कुछ कम, किसी का कुछ ज़्यादा। पर कृष्ण भाईसाहब से बड़ा योगदान किसी का नहीं। वे घर के सबसे मज़बूत और अचल खंभे थे, जिन पर पूरा घर टिका हुआ था। और सच कहूँ तो वे इस घर की सबसे मज़बूत नैतिक धुरी थे, और आज भी जब इस घर की नई पीढ़ी के बहुत से सदस्य विदेशों में बस गए हैं, यह घर उसी नैतिक धुरी पर आगे चल रहा है, तो यह कोई छोटी बात नहीं।
ऐसे ही देश-विभाजन के बाद घर जब बुरी तरह झंझावातों में फँसा था, तो एक बहुत बड़ा संकट और परीक्षाकाल अचानक सामने आया। यह एक तरह से जीने या मरने का समय था। बीच में पिता, जैसे तलवार की धार पर खड़े हों। रात-दिन मेहनत। रात-दिन संघर्ष। और अकथनीय उपेक्षा झेलते हुए जीने की जद्दोजेहद।
पिता जब यहाँ आए तो कोई चालीस बरस के थे। एक सम्मानपूर्ण ज़िन्दगी के वृंत से टूटकर अचानक वे यहाँ धूल में आ पड़े थे। बड़े दोनों बेटों की मदद से उन्होंने अथाह श्रम किया। कपड़े की एक दुकान बनाई, पर वह बलराज भाईसाहब को सौंप दी गई, जिनका तब तक विवाह हो चुका था। फिर एक दुकान। वह कश्मीरी भाईसाहब के हिस्से आई। पिता जी ने आटा चक्की और तेल के एक्सपेलर का काम सँभाला। पर अब पिता अकेले थे। उम्र बढ़ रही थी। तब आगे आकर उन्हें सहारा देने और उनकी सारी मुसीबतों को अपने सिर और छाती पर झेल लेने वाले कृष्ण भाईसाहब ही थे। उनके निरंतर श्रम और शांत धीरज के आगे बड़ी से बड़ी मुश्किलें पानी हो जातीं, और माँ-पिता जी का हौसला दूना हो जाता।
यों कृष्ण भाईसाहब माता और पिता दोनों का भरोसा थे। जो काम उन्हें सौंपा, वह होगा। हो ही जाएगा, यह माँ और पिता दोनों का यक़ीन था। और उनका यह यक़ीन कभी नहीं टूटा। चाहे जितना भी खटना पड़ा हो, कृष्ण भाईसाहब हर बार परीक्षा में खरे उतरे। बाद में विवाह हुआ, तो भी उनका घर तो यह पूरा घर ही रहा, अपना अकेले का घर नहीं। और आख़िर तक वे इस घर की सारी ज़िम्मेदारियों को पूरे प्राण-पण से निभाते रहे। यह वे किसी बाध्यता से नहीं कर रहे थे। बल्कि यह चीज़ उनके रक्त में थी। उनके संस्कार में थी, और ऐसा किए बिना वे रह ही नहीं सकते थे।
और इससे भी बड़ा था उनका नैतिक आधार। उन्होंने पूरे घर को अपने विचारों से संस्कारी बनाया, हम सबको भीतर-बाहर से माँजकर सच्चा और संवेदनशील बनाया। और संयुक्त परिवार की जो एक निर्मल आत्मा रही होगी, जिसमें किसी का भी दुख-दर्द, उस अकेले का नहीं, पूरे परिवार का दुख-दर्द बन जाता है, उसे उन्होंने अंत तक बचाए रखा। इसलिए हमारा घर तमाम दुख की आँधियों और दुश्वारियों के बीच भी एक अच्छा, नैतिक और संस्कारी संयुक्त परिवार बना रहा। इसीलिए मुझे लगता है, इस घर को बनाने में जितना योगदान कृष्ण भाईसाहब का है, उतना किसी और का नहीं।
पर आश्चर्य, कभी उन्होंने भूल से भी इस बात की चर्चा की हो, या कभी इस बात का ग़ुरूर उनके चेहरे या बोली-बानी में आया हो, मुझे याद नहीं पड़ता। उनके लिए यह एक सहज कर्त्तव्य था इस घर के प्राणी होने के नाते, तो भला इसमें घमंड कैसा? वे पूरे घर में बसे थे और घर के हर छोटे–बड़े से उनका नेह का रिश्ता था। इसलिए जो वे करते थे, सहज भाव से करते थे, और जब तक शरीर में सामर्थ्य रही, वे करते रहे।
आख़िर के कुछ बरसों में चलने-फिरने में लाचार से हो गए। तो भी चारपाई पर लेटे-लेटे घर के हर सदस्य की चिंता वे करते रहे, और जो कुछ उसके लिए कर सकते थे, करते रहे। फोन पर उनकी वार्ता और संभाषण तो बना ही रहा। हर किसी को उनसे फोन पर बतियाने में ख़ुशी होती। वे बात करके जैसे नए उत्साह और उल्लास से भर देते।
[2]
लेकिन मैं . . .? भला मैं कुक्कू कब से धारे हुए हूँ उन्हें अपने दिल के झरोखे में। सोचता हूँ, तो बिल्कुल अपना शिशुकाल याद आ जाता है। मैं शायद तब कोई तीन-साढ़े तीन बरस का रहा होऊँगा। एक भोला सा बच्चा। भोला और मस्त-मौला, जो कुछ न कुछ सोचता-सा अपने में मगन रहता है। आसपास कहीं कोई मज़ेदार सी चीज़ देखता या कोई ऐसी बात सुनता, जो उसके दिल को भा जाती, तो एकाएक ताली पीटकर हँसता है, “ओल्लै . . .!” और फिर ख़ुशी से नाच-सा उठता है। यह उसकी एकदम मगन अवस्था होती है। सर्वाधिक ख़ुशी के पल।
यों बच्चे तो सारे ही भोले होते हैं, पर मैं शायद भोला ही नहीं, कुछ बावला भी था, जो हर वक़्त अपनी छोटी-सी दुनिया में मस्त रहता था। हम नौ भाई-बहनों में मैं घर का आठवाँ प्राणी, वे चौथे थे। मैं तो तीन-साढ़े तीन बरस का था, पर कृष्ण भाईसाहब तब कितने साल के रहे होंगे? हिसाब मेरा कच्चा है, फिर भी मैं समझता हूँ, सोलह-सत्रह के तो ज़रूर रहे होंगे। उसे तरुणावस्था ही कहेंगे। पर मुझे तब भी वे बड़े, बहुत बड़े लगते। जैसे वे कभी छोटे न हों, शुरू से ही बड़े, बहुत बड़े रहे हों। यह बड़प्पन उन पर फबता था। उन्हें रास आता था।
हालाँकि इस बड़प्पन में कभी-कभी चुलबुल हास्य की भी एक मीठी सी झाँईं नज़र आ जाती थी। तब कृष्ण भाईसाहब हँसते। निक्का-निक्का हँसते। महीन-महीन। मुझे उनकी वह मीठी हँसी याद है, बचपन से ही। और वह उनमें अंत तक रही। मुझे वह बड़ी प्यारी लगती थी। सोचता हूँ, शायद बड़ी सरलता से ही वह आती होगी। मन एकदम निर्मल, पारदर्शी हो, तभी वैसी हँसी शायद आदमी हँस पाता होगा, जो एकबारगी सबको हँसा दे। उस हँसी में कभी व्यंग्यपूर्ण कटाक्ष या फिर कोई मलिनता आई हो, मझे याद नहीं। उनकी हँसी अंत तक सरल और पारदर्शी हँसी बनी रही, जैसे वे ख़ुद थे। क्या मैं कहूँ, कि मुझे उस सीधी-सच्ची, निर्मल हँसी में ही कृष्ण भाईसाहब का होना भासता है। आज भी।
पर मैं तो अपने शिशुकाल की बात कर रहा था न! बहते-बहते जाने कहाँ चला गया? . . . अलबत्ता, शिशुकाल की ही एक छोटी सी स्मृति है। मेरा नाम था, कुक्कू। कुछ बुरा तो न था, पर मुझे अटपटा लगता था। इसलिए कि मेरे साथ के बच्चों में तो कोई कुक्कू न था। मेरा नाम सबसे अलग था, और मैं सोचा करता था, “कुक्कू का क्या मतलब . . .? मेरा नाम कुक्कू ही क्यों है . . .? भला कुक्कू का अर्थ क्या है . . .?”
बाद में चलकर माँ ने बताया कि मेरा नाम कुक्कू असल में घेली नानी ने रखा था। मैं घर में सबसे अलग, कक्के रंग का था। ख़ूब गोरा-चिट्टा सा। इसलिए मेरी ममतामयी नानी ने बड़े लाड़ से ‘एह ताँ मैरा कक्का, एह ताँ मैरा कुक्कू!” गाना गाते हुए मेरे साथ कुक्कू नाम चिपका दिया। और तब से मैं कुक्कू हुआ, तो फिर चाहे जितना भी बड़ा होता गया, अंदर से तो कुक्कू ही बना रहा।
अलबत्ता, यह तो बाद की बात है। जब मैं छोटा सा, कोई तीन बरस का था, तब भला क्या जानता कि कुक्कू माने क्या! और कहाँ से आकर यह किसी बूझ-बुझौवल की तरह मेरे साथ जुड़ गया? तब कृष्ण भाईसाहब ने अपने प्रसन्न राग से कुक्कू को नया अर्थ दिया। उन्होंने शायद पंजाबी में किसी मुर्ग़े की कहानी पढ़ी थी, जिसमें कविता की ये पंक्तियाँ आती थीं—
“कुकड़ूँ कूँ,
राजे दी धी परना दे तू . . .!”
यानी कुकड़ूँ कूँ करने वाले ओ मुर्ग़े, तू राजा की बेटी से मेरा विवाह करवा दे।
कुक्कू और कुकड़ूँ कूँ की ध्वनि मिलती-जुलती थी, इसलिए कृष्ण भाईसाहब मुझे छेड़ने के लिए कविता की ये पंक्तियाँ सुनाया करते थे। और मैं भी, जो शायद तीन या चार बरस का रहा होऊँगा, सुनकर खिड़-खिड़ हँस देता था।
हालाँकि कुकड़ूँ कूँ करने वाले मुर्ग़े की पूरी कहानी तो मैंने सुनी न थी। इसलिए उत्सुकता तो थी कि भला यह कौन मुर्ग़ा था, जिससे राजा की बेटी से विवाह करवाने के लिए कहा जा रहा है? ज़रूर यह कोई करिश्माई मुर्ग़ा होगा, और किसी झोंपड़ी में रहने वाले ग़रीब से युवक हरखूलाल के आसपास छाया की तरह डोलता होगा।
यों मैं बिना कहानी जाने ही कहानी के रोमांचक रहस्यलोक में पहुँच जाता था।
आज कहानी के छूटे हुए तार जोड़ता हूँ तो लगता है, वह मुर्ग़ा करिश्माई ही नहीं, बड़ा गर्वीला और दबंग भी रहा होगा, जिसका मालिक हरखूलाल नाम का ख़ुशदिल और मस्तमौला शख़्स उसे अपने जिगरी दोस्त की तरह प्यार से रखता होगा। फिर हरखू ने सात समंदर पार के किसी राजा की बेटी नयनतारा की सुंदरता के बारे में सुना होगा और मन में उससे विवाह करने की इच्छा लिए, चल पड़ा होगा। कूच-दर-कूच-दर–कूच। रात-दिन यात्रा, यात्रा और यात्रा।
वह अकेला भले ही हो, पर उसका प्यारा कुकड़ूँ-कूँ मुर्ग़ा तो था ही छाया की तरह उसके साथ। वही तो उसका प्यारा दोस्त और राजदार था। तो हरखू ने कभी बातों-बातों में अपने दोस्त मुर्ग़े को अपनी इच्छा बताई होगी, और बड़े प्यार से उससे मनुहार की होगी—
“कुकड़ूँ कूँ,
भई, कुकडूँ कूँ,
राजे दी धी परना दे तू . . .!”
इस पर उसके दोस्त मुर्ग़े ने बड़ी शान के साथ राजदरबार में जाकर, राजा को अपने मालिक हरखू की ओर से राजकुमारी नयनतारा से विवाह का संदेश दिया, तो वहाँ कैसा तो उसका मख़ौल उड़ा होगा। कैसी-कैसी फब्तियाँ कसी गई होगी। हो सकता है, ठठाकर हँसते दरबारियों में से किसी ने उसे बुरी तरह डाँटकर वहाँ से भगाने की भी कोशिश की हो। तब ग़ुस्से में गरदन फुलाए उस कुकड़ूँ कूँ मुर्ग़े ने ज़रूर अपनी होशियारी से राजा को इस बुरी तरह छकाया होगा और ऐसे हालात पैदा कर दिए होंगे कि आख़िर राजा को अपनी बेटी का विवाह हरखू से करना ही पड़ा होगा। और कोई अचरज नहीं कि वह कुकड़ूँ कूँ करने वाला सुंदर और गर्वीला मुर्ग़ा अंत तक हरखू का प्यारा दोस्त और साथी बना रहा हो। या फिर हो सकता है, राजा बने हरखूलाल ने उसे अपना मंत्री ही बना लिया हो . . .
अलबत्ता, कहानी तब भी पूरी पता नहीं थी, अब भी पता नहीं है। बस, कहानी के नाम पर एक सुंदर झिलमिली सी आँखों के आगे रहती थी। वह अब भी आँखों के आगे है। पर लगता है, कृष्ण भाईसाहब ने कुकड़ूँ कूँ वाली इस छोटी सी कविता के ज़रिए शायद पहली बार कहानी की रोमांचक दुनिया के द्वार मेरे लिए खोल दिए थे।
इसी तरह वह समय याद आता है, तो याद आता है कि उन दिनों हमारे घर में बिजली नहीं थी। आसपास कहीं नहीं थी। शायद शहर में बिजली के खंभे तब तक लगे ही नहीं थे। हाँ, बाज़ार और गलियों में जगह-जगह लैंपपोस्ट थे। और एक आदमी रोज़ शाम को एक छोटी सी नसेनी, मिट्टी के तेल का कनस्तर और कुप्पी साथ लेकर ये लैंप जलाने आया करता था। अभी बिजली को सालों बाद हमारे उस क़स्बाई शहर की तरफ़ आकर झाँकना था। तो फिर बिजली के पंखे की बात तो सोची भी कैसे जा सकती थी? सच पूछिए तो हम जानते ही न थे कि बिजली का भी कोई पंखा होता है। और अगर होता है तो वह चलता कैसे है?
पर मनुष्य अपनी ज़रूरत की चीज़ें हर वक़्त ईजाद कर ही लेता है। याद है कि कृष्ण भाईसाहब ने उस समय एक पंखा ख़ास तौर से तैयार करवाया था जो हमारे अंदर वाले कमरे में छत की कड़ियों से बँधा हुआ था। यह वह कमरा है, जिसे हम मंदिर वाला कमरा कहते थे। आज भी उसका यही नाम है। नई पीढ़ी के लिए तो शायद उस पंखे की कल्पना करना ही मुश्किल है। पर पुराने लोगों को शायद याद हो। वह पंखा क्या था, लकड़ी का एक चौड़ा तख़्ता होता था। उस पर कपड़ा मढ़ दिया जाता था और नीचे भी कपड़े की एक भारी झालर सी लटकी रहती थी। उस पंखे से एक डोरी भी लटकती थी। उस डोरी को खींचने से वह पंखा चलता था। डोरी खींचने से उससे बँधा तख़्ता उधर-उधर होता था तो उसके सहारे लटकती झालर भी हिलती थी। इससे ख़ूब हवा आती थी। और यह एकदम देसी क़िस्म का पंखा था। मुझे याद है, उस समय मैंने कुछ और घरों में भी छत से लटकते ऐसे पंखे देखे थे।
मुझे याद है, भाईसाहब सुबह-सुबह चक्की पर पहुँच जाते थे। दोपहर में खाना खाने के लिए वे घर आते थे और खाना खाकर थोड़ी देर आराम करते थे। ख़ासकर गरमियों में, मई-जून के महीनों में। तो उस समय डोरी को हिलाकर पंखा करने का ज़िम्मा मेरा होता था। मेरे लिए यह खेल था। बड़ा ही आनंद भरा खेल। पर बच्चे का खेल थोड़ी देर ही चलता है। तो होता यह था कि उस डोरी को हिलाते-हिलाते थोड़ी देर में मैं ख़ुद सो जाता था। और फिर मामला उलट जाता था। भाई साहब नींद से जगकर डोरी हिलाने लगते थे और मैं मज़े में सोता रहता था।
आगे चलकर बिजली के पंखे की हवा खाई है, कूलर और ए.सी. की भी। पर बचपन में कृष्ण भाईसाहब के पंखे की जो ठंडी-ठंडी हवा खाई थी, वह आज भी याद आती है। कितना मुश्किल उद्यम था वह, लेकिन कितना आनंद भरा।
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ऐसे ही बचपन का एक और प्रसंग याद आता है। हर साल कार्तिक महीने में हमारे घर बाबा रामजीदास आते थे। शायद हरिद्वार या ऋषिकेश से। वहाँ उनकी कुटिया थी। बड़े ही प्रेममय बाबा थे वे। चेहरे पर भरी-पूरी सफ़ेद दाढ़ी। ढीला-ढाला गेरुआ वस्त्र। बड़ी मीठी हँसी हँसते थे वे। उनका व्यवहार छोटे-बड़े सभी को मोहता था।
सुना है, विभाजन से पहले बाबा जी ख़ुशाब के एक बड़े से भव्य मंदिर में रहते थे, जहाँ कई और साधु लोग भी थे। फिर देश-विभाजन के समय सांप्रदायिकता की काली आँधी आई तो वहाँ तमाम हिंदुओं के साथ ही मंदिर में रहने वाले निष्पाप साधु बाबाओं तक का वध हुआ। बाबा रामजीदास तब छोटे थे। वे कहीं छिप गए। और फिर पाकिस्तान से आने वाले विस्थापित लोगों के एक क़ाफ़िले के साथ ही वे भारत आ गए। हमारा परिवार भी ख़ुशाब तहसील के कुरड़ गाँव का रहने वाला है। इसलिए बाबा रामजीदास अच्छी तरह हमारे परिवार को जानते थे और बड़ा प्रेम मानते थे। हर साल कार्तिक का पूरा महीना वे हमारे घर बिताते थे। यहीं रात के समय वे कार्तिक की कथा करते थे। पर साथ ही भजन भी होते थे। रामचरित मानस का पाठ भी होता था। पूरा सत्संग कोई ढाई-तीन घंटे तक चलता था।
जब से मैंने होश सँभाला, मैंने कृष्ण भाईसाहब को ही बाबा रामजीदास की कार्तिक कथा से पहले गंभीर स्वर में रामचरित मानस का पाठ करते देखा है। उनका तरीक़ा यह था कि वे पहले मानस का कोई दोहा या चौपाई आदि पढ़ते थे और फिर उसका सरल हिंदी अर्थ भी पढ़ देते थे। इस तरह रामचरित मानस का मूल पाठ और उसका अर्थ दोनों ही सुनने वालों के दिलों में उतर जाते थे।
कृष्ण भाईसाहब बहुत अधिक सुरीले ढंग से रामचरित मानस का गायन नहीं करते थे, जैसा कि मैंने कुछ लोगों को सुना है। ऐसे लोग किसी सुमधुर गीत की तरह रामचरित मानस की पंक्तियों को खींचकर गाते हैं। पर भाईसाहब का ढंग कुछ अलग ही था। उनके पाठ में गांभीर्य था, रस था और लय भी। युद्ध आदि के वर्णनों में ओज गुण आ जाता था। पर जब वे पाठ कर रहे होते तो कुल मिलाकर गायन नहीं, रामचरित मानस के शब्दों का असर ही मन पर पड़ता था। जैसे तुलसी के मानस के शब्द और भाव दोनों ही मन में उतरते जा रहे हों।
तुलसीदास की करुणा, तुलसीदास की भक्ति और तुलसीदास की कथा-शैली सबका मर्म कृष्ण भाईसाहब के उस पाठ में खुलता था और हम रामकथा के भावों में डूबते चले जाते थे।
मुझे ऐसे कई प्रसंग याद आते हैं, जब मैंने मुग्ध होकर उन्हें पाठ करते सुना, और रामकथा के आनंद में बहता चला गया। तुलसी का जो स्वाभाविक गांभीर्य था, वह कृष्ण भाईसाहब के चेहरे पर खिल उठता था और मैं आनंदमग्न होकर उन्हें सुना करता था। उनकी अपनी सीधी-सहज लय थी, जो बहुत द्रुत-विलंबित न थी, पर सबको अपने साथ बहा ले जाती थी।
सच पूछिए तो रामचरित मानस के कथारस से मैं तभी परिचित हुआ, और फिर जीवन भर वह मुझे भिगोता रहा। बाद में मैं थोड़ा बड़ा हुआ तो रामचरित मानस के पाठ का ज़िम्मा मुझे दे दिया गया। मेरा पाठ निश्चय ही कृष्ण भाईसाहब की तरह गंभीर और रसमय नहीं था। पर कृष्ण भाईसाहब को निरंतर सुनते हुए जो कुछ सीखा था, वह मेरे बहुत काम आया और मैं आनंद के साथ रामचरित मानस का पाठ करने लगा। शुरू में कहीं-कहीं थोड़ा अटका भी, पर फिर रास्ते खुलते चले गए।
सच कहूँ तो यह केवल रामचरित मानस के पाठ की डगर ही न थी। ये साहित्य के अध्ययन-मनन की आनंदपूर्ण राह भी थी, जिस पर आगे चलकर मेरा पूरा जीवन ही निसार होने वाला था। और इसमें मेरे प्रथम गुरु कृष्ण भाईसाहब ही थे।
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भाईसाहब शुरू से पढ़ाई में बहुत अच्छे थे। पालीवाल इंटर कॉलेज के प्रिंसिपल रामगोपाल पालीवाल और सारे अध्यापक उन्हें बहुत चाहते थे। बहुत प्यार करते थे। हाईस्कूल और इंटरमीडिएट में वे प्रथम ही नहीं आए, कॉलेज में सर्वाधिक नंबर लेने वाले छात्रों में से थे। ख़ासकर गणित और विज्ञान विषयों में वे बहुत होशियार थे। तभी बी.एस-सी. की भी कक्षाएँ शुरू हुईं और कृष्ण भाईसाहब उसके पहले बैच में ही थे। पर घरेलू हालात कुछ ऐसे बने कि बी.एस-सी. के दूसरे वर्ष के पेपर वे नहीं दे सके और उन्हें पढ़ाई छोड़नी पड़ी।
कृष्ण भाईसाहब पढ़ाई बीच में छोड़कर पिता के व्यापार में साथ देने के लिए आगे आ गए। पिता की सारी सम्पत्ति पाकिस्तान में छूट गई थी, और शिकोहाबाद में आने के बाद उन्हें बिल्कुल नए ढंग से जीवन की शुरूआत करनी पड़ रही थी। हालात बुरे थे और इज़्ज़त से दो रोटी खाना भी मुश्किल हो रहा था। ऐसे में पिता के हाथ मज़बूत करना पहली प्राथमिकता थी। कृष्ण भाईसाहब उनके साथ चक्की पर बैठने लगे।
उस समय काम-काज की परिस्थितियाँ अच्छी न थीं। सबसे भारी मुसीबत तो यह थी कि अभी बिजली आई न थी। एक बड़ा भारी और थोड़ा ज़िद्दी क़िस्म का विशालकाय इंजन था, जिसकी मदद से आटाचक्की और ऐक्सपेलर वग़ैरह चलते थे। पर इंजन सच ही अड़ियल टट्टू था। कभी भी दुर्वह हठ करके बैठ जाता तो चलने का नाम ही न लेता था। उसे ठीक करना बड़े झंझट का काम था। कारीगर तब ज़्यादा न थे, इसलिए ज़्यादातर ख़ुद ही पुरजे खोलने और मरम्मत का काम करना पड़ता था। और जब तक इंजन ख़राब रहेगा, आपका सारा काम-धंधा अटका रहेगा। इसलिए दो-दो, तीन-तीन दिन का काम इकट्ठा होता रहता। और फिर इंजन ठीक होकर चल पड़ता तो लगता, बड़ी देर से रुका हुआ जीवन फिर से आगे चल पड़ा है।
उस दौर में कृष्ण भाईसाहब ने कितनी मेहनत की, यह ख़ुद में एक मिसाल है। वे जी-जान से कोशिश कर रहे थे कि पिता का काम फिर से चल जाए और घर की आर्थिक हालत फिर से पटरी पर आ जाए। भाइयों में मेहनत तो सबने की, पर कृष्ण भाईसाहब ने काम को काम नहीं समझा। उसमें पूरी तरह डूब गए। उनके सामने लक्ष्य साफ़ था और किसी किंतु-परंतु ने उनका रास्ता नहीं रोका। अपने से ज़्यादा उन्हें घर की इज़्ज़त की चिंता थी। हमारा इतना प्रतिष्ठित परिवार देश-विभाजन की आँधी में इस क़द्र बेहाल हो गया है। उसे इस दलदल से बाहर निकालना है। इससे ज़्यादा उन्होंने कुछ और नहीं सोचा। पढ़ाई-लिखाई में इतने होशियार और प्रतिभावान होकर भी उन्हें पिता के साथ आटाचक्की और ऐक्सपेलर का काम सँभालना पड़ रहा है, यह मलाल या शिकायती भाव उनके चेहरे पर कभी नहीं आया। हमारे घर के वे सबसे कठोर संघर्ष के दिन थे, जिसमें भाईसाहब एक मज़बूत बल्ली की तरह पाँव जमाए सीधे तनकर खड़े थे।
फिर हमारे घर आसमान से जैसे एक बड़ी विपदा आकर टूट पड़ी। मेरे सबसे बड़े भाईसाहब, बलराज भाईसाहब नहीं रहे। केवल बत्तीस वर्ष की अवस्था में वे गए। एक घातक दिल के दौरे ने उनके प्राण ले लिए। घर की हालत ऐसी थी जैसे एकाएक भूडोल आ गया हो और उसमें सारी चीज़ें थर-थर काँपने लगी हों।
दुखी सब थे, पर श्याम भाईसाहब पर सबसे ज़्यादा असर पड़ा। इस शोक की घड़ी में भी वे रोए नहीं।
माँ चीखती रहीं, “मेरा श्याम नईं रो रेया, कोई उन्नूँ रुआओ।” पर श्याम भैया के मुँह से रुदन नहीं फूटा। थोड़े समय बाद उनके अंदर का दुख बीमारी में बदला। वे एक तरह के डिप्रेशन की लपेट में आ गए। नतीजा यह हुआ कि श्याम भाईसाहब बेहद अस्थिरचित्त हो गए। सारे घर के लिए यह बड़ी समस्या बन गई। उन्हें कौन सँभाले? किसका कहना वे मान लेंगे? उस समय कृष्ण भाईसाहब ने जिस मृदुता, समझदारी और बड़प्पन के साथ श्याम भाईसाहब को सँभाला, यह वही कर सकते थे। आश्चर्य, उनके सामने श्याम भैया एकदम शांत रहते थे और उनकी सारी बात मान लेते थे।
कृष्ण भाईसाहब ही उनकी दवाओं और पथ्य-परहेज की पूरी चिंता करते थे। उन्हें डॉक्टर के पास ले जाने और चिकित्सा का पूरा ज़िम्मा उन्होंने सँभाल लिया। उसी का नतीजा था कि श्याम भैया थोड़े समय बाद बीमारी से उबर गए।
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मुझे कृष्ण भाईसाहब के विवाह की भी अच्छी तरह याद है। हालाँकि तब मैं छोटा ही था। कक्षा तीन या चार में पढ़ता था।
भाईसाहब का सेहरा बड़ा सुंदर बनवाया गया था। सिर पर सेहरा और हाथ में करद (एक तरह का बड़ा चाकू), जिस पर रेशमी कपड़ा लिपटा हुआ था। भाईसाहब की बारात एक बस में दिल्ली गई थी, इसकी मुझे अच्छी तरह याद है। रास्ते में कहीं रुककर भोजन भी हुआ था। परिवार की पुरानी प्रथा के मुताबिक़ उन्हें सेहरा हर वक़्त सिर पर पहने रहना था और हाथ से ‘करद’ (कटार) छूटनी नहीं चाहिए थी। यहाँ तक कि भोजन के समय भी वे उसे बिल्कुल अपने पास रखते थे।
विवाह के समय दूल्हे के सिर पर सेहरा तो समझ में आता है पर करद यानी कटार किसलिए? तब तो समझ में नहीं आया था, पर आज लगता है, यह कहीं न कहीं तलवार का प्रतीक है। इसके पीछे प्रतीकात्मक अर्थ यह रहा होगा कि कोई राजकुमार अपने लिए दुलहन विजित करने जा रहा है। यों भी हमारा परिवार खत्री परिवार है, और खत्री शब्द क्षत्रिय का ही बिगड़ा हुआ रूप है। इस संदर्भ में करद या तलवार की प्रतीकात्मकता की बात समझ में आती है। पुरानी परंपराएँ इसी तरह समय की छाती पर अपने निशान छोड़ती हैं।
और हाँ, इस विवाह की एक और बात मुझे याद है। माँ ने मुझे दूल्हे यानी कृष्ण भाईसाहब का सहबाला बना दिया था। और भाईसाहब के पीछे घोड़ी पर मुझे बैठाया गया था। मुझे बताया गया था कि सहबाला का मतलब है, तुम्हें हर वक़्त उनके साथ रहना है। पल भर के लिए भी उनका साथ नहीं छोड़ना। यहाँ तक कि भोजन करते समय भी मुझे उनके ठीक बग़ल में बैठाया गया था।
शादी के समय दूल्हे का सहबाला उसके किसी निकट मित्र को बनाया जाता है। पर मुझ आठ-नौ बरस के छोटे भाई को यह सौभाग्य क्यों और कैसे बख़्शा गया, मेरे लिए यह एक पहेली ही है। हो सकता है कि भाईसाहब के विवाह पर मैं बहुत उत्साहित होऊँ और अपने लड़कपन में घोड़ी पर बैठने की ज़िद कर रहा होऊँ, तो आख़िर मुझे सहबाला बना दिया गया हो। पर निस्संदेह यह एक आनंदपूर्ण अनुभव था, जो मुझे अब भी याद है। मैं छोटा सा बालक भाईसाहब का सहबाला होने के नाते कुछ ख़ास, बल्कि वी.आई.पी. हो गया था। क्या मज़े की बात है!
[6]
पिता जी के व्यापार की स्थितियाँ जब थोड़ी सँभलीं तो भाईसाहब ने रेलवे में नौकरी के लिए आवेदन भेज दिया। अंततः ए.एस.एम. यानी सहायक स्टेशन मास्टर के पद के लिए उनका चयन हुआ। पहले इटावा लाइन पर एक छोटे से स्टेशन बलरई पर उनकी नियुक्ति हुई। फिर वे कोसमा स्टेशन पर रहे। बाद में भोगाँव, शिकोहाबाद, फिरोजाबाद जैसे अपेक्षाकृत बड़े स्टेशनों पर रहे, जहाँ उनका ज़िम्मा और काम दोनों ही कहीं अधिक थे। और फिर फिरोजाबाद स्टेशन पर ही अपनी आख़िरी ड्यूटी देकर वे सेवामुक्त हुए।
इस समय तक तनखाएँ अच्छी हो गई थीं और सहायक स्टेशन मास्टर का पद ख़ासा प्रतिष्ठापूर्ण पद था। पर मुझे याद है, भाईसाहब पर उसका वैसा कोई असर नहीं पड़ा। न उनमें किसी तरह का दिखावा आया और न अभिमान। और उस समय भी उनका जीवन एकदम सादा था। मुझे याद है, वे अक्सर शाम के समय अपनी साइकिल पर ही स्टेशन जाते थे, और अक्सर सुबह घर लौटते थे। कभी-कभी वे सुबह जाते और देर रात लौटते थे। ख़ासकर रात की ड्यूटी बड़ी कठिन थी। इसलिए कि स्टेशन रोड वाला रास्ता बीच-बीच में काफ़ी सुनसान सा था। सर्दियों में और भी सुनसान हो जाता था। ऊपर से घोर अँधेरा। पर भाईसाहब उसी रास्ते से कई बार देर रात को भी लौटते तो साइकिल से ही।
कृष्ण भाईसाहब का एक बड़ा मनोरंजक नाम भी था, टाटा बाबू। स्टेशन पर सब लोग उन्हें बड़े प्यार से ‘टाटा बाबू’ कहकर ही बुलाते थे। और दूर-दूर के स्टेशनों पर भी उनकी इसी नाम से ख्याति थी। मेरे बड़े भाई जगन भाईसाहब के श्वसुर विलायतीराम दुग्गल शुरू में टिकट कलेक्टर थे और बाद में रेलवे में किसी बड़े पद से उन्होंने अवकाश लिया। कृष्ण भाईसाहब से उनकी ख़ूब पटती थी और दोनों जब रेलवे की बातों में लग जाते, तो उन्हें सुनना बड़ा आनंददायक लगता था। दुग्गल साहब को लोग टीटी बाबू कहते थे तो उन्होंने ही शायद उसी वज़न का ‘टाटा बाबू’ नाम कृष्ण भाईसाहब का रखा। और फिर तो यह इतना लोकप्रिय हुआ कि स्टेशन पर हर कोई उन्हें टाटा बाबू नाम से ही पुकारता था। बल्कि भाईसाहब की सेवानिवृत्ति के कई साल बाद तक भी अगर रेल में हम किसी परेशानी में पड़ जाते थे, तो यह कहने पर कि मैं टाटा बाबू का भाई हूँ, हर मुश्किल आसान हो जाती थी।
यह भी कृष्ण भाईसाहब की लोकप्रियता का एक सबूत ही है। उनका व्यक्तित्व सदाबहार व्यक्तित्व था, इसलिए हर कोई उन्हें पसंद करता था। इस अर्थ में वे सचमुच अजातशत्रु ही थे। कोई उनके बारे में बुरा सोच सकता है या बुरा कह सकता है, इसकी कल्पना करना ही मुश्किल है। बल्कि कोई ख़राब व्यक्ति उनकी सोहबत में आए, तो वह भी उनके प्रभामंडल के असर से नेक और भला बन जाए, इसकी सम्भावना कहीं ज़्यादा थी।
कृष्ण भाईसाहब बड़े भाई थे। पर साथ ही पिता सरीखे थे, अभिभावक थे। पिता तो पढ़े-लिखे नहीं थे और शिक्षा से संबंधित चीज़ों में कोई मदद नहीं कर सकते थे, इसलिए कृष्ण भाईसाहब हरदम हमारी मदद के लिए तैयार रहते। हम उन्हें हर मुश्किल में अपने साथ खड़ा पाते थे।
आगरा कॉलेज से भौतिक विज्ञान में एम.एस-सी. करने के बाद मैंने हिंदी से एम.ए. किया। शायद पाँच-छह नंबरों से मेरी फ़र्स्ट डिवीज़न रह गई। पर अब आगे क्या किया जाए? कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मेरे जीवन में यह घोर निराशा का समय था। उस समय मुझे कृष्ण भाईसाहब का बड़ा साथ मिला।
जिस तरह की मानसिक हताशा में मैं घिरा हुआ था, उसमें कहीं आवेदन करने का मन ही न होता। भाईसाहब के कहने पर ही लेक्चरर के पद के लिए कुछ जगहों पर मैंने अप्लाई किया। पर था तो घरघुसरा ही। दिन भर किताबें पढ़ने में लीन रहता। कहीं अकेले आने-जाने की आदत नहीं थी। इसलिए इंटरव्यू के लिए जहाँ भी जाना होता था, कृष्ण भाईसाहब हमेशा मेरे साथ होते थे।
अक्सर इंटरव्यू तो अच्छे होते, पर मेरा चयन नहीं हो पाता था। चयन किसी और का होता। कई जगह तो यह सुनने में भी आता था कि “यहाँ तो तय है कि फ़लाँ शख़्स की ही नियुक्ति होनी है। उनकी बड़ी पहुँच है। आप तो बेकार ही आए।” इससे मन में बड़ी निराशा पैदा होती। चेतना में एक कुहरा, एक धुँधलका सा छा जाता।
मेरे जीवन के ये बहुत बुरे दिन थे। कोई ज़रा भी कुछ कहता, तो मैं शायद हिल जाता। पर मुझे याद है, भाईसाहब ने कभी निराशा का एक शब्द भी नहीं कहा। हमेशा हिम्मत ही बँधाते रहे। यह वह समय था, जब साहित्य के लिए अपने पागलपन पर मेरा मन अंदर ही अंदर मुझे धिक्कार रहा था। एक बनी-बनाई अच्छी-सी डगर छोड़कर मैंने यह क्या किया? पर भाईसाहब ने कभी याद दिलाया हो कि भौतिक विज्ञान में एम.एस-सी. के बाद हिंदी में एम.ए. करके मैंने कोई ग़लती की है, याद नहीं आता।
उनका साथ एक उम्मीद और विश्वास भरा, प्रसन्न साथ था। वे कहा करते, “देखो चंदर, तुम दस जगह इंटरव्यू होगे तो हो सकता है, किसी एक जगह तुम्हारी नियुक्ति हो जाए। कम से कम यह सम्भावना तो है। हर जगह कोई न कोई अड़चन आएगी। किसी एकाध जगह तुम्हारी योग्यता का लोग सम्मान करेंगे। अगर इंटरव्यू दोगे ही नहीं तो कौन करेगा तुम्हारी नियुक्ति? . . . फिर जो जगह तुम्हें मिलनी चाहिए, वह कैसे मिलेगी?”
उनकी बात मुझे सही लगी। तो जहाँ कहीं बुलाया जाता, मैं कोशिश करता कि इंटरव्यू में ज़रूर हो आऊँ। भले ही वह निष्फल हो।
यह कृष्ण भाईसाहब की बात का ही असर था। यों भी अक्सर उनकी बातें ऐसी होती थीं कि मन पर उनका सीधा असर पड़ता था।
मुझे याद है, किशोरावस्था में मैं ख़ूब साइकिल चलाया करता था। ख़ूब जोश में चलाता था तो साइकिल यहाँ गिरी या वहाँ गिरी, इसकी कोई फ़िक्र न थी। पर इसी कारण साइकिल में ख़ासी टूट-फूट होती रहती थी। उसका कोई न कोई अंग या फिर पूरा अंजर-पंजर ढीला रहता। कभी चेनकवर नीचे लटक रहा है तो कभी पहिए की तीली टूटी है . . . कभी तेल के बग़ैर साइकिल किर्र-किर्र कर रही है। भाईसाहब की नज़र पड़ती तो कहते, “चंदर, तू इसे ठीक कराता क्यों नहीं है? जा, अभी ठीक कराके ला।”
और मैं अपनी आदत के मुताबिक़ टालता। कहता, “करा लूँगा भाईसाहब। जल्दी क्या है?”
भाईसाहब सुनते तो ग़ुस्सा नहीं करते थे, धीरे से समझाते थे। कहते थे, “देख चंदर, आज इस साइकिल में एक परेशानी है। उसे ठीक करा लो तो साइकिल अच्छी हो जाएगी। नहीं कराओगे, तो कल इसके साथ का दूसरा पुरजा ख़राब हो जाएगा, परसों तीसरा। फिर चौथा। तो तुझे एक नहीं, चार चीज़ें ठीक करानी पड़ेंगी। पैसे भी ज़्यादा लगेंगे। तो फिर जो एक छोटी सी ख़राबी है, उसे आज ही ठीक क्यों न करा लिया जाए!”
सचमुच उनकी बात का मुझ पर गहरा असर हुआ। और चीज़ों को टालने वाली आदत थोड़ी बदली।
[7]
कृष्ण भाईसाहब माता-पिता के श्रवणकुमार बेटे थे। उनके लिए माता-पिता की आज्ञा मानो ईश्वर की आज्ञा थी। कुछ भी हो जाए, वे माँ या पिता का कहना नहीं टालते थे। इसी चक्कर में वे एक बार अचानक ही कुरुक्षेत्र भी आए, जहाँ मैं शोध कर रहा था।
हुआ यह कि एक बार माँ को मेरे बारे में कोई ख़राब-सा सपना आ गया। उन दिनों मोबाइल तो क्या, टेलीफोन भी अधिक नहीं होते थे। चिट्ठी ही समाचार जानने का एकमात्र तरीक़ा था। पर मेरा विचित्र तरीक़ा था, जिस पर आज मुझे बेहद शर्म आती है।
मैं घर पर चिट्ठी नहीं डालता था। सच कहूँ तो चिट्ठी डालने का स्वभाव ही न था। मैं जिस दुनिया में रहता था, उसमें अपने शरीर का भी कुछ होश न था। मैं जैसे सब दिन हवा में उड़ा करता था। रात-दिन शब्दों की दुनिया में लीन। बस, पढ़ना-लिखना, लिखना और पढ़ना। उधर माँ मेरी चिट्ठी का इंतज़ार करते-करते हलकान हो जाती थीं। डाकिए से लड़ती थीं, “ज़रूर मेरे पुत्तर की चिट्ठी आई होगी। ध्यान से देख, तेरे से इधर-उधर हो गई होगी।”
अब डाकिया बेचारा क्या कहे? वह तो बस मेरी ममतामयी माँ की शक्ल ही देखता रह जाता था।
कृष्ण भाईसाहब को माँ की यह बेकली पता था। इसलिए जब भी मैं छुट्टियों में घर जाता, कृष्ण भाईसाहब समझाते, “चंदर, मैं घर का पता लिखकर तुझे जवाबी पोस्टकार्ड दे देता हूँ। तू हर हफ़्ते बस एक लाइन लिखकर डाल दिया कर कि मैं ठीक-ठाक हूँ। कम से कम इससे माँ को तो चैन पड़ेगा।”
पर मैं नालायक़ था। इतना भी न कर सका।
हाँ, पर बात तो माँ के सपने की हो रही है। माँ को मेरे बारे में कोई ख़राब सा सपना आया और उन्हें लगा, मैं ज़रूर किसी संकट में फँस गया हूँ और बहुत ज़्यादा परेशान हूँ।
बस, उनका तो मन का चैन ख़त्म हो गया। उन्होंने कृष्ण भाईसाहब से कहा, “मुझे बड़ा ख़राब सपना आया है। चंदर ठीक नहीं है। तुम कुरुक्षेत्र जाकर उसका हलचाल पता करके आओ।”
कुरुक्षेत्र शिकोहाबाद से ख़ासा दूर है। पर कृष्ण भाईसाहब माँ की आज्ञा कैसे टालें? तो एक दिन कृष्ण भाईसाहब और कृष्णा भाभी आकस्मिक रूप से कुरुक्षेत्र आ पहुँचे।
मैं सुबह उठकर, नहा-धोकर विभाग में जाने की तैयारी कर रहा था कि देखा, कृष्ण भाईसाहब और भाभी जी सामने मौजूद हैं। मेरे विस्मय और आनंद की कोई सीमा न थी। यह क्या?
पूरी बात पता चलने पर अपने ऊपर बड़ी शर्म आई। अगर मैं समय पर चिट्ठी डाल देता तो यह हालत क्यों आती? पर कहीं अच्छा भी लगा कि मेरे माँ-पिता जी और भैया-भाभी मुझे इतना चाहते हैं।
हॉस्टल में नाश्ता कराने के बाद मैं उन्हें हिंदी विभाग ले गया। फिर सोचा, भाईसाहब और भाभी को थोड़ा कुरुक्षेत्र घुमा दूँ। याद पड़ता है, मैं उन्हें सन्निहित सरोवर, ब्रह्मसरोवर और फिर ज्योतिसर दिखाने भी ले गया था। इसमें शाम हो गई। रात की गाड़ी से उन्हें वापस जाना था।
मैंने अपने मित्रों से उन्हें मिलवाया तो किस सहजता से उन्होंने सबके दिलों में स्थान बना लिया, यह मुझे याद है। हॉस्टल में सब लोग बाद में भी बार-बार याद करते थे कि चंदर के भाई-भाभी बहुत अच्छे स्वभाव के हैं।
हॉस्टल के छात्र कुछ-कुछ स्वच्छंद प्रकृति के होते हैं। थोड़े से बोहेमियन। पर कृष्ण भाईसाहब और भाभी ने वहाँ जाकर सारी औपचारिकताओं के परे जाकर जैसा घरेलू अपनापन निर्मित कर लिए, वह उनके सरल प्रेममय व्यक्तित्व के कारण ही सम्भव हुआ।
ऐसी विशेषता उनमें विरल थी और कोई दूसरा यहाँ उनका मुक़ाबला नहीं कर सकता था।
[8]
विवाह के बाद इधर-उधर के भटकावों के बाद आख़िर फरीदाबाद में हमारा घर बना और हम लोग यहाँ रहने लगे। तब का एक बड़ा विचित्र प्रसंग है। मैं समझता हूँ, नब्बे के दशक की यह घटना होगी।
उन दिनों साल में एक-दो बार शिकोहाबाद जाना होता था, जो हमारा ‘बड़ा घर’ था। माँ तो नहीं रही थीं, पर पिता वहाँ थे, सारा परिवार वहाँ था। इसलिए वह बड़ा घर दोनों हाथ हिलाकर हमें बुलाता था। हम लोग फरीदाबाद से शिकोहाबाद अक्सर तूफ़ान मेल से आया करते थे। वही ऐसी गाड़ी थी जो फरीदाबाद को शिकोहाबाद से जोड़ती थी। यानी हमें गाड़ी बदलनी नहीं पड़ती थी। यहाँ फरीदाबाद में गाड़ी में बैठो और वहाँ जाकर उतर जाओ। पर तूफ़ान मेल से जिन्होंने यात्रा की है, वे जानते हैं कि यह केवल नाम की तूफ़ान है। जगह-जगह रुककर चलने वाली यह अभागी गाड़ी कई बार तो पेसेंजर ट्रेनों से भी सुस्त लगती है।
तो एक बार हम लोग तूफ़ान मेल से यात्रा कर रहे थे। घोर गरमियों का समय। दोनों बेटियाँ ऋचा और अपर्णा भी साथ थीं। घर से हम लोग पानी लेकर चले थे। पर गाड़ी जगह-जगह रुकती हुई इतनी देर लगा रही थी कि वह सारा पानी ख़त्म। अब गरमी और प्यास के मारे बुरा हाल था। और यह हमारी ही नहीं, डब्बे में हर किसी की हालत थी, पानी मिले तो प्राण बचें! गाड़ी किसी स्टेशन पर रुकी होती तो कुछ इंतज़ाम हो जाता। पर वह तो कहीं खेतों के बीच रुकी थी। वहाँ पानी कैसे मिलता?
हमारे डब्बे में एक मौनी बाबा थे। उन्होंने हमारी बेटी को विकल देखा तो उनसे रहा नहीं गया। उन्होंने हमसे बरतन लिया और दौड़कर गए। सामने खेत में एक कुआँ था, जहाँ रस्सी और बालटी भी रखी थी। कोई इक्का-दुक्का आदमी भी नज़र आ रहा था। वे वहाँ से पानी लेकर आ गए।
बच्चों के साथ-साथ सुनीता और मैंने थोड़ा-थोड़ा पानी पिया तो जान में जान आई।
तब कुछ और स्त्री-बच्चों ने गुहार लगाई। साधु बाबा फिर दौड़कर गए और पानी लेकर आए।
गाड़ी स्टेशन पर नहीं, कहीं बीच में रुकी थी। तो कोई और साधन ही न था। पूरे डब्बे में त्राहि-त्राहि मची थी। और वे मौनी साधु बाबा किसी फ़रिश्ते की तरह सबकी सेवा कर रहे थे। उनके कई चक्कर लग गए थे, पर पानी की माँग कम न होती थी। साधु बाबा को मानव सेवा का यह मार्ग भा गया था। वे और भी ज़्यादा उत्साहित होकर दौड़-दौड़कर पानी लाने लगे।
पर फिर एक मुश्किल आ गई। साधु बाबा पानी लेने गए थे और कुएँ के पास पहुँचने वाले ही थे कि एकाएक गाड़ी चल दी। वे तभी वापस चल देते तो शायद इतनी मुश्किल न होती। वे भागकर गाड़ी पकड़ लेते। पर सेवा भावना के उत्साह में उन्होंने सोचा, “यहाँ तक आया हूँ तो पानी लेता ही चलूँ। अभी तो गाड़ी बहुत धीरे चल रही है, दौड़कर पकड़ लूँगा।”
पर वे पानी भरकर लौट रहे थे, तब तक गाड़ी ने तेज़ रफ़्तार पकड़ ली। मौनी बाबा अधेड़ वय के थे। अभी जिस्म में जोश था। वे तेज़ दौड़े, और तेज़ . . . और तेज़! जितनी तेज़ी से वे दौड़ सकते थे, दौड़ रहे थे। पूरी ताक़त लगाकर। पर भला ट्रेन का मुक़ाबला कैसे करते, जो इस समय सचमुच तूफ़ान बन गई थी। हम सब लोग चिल्लाकर और हाथ हिला-हिलाकर उनका जोश बढ़ा रहे थे। पर अफ़सोस, उनके पाँव थकने लगे थे। और फिर वह हुआ, जो नहीं होना चाहिए था। साधु बाबा पीछे छूट गए, गाड़ी आगे चल दी। हम सबकी सेवा करने वाला वह फ़रिश्ता गाड़ी पर चढ़ने से रह गया।
उस डिब्बे में जितने लोग बैठे थे, सबके चेहरे म्लान हो गए। उन मौनी साधु बाबा के लिए सबके मन में गहरा आदर भाव पैदा हो गया था। वे एक शब्द भी नहीं बोले थे, पर लगता था, बिन कहे उनसे हमारा सारा संवाद हो रहा है। दिल से दिल का संवाद। उनका लाया पानी पीकर हम सबके चेहरे पर ताज़गी आ गई थी। पर इस समय तो हालत ऐसी थी, जैसे हम सबके प्राण निचुड़ गए हों। मन में गहरा अपराध-बोध सा पैदा हो गया। आख़िर हमारे कारण ही तो साधु बाबा को इस मुसीबत में फँसना पड़ा था।
पानी पीकर हम सबके चेहरों पर जो तसल्ली आई थी, वह देखते ही देखते ग़ायब हो गई। यह एक तरह से हम सबके हक्के-बक्के होने की स्थिति थी।
कुछ समय बाद थोड़ा मन सँभला तो ध्यान आया कि अरे, साधु बाबा के पास एक झोला था। अब उसका क्या होगा? कहीं इसमें कोई ज़रूरी चीज़ न हो, जो साधु बाबा के बहुत काम की हो।
उस झोले को उठाकर देखा तो वह बहुत भारी लगा। और फिर जल्दी ही पता चल गया कि उसमें भगवान कृष्ण जी की एक सुंदर मूर्ति है।
अब कहानी साफ़ हो गई। यानी वे साधु बाबा कृष्ण भगवान की मूर्ति लेकर कहीं से आ रहे थे और अपने निर्दिष्ट की ओर जा रहे थे। इस बीच यह मुसीबत आ गई। लोकसेवा करते-करते गले में ऐसी मुसीबत का फँदा फँसा कि कहाँ यह मूरत और कहाँ ख़ुद बाबा जी . . .! बाबा अपने झोले से मीलों दूर छूट गए थे। हाय, अब क्या किया जाए?
तभी मन में विचार आया, शिकोहाबाद में कृष्ण भाईसाहब सहायक स्टेशन मास्टर हैं। तो यह थैला ले जाकर उनको दे दिया जाए और सारी बात बताई जाए। वे थैले को खोया-पाया वाली मद में जमा कर लें। फिर कभी साधु बाबा या उनका कोई आदमी आया तो उसे दे दिया जाए।
हालाँकि मन में तरह-तरह के संशय उठ रहे थे। क्या साधु बाबा को उनकी यह मूर्ति मिल पाएगी या फिर अनंत काल तक स्टेशन के खोया-पाया विभाग में ही पड़ी रहेगी? उन मौनी साधु बाबा को पता कैसे चलेगा कि यह मूर्ति शिकोहाबाद के रेलवे स्टेशन पर रखी हुई है?
सब यात्री अपना-अपना सुझाव दे रहे थे और उम्मीद बँधा रहे थे कि जब साधु बाबा जैसे भले आदमी की बात है, तो ईश्वर भी तो कोई ज़रूर रास्ता निकालेगा। हमें उस पर यक़ीन करना चाहिए।
इसी तरह के विचार-विमर्श और बातों के बीच शिकोहाबाद स्टेशन आ गया। हम लोग गाड़ी से उतरे, साथ ही उस भारी थैले को भी उतारा। उसे उठाकर स्टेशन पर बने भाईसाहब के कार्यालय पर पहुँचे। उन्हें सारी बात बताई।
भाईसाहब ने थैले में से मूर्ति निकालकर देखी, भगवान कृष्ण की बड़ी ही सुंदर मूर्ति थी। उन्होंने ध्यान से देखा तो थैले में ही किसी कपड़े से लिपटी हुई रसीद भी नज़र आ गई। वह राजस्थान के किसी शहर की थी, शायद जयपुर की। और यह रसीद मथुरा के किसी मंदिर के साधु बाबा के नाम नाम काटी गई थी। यानी वे साधु बाबा जयपुर से यह मूर्ति ला रहे थे, मथुरा के किसी मंदिर में प्रतिष्ठा के लिए। पर इस बीच यह क़िस्सा हो गया, जिसकी उन्होंने सपने में भी कल्पना न की होगी।
भाईसाहब ने सामान स्टेशन पर जमा करवाया और मंदिर का पता एक काग़ज़ पर नोट करवाकर हमें दे दिया। बाद में हमने उस मंदिर के पते पर चिट्ठी लिखी। उस दिन की घटना का भी वर्णन कर दिया। साधु बाबा को उनके अनोखे सेवा भाव के लिए धन्यवाद दिया और बताया कि वह मूर्ति शिकोहाबाद रेलवे स्टेशन पर सुरक्षित रखी हुई है। वे उसे वहाँ से ले सकते हैं। साथ ही शिकोहाबाद का अपने घर का पता भी लिख दिया। भाईसाहब ने रेलवे स्टेशन की डाक से तुरंत चिट्ठी के भेजे जाने की व्यवस्था कर दी।
चिट्ठी डालने के चौथे दिन साधु बाबा हमारे घर आ गए। घर में सभी ने बड़े आदर से उन्हें रखा, भोजन आदि की व्यवस्था की। उनसे बात करना सम्भव न था, इसलिए कि वे मौन व्रत पर थे। हमने उन्हें एक स्लेट और बत्ती दी। हमारे कुछ भी पूछने पर वे उस स्लेट पर लिख-लिखकर जवाब देते और यह अनोखा वार्तालाप देर तक चला।
हम जानना चाहते थे कि उस दिन उन पर क्या बीती? उन्होंने बताया कि बड़ी मुसीबत से वे मथुरा पहुँचे। पर उन्हें पक्का यक़ीन था कि उनके पास हमारा पत्र ज़रूर पहुँचेगा। आख़िर ईश्वर के कार्य में बाधा कैसे आ सकती है? फिर हम लोगों पर भी उनका पक्का यक़ीन था। और जैसे ही पत्र पहुँचा, वे अगली गाड़ी से यहाँ आ गए।
साधु बाबा को लेकर हम स्टेशन पर गए। वहाँ कृष्ण भाईसाहब ने बड़े आदर के साथ बाबा को उनका झोला सौंपा, जिसमें जयपुर से लाई गई बाँसुरी बजाते कृष्ण कन्हैया की मूर्ति सुरक्षित थी।
यों कृष्ण भाईसाहब की समझदारी से एक बिगड़ी हुई कहानी सही अंत की ओर पहुँच गई। बस, यही उनका तरीक़ा था। यही जीवन जीने का ढंग था। इस कारण दुनिया में कोई उनका शत्रु न था। हो ही नहीं सकता था। सब मित्र थे, शुभचिंतक थे, अपने थे। और अगर कोई नहीं था तो वह बहुत जल्दी उनका अपना हो जाता था।
उनके स्वभाव में कोई दुराव नहीं था। प्रीति थी। इसलिए कोई उनसे दूर रह ही नहीं सकता था।
[9]
कृष्ण भाईसाहब बहुत लंबे समय तक भोगाँव स्टेशन पर सहायक स्टेशन मास्टर रहे। इस बीच दो बार वे मेरे संकटमोचक बने। वरना मेरे लिए मुसीबत हो जाती।
पहली बार तब मैंने भोगाँव जाकर शरण ली, जब देश में इमरजेंसी लगी थी। यह जून 1975 की बात है, जब देश के लोकतंत्र पर एकाएक आपातकाल का काला साया पसर गया। देखते ही देखते हज़ारों लेखक, चिंतक, विचारक, सामाजिक कार्यकर्ता और राजनेता जेल के अंदर ठूँस दिए गए।
मैं चूँकि साहित्यकार था और तेज़ विद्रोह की कविताएँ लिखता था तो किसी ने मेरा नाम भी दे दिया कि यह लड़का विद्रोही है, और कुछ गड़बड़ कर सकता है। पर परिवार को सब लोग जानते थे। उसकी प्रतिष्ठा थी और सब जानते थे कि इमरजेंसी में अनुशासन के नाम पर बदला लेने के लिए क्या-क्या काम किए जा रहे हैं। तो एक पुलिस वाला हमारे घर आया। उसने पिता जी से कहा, “आपके बेटे की गिरफ़्तारी का हुक्म है। रात भर में इसे घर से ग़ायब कर दीजिए, नहीं तो कल तो हम भी कुछ नहीं कर पाएँगे। हमें इसे गिरफ़्तार करना पड़ेगा।”
अब तो मेरा शिकोहाबाद से कहीं बाहर जाना ज़रूरी था। लिहाज़ा पहले कुछ समय मैं कमलेश दीदी और जीजा जी के साथ गाजियाबाद में रहा, जहाँ उनका किराए का घर था। फिर वहाँ से भोगाँव आ गया, और कृष्ण भाईसाहब के रेलवे क्वार्टर पर ही काफ़ी लंबे समय तक रहा। कोई महीना भर। उस समय भाभी वहाँ न थीं। स्टेशन पर ख़लासी का काम करने वाला एक प्यारा-सा लड़का हम सबके लिए भोजन बना दिया करता था।
शाम को भाईसाहब, मैं और भोगाँव के सरलहृदय स्टेशन मास्टर तीनों एक साथ ही भोजन करते थे। वहाँ उस खुशदिल ख़लासी का बनाया स्वादिष्ट खाना नहीं भूलता और भाईसाहब का धीरज भरा व्यवहार भी।
इमरजेंसी का काफ़ी ऊँच-नीच वाला समय था। भय और आतंक से भरा हुआ। उस समय हर तरह की अप्रत्याशित और चौंकाने वाली घटनाएँ देखने-सुनने में आती थीं। पर भाईसाहब निश्चिंत थे। न उन्होंने स्वयं कोई चिंता-फिक्र की और न मुझ पर किसी चिंता का भार डाला। बस, एक ही बात कहते थे, “चंदर, यहाँ हर किसी से मिलना-जुलना मत। और लोगों से बात करते समय जो कुछ भी कहो, सोच-समझकर कहो। किसी से ज़्यादा राजनीतिक चर्चा न करना।”
उन दिनों मैं सारा दिन या तो अख़बार पढ़ता था या फिर यों ही कहीं घूमने निकल जाता था। कभी-कभी स्टेशन पर जाकर भाईसाहब को काम करते देखता था। यही मेरा मनोरंजन था। इसी में दिन कट जाता था। फिर कुछ समय बाद आगरा के बलवंत राजपूत कॉलेज में बी.एड. में मेरा एडमिशन हुआ तो मैं आगरा जाकर रहने लगा। कुछ समय बाद यूजीसी की फ़ेलोशिप के तहत कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में शोधवृत्ति मिलने लगी तो वहाँ चला गया।
यों भाईसाहब के कारण मेरे वे दुख-संकट के दिन कैसे कट गए, पता ही नहीं चला। उनकी छाया घने बरगद की छाया थी, जिसमें कोई दुख-दाह पता ही न चलता था।
इसी तरह की एक मुश्किल मेरे विवाह के समय आई थी। और नतीजा यह हुआ कि मेरा और सुनीता का विवाह भोगाँव में ही हुआ।
उस समय सबसे बड़ी मुश्किल यह थी हमारा विवाह अंतर्जातीय विवाह था, और उस समय लोग इसे आसानी से स्वीकार नहीं कर पाते थे। तब माँ और पिता जी ने सोचा कि विवाह भोगाँव में हो, और फिर शिकोहाबाद में मित्र-संबंधियों को एक छोटी सी दावत दे दी जाए।
इस कारण विवाह का छोटा-सा समारोह कृष्ण भाईसाहब के भोगाँव वाले रेलवे क्वार्टर में ही हुआ। उसमें हमारे घरों के लोग अधिक न थे। यहाँ तक कि माता-पिता भी उपस्थित नहीं हो पाए थे। तो कृष्ण भाईसाहब और कृष्णा भाभी ही माता-पिता की जगह उपस्थित थे और उन्होंने ही हवन और पूजा से लेकर सारी रस्में पूरी कराई थीं।
आज भी कृष्ण भाईसाहब का वह प्यार और ममत्व से भरा चित्र आँखों के आगे है। वे सचमुच भाई भी थे, पिता भी, और उनमें माँ जैसा दिल भी था . . .
फिर माँ के न रहने का प्रसंग . . .! माँ मुझ पर जान छिड़कती थीं। घर में सबसे ज़्यादा मैं उन्हीं के निकट था और वे मुझे पूरी तरह समझती थीं। लिहाज़ा माँ के जाने पर लगा, जैसे मेरे लिए सारी दुनिया उजाड़ हो गई हो। मैं ख़ासा बड़ा था उस समय, पर अनाथ होना क्या होता है, यह अंदर तक महसूस कर रहा था . . .
तो रोते-रोते बुरा हाल था। ‘माँ-माँ’ कहकर मैं पागलों की तरह रो रहा था और मन को ज़रा भी धीरज नहीं मिल रहा था।
“अब कौन प्यार से ‘मेरा पुत्तर, मेरा पुत्तर’ कहकर बुलाएगा? किसे मैं माँ कहकर पुकारूँगा . . .?” कहकर बार-बार मैं छटपटा सा जाता। आँसू थमते ही न थे।
तब कृष्ण भाईसाहब ही थे, जिन्होंने मुझे सँभाला। बड़े प्यार से कहा, “तुम मुझे माँ कह लिया करो। मैं तुम्हें मेरा पुत्तर, मेरा पुत्तर कहूँगा, माँ की तरह प्यार करूँगा।”
फिर माँ की अस्थियाँ हरिद्वार ले जाई गईं तो कृष्ण भाईसाहब और भाभी जी के साथ मैं भी गया था। भाईसाहब ने वहाँ हर पल मुझे ममता की छाँव में रखा, क्योंकि बात-बात में मेरा रोना छूटता था।
उस समय का उनका स्नेहिल रूप मैं भूल नहीं पाता। सच ही माँ के न रहने पर वे मेरे लिए माँ ही बन गए थे।
[10]
इस दुनिया में—कई बार लगता है—हम सब छोटी-छोटी डोरियों से बँधे हैं। उन्हीं डोरियों के सहारे दिन-रात चक्कर पर चक्कर लगाते हैं। अपनी ही परिक्रमा करते रहते हैं। अपना छोटा-सा घर-परिवार, अपने बच्चे, उनका सुख-दुख। बस, इतना ही सोचते हैं। पर कृष्ण भाईसाहब सबके थे। उनमें बड़प्पन था, आत्मविस्तार था। इसलिए उनकी डोर लंबी बहुत लंबी थी। इसलिए वे सबके बारे में सोचते थे। बिना कहे हम सबका सुख-दुख जान जाते थे और सही राह सुझाते थे।
वे जब बोलते थे तो लगता नहीं था कि हमारे बड़े भाईसाहब बोल रहे हैं। लगता था, उनके अंदर बैठा कोई फ़रिश्ता बोल रहा है, जिसकी बात टाली नहीं जा सकती। बड़ी सादा, लेकिन सच्ची बात वे कहते थे। पर उनकी बातों का बहुत गहरा असर होता था। मुझे क़दम-क़दम पर उनकी बातें याद आती हैं, ऐसा कहा था, ऐसा कहा था, ऐसा कहा था . . .! और ऐसा केवल मुझे नहीं, हमारे पूरे घर वालों को लगता है। उनके आसपास वालों को भी। एक सच्ची आत्मा का प्रकाश यही है।
भाईसाहब के भीतर प्यार बहुत था, जिसे वे खुले हाथों हम सबको बाँटते थे। सब छोटे-बड़ों को बाँटते थे। इतना प्यार कि कभी ख़त्म नहीं होता था। हम छोटे-छोटे थे तो माता-पिता तो काफ़ी बड़े थे, इसलिए कृष्ण भाईसाहब और कृष्णा भाभी ही हमें माता-पिता लगते थे। क़दम-क़दम पर उनकी सीख मिलती थी, प्यार मिलता था। हम बड़े हो गए, माता-पिता गुज़र गए, तब भी लगा, कृष्ण भाईसाहब और कृष्णा भाभी जी ये हमारे माता-पिता हैं। उनके पास आकर बड़ी शान्ति मिलती थी, ठंडक मिलती थी। लगता था, इतना बड़ा दिल है इनका, जिसमें सारी दुनिया समा जाए।
कभी-कभी अचरज होता था, किसी एक आदमी में इतनी सारी अच्छाइयाँ कैसे हो सकती हैं? लगता था, कोई संत या फ़क़ीर भूल से हमारे घर आ गया। हमें यह समझाने के लिए कि कोई आदर्श भाई कैसा हो सकता है? कोई आदर्श पुत्र कैसा हो सकता है, और कोई आदर्श पिता कैसा हो सकता है? उनमें इतनी सकारात्मक ऊर्जा, इतनी पौजिटिव इनर्जी थी, कि उनके आसपास हर वक़्त एक प्रभामंडल एक ‘औरा’ जैसा नज़र आता था। इसलिए छोटे ही नहीं, बड़े भी उनका आदर करते थे। इसीलिए मुझे याद है, घर में कोई निर्णय लेना होता था, तो माता-पिता भी कहते थे, “तुम कृष्ण भाईसाहब से पूछ लो। वे जो कहें, वैसा करना।” सबको यक़ीन था, कृष्ण भाईसाहब कोई ग़लत बात नहीं कह सकते। उनके भीतर विक्रमादित्य का सिंहासन है। न्याय की तुला है। वे जो कहेंगे, सही कहेंगे।
कृष्ण भाईसाहब ने अपने जीवन में किसी को तिनके बराबर भी दुख नहीं दिया। उनकी मृत्यु, उनकी जीवनमुक्ति भी ऐसी हुई कि न उन्होंने किसी को ज़रा कष्ट दिया, न भोगा। एकादशी का शुभ दिन। जैसे आसमान से सुबह-सुबह कोई अदृश्य विमान उतरा। वे उसमें बैठे और देखते ही देखते अंतर्धान हो गए। शायद वहाँ उन्हें माता-पिता से मिलने की जल्दी रही होगी, जो अपने ‘कृष्ण पुत्तर’ को बहुत ज़्यादा चाहते थे। मृत्यु के बाद भी चेहरा वैसा ही खिला-खिला, जैसा हमेशा रहता था। चेहरे पर वही मंद-मंद मुस्कान, जो उनकी पहचान थी। मृत्यु भी उसे लील नहीं सकी।
पर वे गए, उन्हें जाना ही था। पिता के बाद एक बार फिर हम सबके सिर से साया हट गया। एक घने बरगद जैसा साया। एक सदा प्रसन्न और खुशदिल साया। पर वे जा कहाँ सकते हैं? इतना प्रीतिपूर्ण व्यक्तित्व था उनका कि चप्पे-चप्पे पर उनकी यादें हैं। उनकी कही बातें, उनके आदर्श हमें राह दिखाते रहेंगे।
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