मैंने किताबों से एक घर बनाया है
प्रकाश मनु
मैंने एक घर बनाया है
किताबों से,
किताबों से एक घर बनाया है मैंने
जिसके दरवाज़े किताबों के हैं,
खिड़कियाँ किताबों की
किताबें हैं जो एक कमरे से दूसरे
कमरे तक ले जाती हैं
और फिर दरवाज़ों में दरवाज़े
कमरों में से तमाम-तमाम कमरे खुलते हैं
और यह कोई तिलिस्म नहीं, हक़ीक़त की है दुनिया
जिसमें हर कमरे की है अलग रंगत, अलग ऊष्मा
हर कमरे की है एक दुनिया
जिसमें कोई अजब दीवाना सत्यखोजी अपनी खोज में जुटा है।
हवा चलती है,
धूप आती है
किताबों के पन्ने फड़फड़ाते हैं
और चिड़ियाँ उड़ती हैं . . .
उड़ती हैं चिड़ियाँ और आसमान पर-पर हो जाता है
जो घर बनाया है मैंने किताबों से
उसका आसमान ज़रा अलग है
उसके नियम-क़ायदे थोड़े अलग
अगर आप ज़रा घमंडी हैं अफ़लातून
तो दोनों हाथ बढ़ाकर दाख़िल होने से रोक देंगी किताबें
दरवाज़े पर लग जाएगी अर्गला
मगर ग़रीब रफ़ूगर या आत्मा का दरवेश कोई नज़र आए
तो उसे प्यार और आँसुओं से नहलाकर
दिल के आसन पर बैठाती हैं किताबें।
वह घर जो किताबों से बनाया है मैंने
उसका आसमान ज़रा अलग है
उसमें एक नहीं, कई ध्रुव तारे हैं ज्योतित
उसमें एक गोर्की है एक प्रेमचंद एक निराला एक टैगोर
टॉलस्टाय दोस्तोवस्की चेखव पुश्किन सार्त्र और शेक्सपियर
और और भी तमाम ग्रह-उपग्रह सूरज-चाँद नहलाते रोशनियों से
धरती-आकाश . . .!
एक घर बनाया है किताबों से मैंने
उसका ईश्वर कभी उदास तो कभी तन्नाया सा रहता है
उसने जीतीं कई लड़ाइयाँ तो हारे हैं कई दाँव
उसके नियम-क़ायदे हैं ज़रा अलग जीने और मरने
और हार और जीत के
उस घर में जब कोई अलमस्त फ़क़ीर आता है
आत्मा की आँखों से देखता
और दिल के सिंहासन पर बैठकर
कोई अनहद राग गाने लगता है
तो मेरा ख़ुदा हो जाता है
कोई फटा कुरता पहने बाँसुरी वाला
आता है
भीतर आँगन में बैठ दिलकश धुनें निकालता है
और मेरा तानसेन हो जाता है
एक रिक्शे वाला, एक ढोल वाला
एक पुरानी ढपली और खिलौने वाला वहाँ आता है
अपनी छोटी सी अललटप दुनिया का साज़ सजाए
अपनी मस्ती में बतियाता
तो मेरा सिर झुकता है ख़ुद-ब-ख़ुद
चेहरे पर आ जाता कुछ सुकून
मगर किसी राजे के लिए उस घर
की देहरी पार करना मुश्किल, बहुत मुश्किल . . .!
उसकी अगर कोई जगह है तो वहाँ रखे
पाँवपोश के पास ही कहीं
और बहुत बड़ा मुँह खोलने वाला आला अफ़सर
अक़्सर वहाँ बोलना और बात करना भूल जाता है।
अजीब है वह घर
आदमी की सदियों लंबी लड़ाइयाँ, द्वंद्व
और बहसों के अंतहीन सिलसिले
छाए हैं जहाँ आसमान में
हवा में कँपकँपाती लौ मोमबत्ती की
अचानक छेड़ देती है कोई पुरानी कथा . . .!
जो यहाँ एक बार आता है
साथ लेकर जाता है
थोड़ी सी आँच, थोड़ी नमी थोड़ा उजाला और बेचैनियाँ
और . . .
और शायद एक मुट्ठी चकमक चिनगारियाँ भी।
अगर वे फिर कहीं और दहकने और धधकने लगीं तो
फिर एक और घर किताबों का
फिर एक और . . . एक और . . .!
एक घर किताबों से बनाया है मैंने
जिसमें दस-बीस पचास या कि सौ घर
और भी बने हैं और बनेंगे
बनेंगे हज़ारों हज़ार, लाख और करोड़ भी . . .!
बनते रहेंगे तब तलक
जब तक कि दुनिया में नफ़रत और वहशियाना सल्तनतें
ख़त्म नहीं होतीं
धरती का हरापन नहीं लौटता
और फिर से आदमी आदमी
और यह हरा-भरा जंगल नहीं होता
धरती का सबसे ख़ूबसूरत गहना
हाँ, बनते रहेंगे पीढ़ी-दर-पीढ़ी घर किताबों के
और उनमें उगती रहेगी आग . . .
जब तक कि बेशुमार घरों का सुख-चैन चुराकर भागा
दुःशासन
मारा नहीं जाता।
मैंने जो घर बनाया है . . .
अक़्सर उसके अक्षर कबिरा की तान में तान मिलाकर
अजीब उलटबाँसियाँ सुनाने लगते हैं
नज़रुल इस्लाम के विद्रोही गीत वहाँ सुलगते हैं
दिलों में तूफ़ान उठाते
और मैं चौंक पड़ता हूँ . . .
एक साथ कितने युग और इतिहास गले मिलते हैं
मेरे इस छोटे से किताबों के घर में . . .!
रोज़-रोज़ बहुत सारे लोग आते हैं जाते हैं
मेरे इस छोटे से किताबों के घर में
और यह सिलसिला कभी टूटता नहीं
मुझे ख़ुशी है कि वे मिट्टी की आँच से तपे हुए बेटे हैं
और इस दुनिया को सुंदर बनाएँगे।
लगता है, मेरी उम्र साठ नहीं
कोई साठ हज़ार साल है
और इस घर में रहते-रहते सदियाँ बीतीं
मेरे सामने ही सभ्यताएँ जनमीं चमकीं और बुझीं
रची गईं गीताएँ रामायण और बाइबिल
अनगिनत बार
आए बड़े सिद्धांत नारे पंथ भाँति-भाँति के
कुछ उगे थे पूरी आब से, फिर मैले हुए . . .
मगर आदम के बेटे की यात्रा अभी तक थमी नहीं है
आँधियों को चीरकर
बढ़ रहे हैं उसके क़दम
नए वक़्तों की छाती पर आल्हा गाते
बढ़ा जा रहा है आदमी
और उसका क़द और छयाएँ और-और लंबी होती जाती हैं।
एक घर बनाया है किताबों से मैंने
उसी में से निकला है लंगे डग भरता यह आदमी
आदमियों का पूरा एक क़ाफ़िला
अंतहीन
जिसके क़दमों की रफ़्तार कभी थमेगी नहीं।
युग आएँगे, युग जाएँगे
और हर बार फिर नई धज से खड़ा होगा
किताबों का मेरा घर . . .!