गिरधर राठी के लिए एक कविता
प्रकाश मनु
मुझे आज भी याद है राठी जी, आपसे वह पहली मुलाक़ात
जब मैं कुछ उदास सा था
दफ़्तरी उठा-पटक में भीतर कुछ टूटा था इस क़द्र
कि मैं गुमसुम सा खोया था ख़ुद में
साथ थे मेरे दोस्त चित्रकार हरिपाल
उन्होंने ही मिलवाया था आपसे
कि ये प्रकाश मनु हैं, राठी जी, इनसे मिलिए
अभी-अभी आया है इनका उपन्यास कथा सर्कस
जो बड़ी चर्चा में है
ये उत्सुक थे आपसे मिलने को
आपके यहाँ लिखना भी चाहते हैं . . .!
अरे, तो स्वागत है, लिखें, हमें ख़ुशी होगी
एक सहज खुला स्वर मेरे कानों में पड़ा
बड़ी ही आत्मीय मुसकराहट सादा सी लेकिन गरमजोश
किसी स्वजन के भरोसे सरीखी थामती दिल को
हम तो चाहते हैं आएँ कुछ उत्साही लोग जिनमें समझ हो,
गंभीरता भी समझें जो काम की
आप लिखिए प्रकाश मनु जी, हमें अच्छा लगेगा
आपके लेख, समीक्षाएँ तो बहुत पढ़ी हैं
मैं दूँ कुछ पुस्तकें तो क्या आप लिखना चाहेंगे?
कहते-कहते आप उठे थे अनायास और कुछ ही देर में
पाँच-सात चुनिंदा किताबें पकड़ा दी गईं मेरे हाथ में
आप लिखिए इन पर, फिर मैं और भी निकाल रखूँगा
किताबें आपके लिए
आप चाहें तो निरंतर हमारे यहाँ लिख सकते हैं
फिर अगली मुलाक़ात में कुछ और किताबें साथ चली आईं मेरे
किताबें और किताबें
और किताबों के सहारे बनता एक पुल
और फिर लेख, टीपें बहुत सारे दूसरे काम भी
जिनका भरोसा था आपको कि मैं करूँगा पूरे जतन से
याद है बाल कविता पर मेरा एक विस्तृत लेख छापा था आपने
कितने क़रीने से
जिसने लुभाया बहुतों को
चकित सुधीजन बहुत सारे कि अच्छा, बाल कविता में इतना कुछ है
कि देखते ही देखते बारिश चिट्ठियों की
जिसमें श्रीप्रसाद भी थे, माहेश्वरी जी सरीखे दिग्गज भी।
उन दिनों जब-जब हुई मुलाक़ात
हर दफ़ा आपसे ही सुनने को मिला कि मनु जी,
आपके लेख की बहुत हो रही है सराहना
काफ़ी चिट्ठियाँ आ रही हैं इस पर
फिर एक दिन लेखक मित्र देवेंद्र जी के साथ पहुँचा आपके घर
तो मिलना हुआ आपसे, भाभी चंद्रकिरण जी से भी
खुलकर होती रहीं बातें देर तलक
मुझे लगा एक घर जैसा घर है यह जिसे पति-पत्नी दोनों मिलकर बनाते हैं
प्रीति प्यार और दोस्ती के हाथों से
और जिसमें रहता है साहित्य, रहती हैं कलाएँ पूरे अधिकार के साथ
और ज़िन्दगी की हर सुबह होती है वहाँ एक नई सुबह
अब आपसे मिलने में आने लगा था एक अलग रस
कुछ अनकही प्रीति और मैत्री का
कि जब-तब दफ़्तर में आपके फोन . . .
मनु जी, समय हो तो आइए, आपके लिए कुछ और किताबें निकाली हैं मैंने
कि मनु जी, पत्रिका का नया अंक मैंने आपके लिए रख लिया है
आप चाहें तो आकर ले लीजिए . . .
पारिश्रमिक का चेक भी आप चाहें तो यहीं आकर ले लीजिए,
मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ आपकी
आपके स्नेह के नए-नए रूप उभरते रहे
छूते रहे कहीं भीतर से
देते रहे दिलासा कि नहीं, तुम निरर्थक नहीं हो प्रकाश मनु
कहीं तो हैं तुम्हारे होने के मानी
कभी-कभी कृतज्ञ सा कह उठता मैं कि आपने बहुत किया मेरे लिए राठी जी
बहुत हैं आपके अहसान,
तो तत्काल मुझे संकोच मुक्त करता सुनाई देता स्वर आपका बरजता हुआ
कि नहीं-नहीं मनु जी, आपको नहीं, हमें ज़रूरत थी आपकी . . .
यों ही बीतते गए दिन और फिर एक दिन आया वह भी
जिसे मैं आज भी याद करता हूँ लंबी मुलाक़ात वाला दिन कहकर
वह कुछ अलग सा ही एक इंटरव्यू था जो दिन भर चला
और बस चलता ही रहा
घर में न थीं चंद्रकिरण भाभी शायद कहीं गई थीं
पर वे न होकर भी मौजूद थीं हर चीज़ में
जो वहाँ थी घर में घर का अहसास कराती
और पूरे घर को भरती हुई सी बातें वे अंतहीन एक खुली बतकही सी
जो कहीं रुकना ही नहीं चाहती थीं
यहाँ तक कि चाय इंटरव्यू के बीच में ही बनी और पी गई
फ़्रिज में रखा खाना बातों-बातों में ही गरम किया गया
और खाया गया स्वाद से
कि उसमें स्वाद घुल-मिल गया था उस अनौपचारिक बतकही का भी
जो कहीं से भी शुरू होकर कहीं भी जा रही थीं
खुल रहे थे नए-नए झरोखे, द्वार, रहस्य लोक भी अतीत के
खुल रहे थे ज़िन्दगी और ज़िन्दगी की अनवरत लड़ाइयों के मायने
फिर एक साहित्यिक पत्रिका आप निकालेंगे यह संदेश मिला
आपके बुलावे पर एक शाम प्रेस क्लब के कैफ़े में पी गई चाय
और बातें और बातें और बातें
फिर सुना कि आपने इनकार कर दिया
वह पत्रिका निकालेंगे एक और साहित्यिक मित्र आपके ही
मेरी कुछ शर्तें थीं जो उन्हें मंज़ूर नहीं थीं आपने बताया
आवाज़ में वही तटस्थता जो आपको औरों से अलग
गिरधर राठी बनाती है
हालाँकि उस तटस्थता के अंदर कुछ था जो आर्द्र था काफ़ी
जिसकी छुअन मैंने महसूस की
देर तक टोहता रहा मैं उन उलझे से आड़े-तिरछे आखरों को
जो आपने न कहकर भी कहे
फिर याद है बरसों बाद हुई मुलाक़ात एनबीटी में
साथ थीं चंदकिरण भाभी भी उत्साह से भरी
एक अलग सी व्यस्तता वाला दिन कुछ अलग सा
कैफ़े में बहुत सारी किताबें बड़े-बड़े थैलों में लिए आप दोनों
पता चला चंद्रकिरण भाभी की अनोखी मुहिम का
कि किताबें ये घर-घर जाएँगी
हर घर में फैलाएँगी उम्मीद का उजाला . . .
उजाला अक्षरों का
क्या कर रहे हैं आजकल, पढ़ने को नहीं मिल रहीं आपकी कविताएँ?
मैंने पूछा तो जो जवाब सुनने को मिला मुझे सपने में भी नहीं थी
उसकी उम्मीद—
कविताएँ मैंने लिखनी बंद कर दीं प्रकाश जी,
यह आप थे
शब्द आपके ही।
क्यों राठी जी, क्यों? मैं अचकचाया हतप्रभ सा कुछ,
जवाब सीधा, कुछ सपाट सा—
यह तो नहीं बता सकूँगा,
पर बस समझिए कि संकल्प पूर्वक ही बंद कर दीं।
मुझे कुछ धक्का सा लगा
और लगा थोड़ा वक़्त उससे उबरने में
और फिर चल पड़ीं बातें
मुझे याद आए पुराने दिन, जब होती थीं घंटों मुलाक़ातें
अकादमी के उस कक्ष में बड़े अनौपचारिक लहजे में
क्या लिख रहे हैं, कैसे हैं आप?
मेरी निस्तब्धता को तोड़ता एक सवाल
मैं बताता हूँ जो मेरे भीतर और बाहर घुमड़ रहा होता है
ज़ोर-शोर से
याद करता हूँ वह समय जब हम बहुत मुश्किलों में थे
तब आपने दिया सहारा मैं कहता हूँ
बेकार की बात . . .!
आप इसके योग्य थे, बल्कि इससे कहीं ज़्यादा के
एक स्वर जो दोस्ताना कशिश से भरा हुआ था
लौटा मैं पर याद आते रहे आप बार-बार राठी जी
याद आता रहा रह-रहकर मुझे कि वह एक घर जैसा घर है
उम्मीद और सपनों का घर जो मुझे बुलाता है अब भी
जिसे वही बना सकता है जिसके दिल में बहती है कविता
तो कैसे मान लूँ राठी जी कि आप कविता से दूर हो गए
कि लिखनी छोड़ दीं आपने कविताएँ . . .?
समय बीता, बीतता रहा
चली गईं इस बीच चंद्रकिरण भाभी भी कोरोना की आफ़त झेलकर
बस एक सँवलाया चेहरा है कहीं विगत की स्मृतियों से झाँकता
कुछ ऊहापोह में फँसा फिर कुछ निश्चय करता सा
होते-होते मेरे निकट वह उजाले का चेहरा बन जाता है आज भी
और उस पर लिखी कविताओं की इबारत
जिसे जितनी बार भी पढ़ो उसके नए अर्थ निकलते हैं
हर अर्थ के साथ एक और गूढ़ चेहरे में छिप जाते हैं आप राठी जी
स्मृतियों में उसे टोहना मुझे अच्छा लगता है
1 टिप्पणियाँ
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बहुत ही मार्मिक संस्मरण के समकक्ष कविता।
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