क्योंकि तुम थे

15-09-2025

क्योंकि तुम थे

प्रकाश मनु (अंक: 284, सितम्बर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)


(अपने अनन्य मित्र प्रदीप सुड़ेले के लिए एक कविता) 
 
उन दिनों आगरा के सप्रू हॉस्टल में ज़िन्दगी इस क़द्र 
गाती—गुनगुनाती थी 
हर पल लहलहाती सरसों के फूलों की चादर सी
क्योंकि तुम थे प्रदीप
और इतने क़रीब थे मेरे दिल और आत्मा के
कि मेरे दुख से तुम्हारी आँखों में आँसू भर आते थे
तुम्हारे आँसुओं से मैं विकल हो जाता था
 
उन दिनों ज़िन्दगी नदी थी
नदी की उच्छल धारा सी, जो बहती थी सारे कूल-किनारे तोड़ती उन्मत्त
दुख के झाड़-झंखाड़ों को लिए-लिए चलती थी बाँहों में
हर पल रोती गाती सी
 
उन दिनों आँसू बहुत थे आँखों में
भावुक उद्गार से जो हर पल झरते थे भीतर के किसी व्याकुल निर्जन से
मुकेश और किशोर थे रफी, लता और हेमंत
अपने पूरे तरन्नुम में कभी-कभी आशा और गीता दत्त भी
और व्ही. शांताराम थे अपनी दो आँखें बारह हाथ के साथ
राजकपूर थे जिस देश में गंगा बहती है को अपने हिये में सँभाले 
नाचते-गाते राजू बनकर मासूम अदाओं में
और दिल को झकझोरते दिन थे, काश, वे पखेरू होते
तो मोती के दाने देता . . . 
 
एक भावुक संसार था कविता और फ़िल्मों का
और विजयकिशोर मानव था 
और मैं था और तुम थे
और ज़िन्दगी थी और ज़िन्दगी का इस क़द्र पसारा था चौगिर्द
कि वह हमारे आर-पार से गुज़रती
सनसनाती शीत हवाओं की तरह सीटियाँ बजाती
तो कभी हम हँसते कभी रोते कभी क़समें खाते
साथ-साथ इस दुनिया को बदलने की
 
और कभी जान देने को आतुर महा बलिदानियों 
की क़तार में ख़ुद को खड़ा पाते
लहू के क़तरे देने को बेताब
 
हमें मंज़ूर नहीं था कुछ भी कि जो था और जिससे बास आती थी 
पुरानी रूढ़ियों की
हम सब कुछ बदल देना चाहते थे सत्यकाम फ़िल्म के सत्यकाम की तरह
ख़ुद को और इस दुनिया को भी जिसमें किसी के सपने
पूरे नहीं होते
हम जिस दुनिया में थे उसमें कविता थी कहानी फ़िल्में और भावुक आदर्श 
ज़िन्दगी के
और कभी-कभी पढ़ाई भी
मगर कहीं कुछ फ़र्क़ नहीं था चीज़ों और चीज़ों में
 
कि हर चीज़ हमें ज़िन्दगी और ज़िन्दगी के बीच नाचती दिखाई पड़ती
अजब ढंग से ललचाती 
और हम देखते कौतुक और आश्चर्य से भर उठते थे
 
कि एक दिन होगा, होगा एक दिन 
यह सब होगा
वह सब भी हक़ीक़त में उसी तरह
जिस तरह यह मेज़ यह कुर्सी यह किताब और अपना यह प्यारा सप्रू हास्टल
 
उन्हीं दिनों पुरानी फ़िल्मों का जादू चढ़ा सिर पर
राजकपूर की जागते रहो और मेरा नाम जोकर की तरह
दीवानगी हमें भाती
पहली बार जाना कि फ़िल्म यह भी हो सकती है वह भी
जो मैंने कभी सोचा भी नहीं
व्ही. शांताराम से मैं मिला उनकी दो आँखें बारह हाथ से भी
इसी फ़िल्म में आँखें गँवायी उन्होंने तुमने बताया
किसी दृश्य को सचमुच साकार करने के लिए
और मैं हकबकाया हुआ देखता—
ओह, कितना कुछ है हमारे इर्द-गिर्द और हम उसे जानते ही नहीं
 
उन्हीं दिनों तुम्हारे साथ देखी जागृति
और मैं दुनिया बदल देने के लिए बावला हो उठा . . . 
अक्सर हमारे साथ होता दोस्त विजयकिशोर मानव भी, जो मुश्किलों में था
और हमारे हिये में धड़कते थे जिसके दुख
उसे हम प्यार करते मोती में बंद सीप की तरह
और हम तीनों के संवाद जाने कब कविता में ढल जाते
 
उन्हीं दिनों मेरा इलेक्शन लड़ना फिजिक्स एसोसिएशन का
बन गया ख़ुद में एक अलग फसाना
लगता हम दुनिया बदलने निकल पड़े हैं दीवाने कुछ मिलकर
और उस समय प्रचार के लिए छपवाया गया जो ख़ूबसूरत कवितामय फ़ोल्डर
उसे तो मेरे प्रतिद्वंद्वी भी लेने के लिए मचलते थे
 
बाद में उद्घाटन के लिए आए कुलपति बालकृष्ण राव साहब तो 
सुनाईं उन्होंने अपनी कविताएँ भी मेरे अनुरोध पर
और क्या ख़ूब समाँ बँधा
मगर वह ताक़त तो तुम्हारी ही दी हुई थी न प्रदीप! 
 
मैं वहाँ था और कुछ कर रहा था इसलिए कि तुम थे
मेरे लिए आगरा आगरा था, क्योंकि तुम थे
बार-बार मुझे याद आता है प्रदीप, सप्रू हॉस्टल आगरा कॉलेज का
अपनी अनगिनत बेवुक़ूफ़ियाँ भी 
और फिर भी घुली रही फ़िज़ा में मिठास
क्योंकि तुम थे प्रदीप
 
वहाँ मैं था वहाँ मानव वहाँ ज़िन्दगी की तमाम उठा-पटक
और कष्टों और मुसीबत के बीच हम थे हम
क्योंकि तुम थे प्रदीप, तुम
जिसके भावुक सुर-ताल में रोज़ ही हम गंगास्नान कर लेते थे
और एक कच्चे धागे में बँध जाते थे
कभी न बिछुड़ने के लिए
 
वह दोस्ती का, घुमक्कड़ी और आवारगी का मिला-जुला दौर था प्रदीप
जिसमें ज़िन्दगी सहस्रपद्म सी हज़ारों रूपों में खुलती 
हम हज़ार-हज़ार शक्लों में देखते उसे कुछ निश्चय सा करते हुए
कि यह मैं हो नहीं सकता ज़िन्दगी में कभी चाहे जो भी हो
कि वह रास्ता वह डगर मेरी नहीं उस पर न पड़ेंगे पाँव कभी
कि यह मैं हूँ कि यह मैं बनूँगा बनकर रहूँगा देखना तुम एक दिन . . . 
 
ज़िन्दगी में पहली बार हमने देखने शुरू किए थे
कुछ होने कुछ बनने के सपने
तुम बनाते थे कलाकृतियाँ और हम सोचते थे
यही बने हमारे साझे कविता संकलन का आवरण तो कितना अच्छा हो
 
मेरी भावी ज़िन्दगी के नक़्शे वहीं तैयार हुए थे 
प्रदीप
कि साइंस की चक्की में अब और पिसना नहीं है
कि साहित्य की दुनिया में एक लेखक की तरह जीना है 
भले ही आएँ विपदाएँ अपार, खानी पड़े रोटी एक नहीं आधी ही
 
और यक़ीन था कि जो सोचा है वह सही है
कि मैं ज़िन्दगी से एक दोस्ताना खेल खेल रहा था प्रदीप
कि था वह एक क़िस्म का जुआ अपने आप से
जिसमें एक लेखक हारता है और बस हारता ही चला जाता है
 
ज़िन्दगी भर हारी हुई लड़ाइयाँ लड़ने वाला चंद्रप्रकाश रुद्र 
जो आज मुख़ातिब है तुमसे प्रकाश मनु बनकर
कि पचहत्तर की उम्र में भी जिसका दिल जवाँ है
लिख रहा है पंक्तियाँ ये शब्दों के साथ जोड़कर शब्द
टटोल रहा है अब भी वह किसी नए जिज्ञासु की तरह
ज़िन्दगी के आखर 
साहित्य कला का मर्म क्योंकि मेरी ज़िन्दगी में आगरा है
एक अजीब भावुकता और उथल-पुथल से भरा आगरा अध्याय
मेरी आत्मकथा का
 
जिसमें तुम थे केंद्र में शुरू से ही
और मैंने ख़ुद को पहचाना था एक नए ही रूप में
और था क्यों कह रहा हूँ प्रदीप
वह तो आज भी है मेरे भीतर मुझसे लिखवाता रहता है कविता कहानियाँ उपन्यास 
और बहुत कुछ लिखता रहूँगा ताउम्र टटोलता रहूँगा
खोए हुए अर्थ ज़िन्दगी के
क्योंकि मुझमें आगरा बहता है किसी सदानीरा की तरह 
जिसमें मेरे सात जनम डूबे हैं
 
आगरा था तो मानव था और भी बहुत सारे दोस्त मेरे
मगर जिसे केंद्र में रखकर मैं जिया था
और देख पाता हूँ अब भी आगरा, 
वह तुम हो प्रदीप, तुम . . . 
किसी नदी की अंतःधारा की तरह, जो हमें हम सबको जोड़ती थी
 
और आज भी सोचता हूँ कि उन दिनों की मस्ती और आनंद का राज़ क्या है
तो लगता है, उसकी चाबी तो बस तुम्हारे पास है
जिससे खुलते हैं सब ताले . . . 
कि उस दौर की ज़िन्दगी के राज़ सारे
जहाँ लहरा रहा था दुख आतप और ख़ुशी का समंदर
और बीच-बीच में सुनाई देती थी सुरीली बाँसुरी की तान
क्योंकि उस सबके बीच तुम थे प्रदीप, तुम आज भी हो . . . 

1 टिप्पणियाँ

  • बहुत ही प्यारी कविता लिखी है चंदू भैया, आपने।‌ मन में जो भाव उपजे, उन्हें शब्दों मे पिरो नही सकता। सप्रू हॉस्टल की मधुर स्मृतियां पूरे मन को आंदोलित कर गईं और सफ़ेद पायजामा, झकझकाता सफ़ेद कुर्ता पहने चंद्रप्रकाश विग रुद्र अपनी मनमोहक छवि के साथ साकार हो गया, जो मुट्ठी बांधकर, मन में उपजे आक्रोश को क्षणिकाओं, कविताओं के माध्यम से व्यक्त कर, झिंझोड़ देता था।...आपका स्थान मेरे मन मे हमेशा ही विशेष रहा है, और अब कविताओं के माध्यम से मेरी दोस्ती को कनाडा तक पहुंचने के लिए मै हृदय से आभारी हूं।...कई बार दिल्ली जाते समय फरीदाबाद से होकर गुजरा, पर विवशताओ के चलते भेंट नहीं कर पाया।‌ - प्रदीप सुड़ेले, झांसी (उत्तर प्रदेश)

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