भरत चले राम को मनाने

15-04-2025

भरत चले राम को मनाने

प्रकाश मनु (अंक: 275, अप्रैल द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

राम के वनवास की बात सुनते ही अयोध्या में उदासी छा गई। प्रजा तो दुखी थी ही, पेड़-पौधों तक की शक्ल ऐसी हो गई, जैसे रो रहे हों। 

गलियाँ, सड़कें, रास्ते की धूल और पत्थर भी रो रहे थे। मानो करुणा की नदी बह निकली हो। 

किसी की समझ में नहीं आ रहा कि देखते ही देखते यह हो क्या गया? राम को तो राज्य मिला था। राजगद्दी मिली थी। बड़े ज़ोर-शोर से राजतिलक की तैयारियाँ हो रही थीं। तो फिर यह बिजली कहाँ से आकर टूट पड़ी, कि देखते ही देखते सारे मंगल गान बिखर गए। फूल मुरझा गए। 

पूरी अयोध्या में दुख ही दुख छा गया था। 

फिर एकाएक बिजली की तेज़ी से यह समाचार अयोध्या की गली-गली में फैल गया कि भरत जी राम को मनाने वन जा रहे हैं। लोग दौड़कर हर किसी को यह समाचार दे रहे थे। हर कोई उनके साथ जाना चाहता था। 
अगले ही दिन प्रातःकाल भरत राम को मनाने वन की ओर चल पड़े। उनके साथ-साथ शोक की मूरत बनी तीनों रानियाँ कौशल्या, सुमित्रा, कैकेयी, कुलगुरु वसिष्ठ, भाई शत्रुघ्न और सभी परिजन थे। साथ ही अयोध्या की सेना और बहुत बड़ी संख्या में अयोध्यावासी भी, जो विकल होकर मन ही मन पुकार रहे थे, “राम, तुम लौट आओ . . . लौट आओ राम! जल्दी लौट आओ हमारी आँखों के तारे, अवधपति राम!”

स्वयं भरत के भीतर भी तो जैसे बार-बार हाहाकार सा उठता। ओह, क्या होना था, क्या हो गया! . . . रघुवंश जैसे महान कुल के भाग्य में भी क्या यही बदा था? जो किसी की कल्पना में भी नहीं था, वह आज सच बन गया। हाय विधाता, अयोध्या की यह कैसी दुर्गति! देखते ही देखते जैसे सारा वैभव लुट गया हो। 

बचपन से किस तरह साथ-साथ खेलते हुए हम बड़े हुए। राम तो राम थे। वे शुरू से ही किस तरह हम सब भाइयों का ध्यान रखते थे। अपने से कहीं ज़्यादा। और मुझे तो सबसे ज़्यादा उनका प्यार मिला, लाड़ मिला। कितनी ही बार उन्होंने प्यार-दुलार से भरकर कहा, “तुम मुझे प्राणों से ज़्यादा प्यारे हो भरत!”

और फिर क्या यह सिर्फ़ कहने की ही बात थी? आह, किस तरह उनका रोयाँ-रोयाँ मुझे पुकारता था। कैसे प्यार से गले लगाते थे। हर क़दम पर जीवन की कितनी अच्छी सीख मुझे मिली। कितनी ही बार संकट से उन्होंने मुझे उबारा। ऐसे राम! . . . ऐसे प्राणों से बढ़कर प्यारे राम! हम सबके आदर्श राम . . . हम सबके उपकारी, आज मेरे कारण वन में हैं। आह, मेरी छाती क्यों नहीं फट जाती। मैं कैसे अपने आप को क्षमा कर पाऊँगा भगवान? 

फिर एकाएक कैकेयी के कुकृत्य का उन्हें ध्यान आता। कैकेयी की क्रूर लीला आँखों के आगे आती तो मन फूट-फूटकर रो प़ड़ता, “माँ, तुम माँ नहीं, मेरे लिए तो सचमुच हत्यारिणी ही बन गईं। मेरा तो सारा चरित्र ही कलंकित हो गया। पाप ने जैसे मेरा चेहरा स्याह कर दिया हो। लोग कहेंगे, इस भरत के लिए राम वन में गए, इस अधम और पापी भरत के लिए? . . . हा, मैं इतने बड़े पाप का बोझ कैसे सहूँगा भगवान?” 

भरत बार-बार ख़ुद को समझाते। पर हृदय था कि बार-बार बिलख उठता। भरत किसी तरह धीरज धारे हुए चुपचाप चलते जा रहे थे। पर अंदर का द्वंद्व बार-बार उनके चेहरे पर आता तो लगता, किसी ने चेहरे पर स्याही पोत दी हो। भीतर से पल-पल एक कराह सी उठती। वे बड़ी मुश्किल से उसे दबा पा रहे थे। 

उधर प्रजा के मन में एक ओर दुख की टीस, तो दूसरी ओर उसे काटती हुई आशा की एक लहर सी भी पैदा हो गई थी। देखते ही देखते हज़ारों लोग भरत के साथ वन जाने के लिए तैयार हो गए। उनका उत्साह देखते ही बनता था। 

वे ख़ुद को धीर बँधाते हुए सोचते, “अहा, इस बहाने प्रभु राम के दर्शनों का सौभाग्य मिलेगा। और अगर वे सचमुच लौट आए, फिर तो अयोध्या का भाग्य ही जाग जाएगा। अयोध्या की सारी खोई हुई ख़ुशियाँ लौट आएँगी। काश, ऐसा ही हो प्रभु! . . . ऐसा ही हो भगवान!”

अयोध्या में जो भी भरत की इस अनोखी वन-यात्रा के बारे में सुनता, फ़ौरन साथ चल देता। लगता था, पूरी अयोध्या ही भरत के साथ राम को मनाने चल पड़ी है। 

पीछे घरों में सिर्फ़ बूढ़े, बालक या स्त्रियाँ ही रह गई थीं। जो लोग भरत के साथ नहीं जा सके, वे भी रात-दिन यही मनाते, “हे ईश्वर, राम लौट आएँ। हमारे राम लौट आएँ! . . . उनके आने से सचमुच अयोध्या में प्राण आ जाएँगे।” 

कुछ लोग आपस में मिलकर भरत जी के निर्मल चरित्र का बखान करने लगते। कहते, “राम के भाई भरत भी तो बिल्कुल राम जैसे ही हैं। एकदम सीधे-सरल। धर्मात्मा। इनके मन में राज्य के लिए तिल भर भी लोभ-लोलच नहीं है। ऐसे भाई बड़े भाग्य से मिलते हैं!” 

कोई-कोई कहता, “कैकेयी कैसी काली सर्पिणी निकली। पर उसका बेटा देखो, जैसे उजला दूध का कटोरा। माँ इस छोर, तो बेटा उस छोर। माँ कुल कलंकिनी तो बेटा एकदम साधु-संत . . . वाह, विधाता, तेरी लीला भी बड़ी अद्भुत है!” 

कोई दूसरा कहता, “मुझे पता है, चारों भाइयों में आपस में बड़ा प्रेम है। रामचंद्र जी छोटे भाई भरत जी को तो प्राणों से भी ज़्यादा प्यार करते हैं। देखना वे ज़रूर लौट आएँगे। फिर अयोध्या के लोग कितने प्रेम से उन्हें बुलाने वन जा रहे हैं। भला राम इतने लोगों के प्रेम भरे आग्रह को कैसे न मानेंगे!” 
तभी कोई और भाव-गद्‌गद्‌ होकर बोल पड़ता, “राम अयोध्या वासियों पर तो प्राण छिड़कते हैं। सारे अयोध्या के लोग वन जाकर उन्हें लौटने के लिए कहें, तो भी वे न मानें, ऐसा हो नहीं सकता!” 

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उधर निषादराज अपने घर के बाहर बैठा, प्रभु रामचंद्र जी के बारे में ही सोच रहा था। उसके साथी उसका मन बहलाने की कोशिश कर रहे थे। पर वन में रामचंद्र जी के कष्टों के बारे में सोचकर रह-रहकर उसकी आँखें भर आतीं। बार-बार विह्वल होकर कह उठता, “पता नहीं, प्रभु राम जी किस हालत में होंगे। कहीं वे किसी मुश्किल में तो नहीं हैं? क्यों न मैं जाकर उनका हालचाल पता करूँ?” 

निषादराज इन्हीं विचारों में खोया हुआ था, तभी उसे कुछ दूरी पर शोर सुनाई दिया। ऐसा लगा कि एक साथ बहुत-से लोग मिलकर चले आ रहे हैं। 

वन में ऐसा तो बहुत कम देखने को मिलता था। कुछ न कुछ विशेष बात तो ज़रूर है। 

निषादराज के दिल में कुछ खटका सा हुआ। वह व्याकुल होकर सोचने लगा, “ये लोग कौन हैं? यहाँ क्यों आए हैं? क्या किसी ने रामचंद्र जी को विपत्ति में देख, उन पर चढ़ाई करने के लिए सेना भेजी है? सोच रहा होगा, वे अकेले हैं, तो उन पर आक्रमण करके चारों ओर से घेर लिया जाए . . . पर यह तो अच्छी बात नहीं है। अगर ऐसा हुआ तो मैं अपनी जान पर खेलकर भी रामचंद्र जी को बचाऊँगा।”

इतने में ही एक वनवासी दौड़ा-दौड़ा आया। वह बुरी तरह हाँफ रहा था। चेहरा ग़ुस्से से लाल। उत्तेजित होकर बोला, “सुनिए निषादराज, अयोध्या से भरत आ रहे हैं। उनके साथ बहुत बड़ी सेना है। सुना है, वे प्रभु रामचंद्र जी पर चढ़ाई करने आए हैं। साथ में परिवार के लोग भी हैं।” 

“ओह भरत! . . . अब वे इस बात पर उतर आए? यह तो नीचता की हद है।” निषादराज ने व्याकुल होकर कहा, “क्या उन्होंने सोच लिया है कि राम इस समय अकेले हैं, और उनके पास सेना भी नहीं है। तो उन्हें आसानी से जीता जा सकता है . . . पर मेरे होते वे ऐसा नहीं कर सकते। मैं प्रभु राम की रक्षा करने के लिए अपने प्राणों की बाज़ी लगा दूँगा।” 

कहते हुए निषादराज का चेहरा तमतमा गया। होंठ फड़कने लगे। 

उसने उसी समय अपने साथियों को बुलाकर कहा, “आप सब लोग जल्दी से तैयार हो जाइए . . . साथ ही दूर-दूर तक समाचार भिजवाइए, ताकि सभी निषाद लोग यहाँ जल्दी से जल्दी पहुँच जाएँ। बड़ी विपदा आन पड़ी है। अयोध्या से भरत विशाल सेना लेकर आ रहे हैं। हमें उनका मुक़ाबला करना है . . . अगर प्रभु रामचंद्र जी पर कोई संकट आया तो हम सभी अपने प्राणों की बलि दे देंगे। अगर जीवन सफल करना हो तो सब लोग आगे बढ़कर अयोध्या की सेना का सामना करो। ऐसा करते हुए जान भी चली जाए, तो कोई परवाह नहीं।” 

फिर एक क्षण के लिए कुछ सोचकर उसने कड़कती आवाज़ में आदेश दिया, “तुम लोग अभी दौड़कर जाओ। सभी नावें क़ब्ज़े में ले लो, ताकि अयोध्या की सेना नदी पार न कर सके। अगर वे छीनने की कोशिश करें तो एक साथ सभी नावों को डुबो दो। दौड़ो . . . जल्दी करो!” 

निषादराज की बात सुनते ही एक अनुभवी बूढ़े निषाद ने कहा, “ठहरो निषादराज, एक बार फिर से सोच लो। मुझे तो कुछ और ही बात लगती है।” 

“क्या?” विषादराज गुह हैरान होकर बोला, “आपको क्या लगता है?” 

“मुझे लग रहा है निषादराज!” उस बूढ़े निषाद ने शांत स्वर में कहा, “कि भरत लड़ाई करने नहीं, शायद प्यार और मित्रता का संदेश लेकर आए हैं। इसीलिए साथ में अयोध्या की तीनों रानियाँ और गुरु वसिष्ठ भी हैं। मुझे कई निषादों ने आकर बताया है कि भरत के चेहरे पर बड़ा प्रेम भाव है, और वे निरंतर ‘राम-राम’ उच्चारते हुए आगे बढ़ रहे हैं . . . कुछ लोगों ने उनकी बातें भी सुनी हैं। वे बार-बार यही कह रहे हैं कि हम बड़े भैया राम को ज़रूर वापस ले आएँगे।” 

सुनकर निषादराज ने एक क्षण चुप रहकर सोचा। फिर बोला, “मुझे भी लगता है, इस बात में कुछ दम है। हमें जल्दबाज़ी में कुछ नहीं करना चाहिए। आप लोग यहीं रहें। युद्ध की तैयारी में ढील न दें। मैं अकेला ही जाऊँगा, और टोह लगाकर आऊँगा। देखूँगा, भला भरत जी के मन में क्या है!” 

थोड़ी ही देर में निषादराज भरत जी के पास जा पहुँचा। पहले उसने गुरु वसिष्ठ के चरणों में प्रणाम किया। जैसे ही उसने अपना नाम बताया, वसिष्ठ जी ने प्रेम से उसे अपनी छाती से लगा लिया। बोले, “तुम धन्य हो भाई गुह। तुम्हें विधना ने रामचंद्र जी की सेवा का दुर्लभ अवसर दे दिया। और उनका निर्मल प्रेम तुम्हें मिला।”
गुरु वसिष्ठ जी का प्रेम देखकर निषादराज धन्य हो गया। 

सोचने लगा, “कहाँ गुरु वसिष्ठ जैसा महाज्ञानी, और कहाँ मेरे जैसा घोर अधम और अज्ञानी पुरुष। पर यह प्रभु राम की ही महिमा है कि उनका मित्र जानकर, गुरुदेव मुझे इतना मान दे रहे हैं!”

फिर भरत तो बड़े भैया राम का सखा जानकर इतने प्रेम से मिले कि निषादराज की आँखों से आँसू बह निकले। सोचने लगा, “अरे, ये तो राम के प्रेम में सिर से पैर तक भीगे हुए हैं। इनके रोम-रोम में राम की पुकार समाई हुई है। ओह, मैंने इनके बारे में क्या सोच लिया था। कितनी बड़ी भूल हो जाती अगर . . .!”

फिर निषादराज शत्रुघ्न समेत सभी परिजनों से बड़े प्रेम से मिला। सबको बड़े आदर के साथ शृंगवेरपुर आने के लिए कहा। बोला, “आपके आने से शृंगवेरपुर धन्य हो जाएगा!” 

लौटकर निषादराज ने सभी को यह बताया, तो शृंगवेरपुर में सब ओर भरत जी का जय-जयकार होने लगा। गंगा की लहरें भी मानो उठ-उठकर उसमें अपनी आवाज़ मिला रही थीं। 

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उस रात सभी ने शृंगवेरपुर में ही विश्राम किया। निषादराज गुह ने राज्य के जितने भी बग़ीचे और खुले प्राकृतिक स्थल थे, सभी में पेड़ों के नीचे सुंदर ढंग से विश्राम की व्यवस्था कर दी थी। गंगा नदी के दूर तक फैले हरे-भरे तट पर भी बड़े-बड़े छतनार वृक्षों के नीचे ठहरने की बड़ी सुंदर व्यवस्था कर दी गई। 

रात बातें करते-करते ही बीती। सब प्रभु राम के प्रेम में विह्वल थे। ऐसे में भला नींद किसे आनी थी! सबके मन में इतना कुछ उमड़-घुमड़ रहा था, कि उसे कहे बिना किसी को चैन नहीं था। कैकेयी का मन सबसे अधिक संतप्त था। वह रानी कौशल्या की छाती से लगकर फूट-फूटकर रो पड़ी। आह, मैंने कैसा अनर्थ कर दिया! अब भला कौन मुझे क्षमा करेगा? युगों-युगों तक लोग कहेंगे, कैकेयी कैसी कुटिल रानी थी। कितनी दुष्ट और अभागी थी! एकदम जड़ और मलिन बुद्धि वाली पापात्मा। अयोध्या का कलंक थी वह . . . कभी नहीं धुल पाएगा दीदी, यह दाग़ मेरे माथे से! 

ईश्वर ने उचित ही किया। ऐसा दंड दिया कि मैंने कभी सोचा भी नहीं था। जिस पुत्र के मोह में मैं अंधी हो गई थी, वह अब मुझे माँ मानने को ही तैयार नहीं है। हे विधना, मेरी मृत्यु हो जाती, तो मुझे कुछ चैन पड़ता, नहीं तो जीवन भर यह शूल मुझे चुभता रहेगा। मेरे दारुण दुख और दुर्भाग्य का कोई अंत नहीं। मैंने राम जैसे प्यारे पुत्र की राह में काँटे बिछाए, अब जीवन भर उसी काँटों की सेज पर मुझे सोना है। 

रानी कौशल्या और सुमित्रा बार-बार कैकेयी को समझातीं, कि यह उसका दोष नहीं। अयोध्या के भाग्य में ही दुख और विपत्ति की ऐसी विपरीत घड़ी लिखी थी, जिसमें यह सब होना ही था। 

“कैकेयी, तुम तो बस निमित्त बन गईं। तुम्हारा ज़रा भी दोष नहीं!” कहकर कौशल्या ने कैकेयी को छाती से लगाया, तो रोते-रोते उसकी बुरी तरह हिचकियाँ बँध गईं। 

कैकेयी के दुख का बाँध आज टूट गया था, और उसे कोई नहीं सँभाल पा रहा था। बड़ी मुश्किल से कौशल्या और सुमित्रा ने अपनी सौगंध देकर उसे चुप कराया, और बार-बार धीरज बँधाती रहीं। 

सुबह उठकर सभी ने गंगास्नान किया। फिर आगे की यात्रा शुरू हुई। चलने से पहले भरत जी ने अशोक के वृक्ष के नीचे उस स्थान को सिर नवाकर प्रणाम किया, जहाँ प्रभु राम और सीता ने रात को विश्राम किया था। फिर उस वृक्ष की उन्होंने बार-बार परिक्रमा की। उस समय उनकी आँखों से अश्रु झर रहे थे। शरीर एकदम प्रेम-मगन था। 

अब तो ख़ुद निषादराज भी भरत के साथ-साथ राम को वापस अयोध्या चलने के लिए मनाने को साथ चल पड़ा। 

वह भरत और अयोध्या के लोगों को रास्ता दिखाते हुए आगे-आगे चल रहा था, तो उसे लग रहा था, उसके पैर प्रभु राम के प्रेम की डेर से बँधे, ख़ुद-ब-ख़ुद आगे चले जा रहे हैं। और हृदय प्रेम और आनंद से भीग सा गया है। 

यही हालत भरत और उनके साथ आए अयोध्या के सभी नर-नारियों की थी। वे सभी राम के रस में भीगे हुए थे। 

निषादराज उन्हें प्रभु राम, लक्ष्मण और सीता जी से जुड़े प्रसंग सुनाता, तो सभी ललककर सुनने लगते। जैसे किसी प्यासे को ठंडे पानी का पूरा घड़ा मिल गया हो। 

उसने बताया किस तरह रात को राम और सीता जी अशोक वृक्ष के नीचे कुश की चटाई बिछाकर सोए थे। सुबह उठकर राम और लक्ष्मण जी ने वट का दूध मँगवाकर जटाएँ बाँधीं और गैरिक वस्त्र पहने। सीता जी ने भी सादे वस्त्र धारण किए। फिर गंगा नदी को पार करके वे आगे गए। 

निषादराज गुह ने यह भी बताया कि केवट ने नदी पार कराते समय अपनी सीधी-सादी अटपटी बातों से रामचंद्र जी को रिझा लिया था, जिन्हें सुनकर सीता जी और लक्ष्मण भी हँस पड़े थे। तीनों रानियों ने विभोर होकर यह प्रसंग सुना तो रामचंद्र जी के वनवास का पूरा दृश्य उनकी आँखों के सामने आ गया। फिर निषादराज ने बताया कि वन में जाते हुए रामचंद्र जी ने किन-किन स्थानों पर विश्राम किया। साथ ही उनकी प्रेम से पगी सीधी-सरल बातें भी सुनाईं, जिन्हें वह अब तक भूल नहीं सका था। 

सब लोग भावमग्न होकर निषादराज की बातें सुन रहे थे। साथ ही उसके भाग्य को भी सराह रहे थे, जिसे प्रभु रामचंद्र जी के सान्निध्य का इतना सुख मिला। 

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चलते-चलते सब लोग प्रयागराज पहुँचे तो वहाँ के सुरम्य वातावरण ने सबको मुग्ध कर दिया। वहाँ सभी ने त्रिवेणी के पवित्र जल में स्नान करके, पूजा-अर्चन किया। तभी निषादराज ने मुनि भरद्वाज के आश्रम के बारे में बताया, जहाँ जाकर प्रभु रामचंद्र जी ने मुनि के दर्शन किए थे। 

सुनकर गुरु वसिष्ठ आह्लादित हो गए। बोले, “मुनि भरद्वाज सचमुच बड़े ही पहुँचे हुए मुनि और ज्ञानी हैं, जिनकी निर्मल कीर्ति सब ओर फैली है। उनके दर्शन करना बड़े पुण्य की बात है।” 

भरत जी बोले, “फिर तो गुरुदेव, मुनि भरद्वाज जी के दर्शनों का सौभाग्य हमें नहीं छोड़ना चाहिए। हो सकता है, वहाँ बड़े भैया रामचंद्र जी के बारे में भी कोई समाचार पता चले।” 

उसी समय भरत जी गुरु वसिष्ठ, तीनों माताओं, भाई शत्रुघ्न और सभी परिजनों के साथ मुनि भरद्वाज जी से मिलने गए तो उनके आनंद का ठिकाना न रहा। गुरु वसिष्ठ ने बड़े प्रेमपूर्ण ढंग से मुनि भरद्वाज जी का अभिवादन किया। इस पर भरद्वाज जी ने बड़े स्नेह और आदर के साथ उन्हें गले लगा लिया। 

फिर तीनों रानियों कौशल्या, सुमित्रा, कैकेयी ने मुनि को प्रणाम किया तो उन्होंने सभी को सुंदर आशीर्वाद दिए। इसके बाद भरत जी ने बड़े आदर के साथ मुनि भरद्वाज के चरणों में लेटकर, प्रणाम किया। मुनि ने भरत जी को उठाकर गले से लगाया और बड़े प्रेम से कुशलक्षेम पूछी। शत्रुघ्न और अन्य परिजनों ने भी मुनि भरद्वाज को प्रणाम करके उनका आशीर्वाद लिया। 

मुनि भरद्वाज जी ने शिष्यों से मीठे कंद-मूल, फल लाने के लिए कहा। सबने बड़े आनंद के साथ फलाहार किया। 

फिर मुनि के पूछने पर भरत जी ने उन्हें वन में आने का कारण बताया। साथ ही राजा दशरथ के न रहने का दुख भरा समाचार भी दिया। भरद्वाज जी ने भरत को सांत्वना देते हुए कहा, “दशरथ बड़े पुण्यात्मा थे। उनके जाने से अयोध्या के प्राण ही चले गए। पर अब आप शोक त्यागकर, अयोध्या का राजकाज सँभाल लें, ताकि प्रजा को कोई कष्ट न हो।” 

इस पर भरत जी ने बहुत विनम्र शब्दों में कहा, “हे मुनिराज, अयोध्या के राज सिंहासन पर बैठने का अधिकार तो बड़े भैया राम का ही है। इसीलिए हम सभी उन्हें मनाने के लिए वन में जा रहे हैं।” 

फिर उन्होंने बताया, “अयोध्या की प्रजा प्रभु राम को प्राणों से बढ़कर चाहती है। इसलिए सहस्रों अयोध्यावासी भी साथ-साथ चले आए, ताकि रामचंद्र जी उनके साथ वापस अयोध्या चलने के लिए मान जाएँ।” 

भरत जी की सरलता और विनय ने मुनि भरद्वाज जी को बहुत प्रभावित किया। गद्‌गद्‌ होकर बोले, “आप धन्य हैं भरत जी, और अयोध्या की प्रजा भी धन्य है, जिसका प्रेम इतना सच्चा और निर्मल है। तभी तो आप सब लोग इतने भावविभोर होकर राम को मनाने वन में जा रहे हैं। मेरा आशीर्वाद है आप लोगों के साथ है, ताकि आपका यह सुंदर मनोरथ पूरा हो।” 

फिर बोले, “अभी कुछ दिन पहले रामचंद्र जी लक्ष्मण और सीता जी के साथ आए थे। तब आपकी प्रशंसा करते हुए उन्होंने कहा था, संसार में भरत जैसा भाई मिलना दुर्लभ है। उनका मन गंगा जल की तरह निर्मल है . . . आज आपने सिद्ध कर दिया कि रामचंद्र जी ठीक कह रहे थे।” 

सुनकर भरत जी कुछ बोले नहीं। बस, चुपचाप दोनों हाथ जोड़कर सिर झुका लिया। 

कुछ समय बाद भरद्वाज जी ने कहा, “अब साँझ हो गई है। अँधेरा घिरने लगा है। आज रात आप लोग यहीं विश्राम करें। कल सुबह आगे के लिए प्रस्थान करेंगे, तो अच्छा होगा।” 

भरत जी को भी यह अच्छा लगा। पर उनके साथ गुरु वसिष्ठ और राज परिवार के लोगों के साथ ही सहस्रों अयोध्यावासी भी थे। भला उनके रुकने का प्रबंध कैसे हो? यह सोच मुनि भरद्वाज ने सभी ऋद्धि-सिद्धियों को बुलाकर कहा, “आज भरत जी और उनके साथ आए परिजन तथा पुरजन यहाँ विश्राम करेंगे। उनके निवास और भोजन आदि की सुंदर व्यवस्था की जाए।” 

और आश्चर्य, उसी पल देखते ही देखते वहाँ एक सुंदर और मनोरम नगर ही बस गया। वहाँ इतने सुंदर भवन और अन्य सुविधाएँ थीं कि देखकर मन मुग्ध हो उठता था। 

इस तरह भरत जी के साथ जितने भी लोग आए थे, सबके रहने, ठहरने और भोजन आदि की ज़रूरतों का इतना सुंदर प्रबंध पल भर में हो गया, कि सब अभिभूत होकर मुनि भरद्वाज जी की प्रशंसा कर रहे थे। बार-बार कह उठते, “हमें यहाँ राजमहलों से बढ़कर सुख मिल रहा है। भरद्वाज जी का प्रबंध कितना अद्भुत है!” 

वहाँ आनंदपूर्वक भोजन आदि करके सबने रात को विश्राम किया। प्रातःकाल उठकर सबने त्रिवेणी के पावन जल में स्नान किया। फिर जलपान आदि करके प्रस्थान की तैयारी करने लगे। 

भरत जी ने मुनि भरद्वाज जी के पास जाकर कृतज्ञता प्रकट करते हुए जाने की अनुमति माँगी। भरद्वाज जी ने बड़े प्रेम से उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा, “आपका मन सरल और निर्मल है। मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि आपके सभी मनोरथ पूर्ण हों।” 

फिर भरत जी गुरु वसिष्ठ, सभी परिजनों और पुरजनों के साथ आगे चल दिए। निषादराज के बताने पर वे उसी राह पर चल रहे थे, जिधर से राम गए थे। 

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रास्ते में गाँव की सीधी-सरल स्त्रियों ने भरत और शत्रुघ्न को देखा, तो उन्हें बड़ी हैरानी हुई। सब एक-दूसरे से लगीं, “अरे, ये तो ठीक वैसे ही दो तरुण हैं, जैसे अभी कुछ दिन पहले यहाँ से निकले थे। कहीं वही तो फिर से नहीं आ गए?” 

तब किसी और ने कहा, “हाँ, लगते तो वैसे ही हैं। हो सकता है, ये उनके भाई हों।” 

कुछ स्त्रियाँ भावमग्न होकर कह रही थीं, “अहा, वैसा ही सुंदर शरीर, वैसा ही दिप-दिप करता रूप . . .! देखकर लगता है, कहीं ये हमारी दृष्टि से मैले न हो जाएँ।” 

तभी किसी ने कहा, “मैंने तो सुना है, ये अयोध्या के राजा दशरथ के बेटे भरत और शत्रुघ्न हैं। पहले जो गए थे, वे राम और लक्ष्मण थे . . . ये लोग लगता है, उन्हें वापस लाने के लिए वन में जा रहे हैं!” 

इतने में कोई दूसरी स्त्री बोल पड़ी, “हम लोग धन्य हैं। पहले दो सुंदर भाइयों को देखने का सौभाग्य मिला। फिर वैसे ही दो सुंदर, सजीले भाई और देख लिए . . . इतने बड़े-बड़े राजमहलों के वासी पता नहीं, इस जंगल में कैसे आ निकले!” 

भरत जी गाँव के लोगों की ये सीधी-सरल बातें सुनकर मुग्ध हो जाते। उन्हें यह देख-सुनकर अच्छा लग रहा था कि जिस राह से कुछ दिन पहले राम और लक्ष्मण गए थे, वे भी उसी राह पर जा रहे हैं। 

चलते-चलते निषादराज गुह बताता कि इस पेड़ के नीचे प्रभु रामचंद्र जी ने विश्राम किया था, तो भरत जी भी प्रेमविभोर होकर थोड़ी देर वहाँ बैठ जाते और रामचंद्र जी की याद में खो जाते। इसमें उन्हें अनुपम सुख मिलता। 

पूरे रास्ते प्रभु राम की सुंदर स्मृतियाँ बिखरी थीं। भरत जी चलते जा रहे थे, तो साथ ही प्रेममग्न होकर उन सुंदर स्मृतियों के मोती भी सँजोते जा रहे थे। 

चलते-चलते वाल्मीकि ऋषि का आश्रम आया तो भरत जी गुरु वसिष्ठ और परिजनों के साथ बड़े आदर से उनके दर्शन करने गए। ऋषि ने आगे बढ़कर मुनि वसिष्ठ का स्वागत किया। फिर भरत जी, तीनों रानियों तथा सभी परिजनों को स्नेहपूर्ण आशीर्वाद दिया। 

फिर बताया, “अभी कुछ दिन पहले ही राम, लक्ष्मण और सीता यहाँ आकर रुके थे। उनके पूछने पर मैंने उन्हें चित्रकूट पर्वत पर कुटिया बनाने की सलाह दी थी। आगे कुछ ही दूरी पर चित्रकूट पर्वत है। आप लोग उधर ही जाएँ। मुझे लगता है, प्रभु रामचंद्र जी, सीता और लक्ष्मण जी के साथ वहीं निवास कर रहे हैं। वहाँ उनसे आपकी अवश्य भेंट हो जाएगी।” 

सुनकर भरत जी ऋषि वाल्मीकि को प्रणाम करके, उनकी अनुमति लेकर आगे चल दिए। 

आख़िर चलते-चलते वे चित्रकूट पर्वत के पास आ गए। तभी भरत जी ने ध्यान से देखा, तो वहाँ पेड़ों की हरियाली के बीच एक सुंदर कुटिया दिखाई दी। देखते ही वे उल्लसित हो गए। रास्ते की सारी थकान जैसे एक पल में ही ग़ायब हो गई हो। वे आह्लादित होकर बोल पड़े, “अहा, हम आ गए! वह सामने वाली कुटिया ही तो बड़े भैया राम की कुटिया है, जहाँ वे सीता भाभी और छोटे भाई लक्ष्मण के साथ निवास कर रहे हैं।” 

सुनते ही सबका ध्यान उधर ही चला गया। सब बड़े ध्यान से चित्रकूट पर्वत पर बनी प्रभु रामचंद्र जी की सुंदर, मनोरम कुटिया को बड़े ध्यान से देखने लगे। 

यह सचमुच बड़े आनंद का क्षण था। जिन राम से वे मिलने आए थे, वे अब बिल्कुल निकट ही थे। 

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उधर चित्रकूट में प्रभु राम सीता जी और भाई लक्ष्मण के साथ कुटी के बाहर बैठे, प्रकृति की सुंदरता का आनंद ले रहे थे। सुंदर, मंद समीर बह रहा था तथा पक्षियों की मधुर आवाज़ें वातावरण में रस घोल रही थीं। 
चित्रकूट जगप्रसिद्ध तीर्थस्थल था, पर यहाँ प्रकति की सुंदरता का अलग आनंद था। 

सीता जी ने कहा, “चित्रकूट सचमुच बहुत सुंदर तीर्थस्थल है। यहाँ रहते हुए मन नहीं अघाता। लगता है, जैसे प्रकृति ने अपने द्वार हमारे लिए खोल दिए हैं। इसलिए हरियाली से लदे पेड़-पौधों और सुंदर-सुंदर फूलों की नित नई छवियाँ हमें देखने को मिलती हैं। प्रकृति का ऐसा रमणीक और मोहक रूप मैंने पहली बार यहाँ आकर ही देखा है।” 

राम मुसकराकर बोले, “असल में वन कई बार दूर से भीषण लगता है। पर पास जाने पर उसकी रम्यता और अनुपम शोभा हमें मोह लेती है। फिर चित्रकूट तो जैसे हरियाली की छींटदार चादर ओढ़े हुए है। इसकी सुंदरता तन-मन को पुलकित करती है।” 

अभी ये बातें चल ही रही थीं कि लक्ष्मण की निगाह सामने की ओर गई। वहाँ ख़ासी चहल-पहल थी। लोगों का एक बड़ा क़ाफ़िला चला आ रहा था। साथ में सेना भी थी। 

देखकर वे फ़ौरन सतर्क हो गए, “अरे, यह क्या! ज़रूर किसी ने षड्यंत्र किया है। कुछ न कुछ तो ज़रूर है, जिसने मेरे मन को एकाएक अशांत कर दिया है।” 

फिर रामचंद्र जी की ओर देखकर कहा, “भैया, देखा आपने? सामने से भरत की सेना चली आ रही है। ज़रूर भरत की सेना ही है यह। मैंने दूर से ही पहचान लिया . . . शायद उन्होंने सोचा होगा कि वन में राम अकेले हैं, तो अब उन्हें घेरकर आसानी से मारा जा सकता है, ताकि उनका राज्य निष्कंटक हो सके। 

“ओह, कैसी निर्लज्जता है। धिक्कार है ऐसे भाई को, जिसे राजपद लेकर भी चैन नहीं पड़ा . . . आपको दीन हालत में अकेला समझकर, ये अपना सैन्य बल और पराक्रम दिखाने आ रहे हैं। पर वे यह नहीं जानते कि अकेला लक्ष्मण ही उनके लिए बहुत है। आप आज्ञा दें भैया, तो मैं अभी उन्हें बता दूँ कि वे राम के बल को ठीक से समझे ही नहीं। उनकी महिमा और मर्यादा को भी . . . अपने जीते जी तो मैं उनकी यह कुचाल सफल नहीं होने दूँगा।” 

इस पर राम और सीता जी भी चौंककर उसी दिशा की ओर देखने लगे, जिधर से धूल उड़ रही थी और लग रहा था, बहुत बड़ी संख्या में लोग यहाँ आ रहे हैं। 

पर उन्हें भरत के साथ-साथ आ रहे कुल गुरु वसिष्ठ और तीनों माताएँ भी नज़र आईं। 

देखकर रामचंद्र जी सोच में डूब गए। फिर बोले, “भाई लक्ष्मण, भरत आ रहे हैं, पर उनके साथ सारे परिजन भी हैं . . . मैं भरत को बचपन से ही बहुत अच्छी तरह जानता हूँ। उनके मन को लोभ छू तक नहीं गया। उनमें कहीं कोई छल-कपट नहीं है। भीतर-बाहर से वे बिल्कुल एक हैं, और मुझसे बहुत प्रेम करते हैं। मुझे लगता है, वे ज़रूर हम लोगों से मिलने के लिए आ रहे होंगे।” 

कुछ समय बाद वे स्पष्ट दिखाई देने लगे। तीनों माताएँ, गुरु वसिष्ठ, निषादराज गुह और अयोध्या के प्रजाजन भी। 

अब राम के लिए अपने आप को रोक पाना कठिन हो गया। वे बोले, “अब तो सब कुछ साफ़ हो गया। भरत जी गुरुवर वसिष्ठ और सभी परिजनों के साथ यहाँ हम लोगों से मिलने आ रहे हैं, तो मुझे आगे जाकर उनकी अगवानी करनी चाहिए। भाई लक्ष्मण, तुम सीता जी के साथ रहना, ताकि कहीं कोई जंगली जीव उन पर हमला न कर दे।” 

कहकर राम तीव्रता से उसी ओर चल दिए, जिधर से भरत के साथ ही पूरी अयोध्या उमड़ी चली आ रही थी। 

♦    ♦    ♦

भरत और सभी अयोध्या वासियों ने राम को अपनी ओर आते देखा, तो उनके उत्साह और आनंद का ठिकाना न रहा। सभी का मन कर रहा था, कि वे जल्दी से जल्दी राम के निकट पहुँच जाएँ। 

राम ने पास जाकर बड़े ही आदर के साथ गुरु वसिष्ठ जी को प्रणाम किया, तो उन्होंने राम को बड़े प्रेम से गले लगा लिया और भाव-गद्‌गद्‌ होकर आशीर्वाद दिया। फिर राम एक-एक करके तीनों माताओं से मिले। सबसे पहले उन्होंने कैकेयी से भेंट की। कैकेयी से मिलने पर उन्होंने विशेष प्रेम जताते हुए कहा, “माँ, होनी को कोई नहीं टाल सकता। मेरे वन आने में तुम्हारा किसी तरह का दोष नहीं है। शायद इसी में मेरी भलाई थी। वन में आकर इतने बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों से मिलने का सौभाग्य मिला कि लग रहा है, मेरा जीना सफल हो गया।” 

कैकेयी दुख की प्रतिमूर्ति सी लग रही थी। उसने कुछ कहना चाहा, पर कह न सकी। होंठ काँपकर रह गए। फिर धीरे से उसने कहा, “राम, मेरे पुत्र, सच मानो, किसी अनीति की छाया ने मुझे ग्रस लिया था। मुझे कुछ होश ही नहीं रहा। जैसे कोई और ही मुझसे यह करवा रहा हो . . . और अब क्या कहूँ? हो सके तो मुझे क्षमा . . .!” 

“न माँ, तुमने जो भी किया, उससे मेरा हर तरह का कल्याण हुआ। मुझे समझ में गया कि मेरा जीवन किस उद्देश्य के लिए है। शायद यहाँ आए बिना मेरा कार्य संपन्न न हो पाता।” 

कैकेयी ने राम के सिर पर हाथ फेरा, तो दो आँसू की बूँदें उनके नेत्रों से ढुरक गईं। 

राम ने फिर से कैकेयी को प्रणाम करके कहा, “माँ, तुमसे अधिक प्रिय मेरे लिए कोई और नहीं है। और मैं जानता हूँ कि तुम मुझे कितना प्रेम करती हो। पर शायद विधना को ही कोई खेल खेलना था। इससे मेरा हर तरह से लाभ ही हुआ। तुम बिल्कुल इसको लेकर कोई सोच न करना माँ।” 

कैकेयी ने फिर से राम के सिर पर हाथ रखा और फिर धीरे से चलकर पास ही एक पर्वत चट्टान पर बैठ गईं। 

फिर राम रानी सुमित्रा के पास जाकर बड़े प्रेम से मिले। बोले, “माँ, तुमने लखन को मेरे साथ चलने की अनुमति दी। यह बहुत अच्छा हुआ। वह मेरा भाई भी है, प्यारा मित्र भी। हर क्षण मेरी चिंता करता है। इस कारण वन का मेरा जीवन बहुत आनंदपूर्ण हो गया।” सुनकर रानी सुमित्रा ने उन्हें ढेर सारी असीसें दीं। 

अंत में वे माता कौशल्या से मिले, तो उन्होंने पुत्र को छाती से लगा लिया और देर तक असीसें देती रहीं। उनके नेत्रों से प्रेम और आँसुओं की बरसात हो रही थी। राम मुसकराकर बोले, “देखो माँ, मैं बिल्कुल वैसा ही हूँ, जैसा मैं अयोध्या से चला था। लक्ष्मण जैसा प्यारा भाई और सीता जैसी पत्नी मेरे साथ है। इसलिए वन में आकर मैंने कोई कष्ट जाना ही नहीं। बल्कि देखो न, मैं कछ और मोटा हो गया हूँ!” कहते हुए एक मीठी मुस्कान उनके चेहरे पर आ गई। 

राम की भोली बातें सुनकर माता कौशल्या ने बड़े प्यार से उन्हें छाती से लगा लिया और देर तक सिर पर हाथ फेरती रहीं। 

फिर राम छोटे भाई भरत से बड़े ही प्रेम से मिले। बोले, “मैं जानता हूँ भाई, तुम्हारा हृदय मेरे लिए किस क़द्र उमड़ता है। इसलिए तुम्हारे यहाँ आने से मुझे ज़रा भी आश्चर्य नहीं हुआ। तुम भाइयों में मुझे सर्वाधिक प्रिय हो, और तुम्हारे मन में मेरे लिए कितना प्रेम और आदर है, यह भी मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूँ। यह बहुत अच्छा रहा कि तुम यहाँ आए। इस बहाने तुम्हारे साथ-साथ तीनों माताओं, गुरुवर वसिष्ठ और सभी आत्मीय जनों से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।” 

भरत कुछ कहना चाहते थे। उनके होंठ फुरफुराए पर कुछ कहा न गया। सिर्फ़ तना ही कहा, “भैया, पता नहीं, आप मुझे क्षमा करेंगे कि नहीं। पर मैं सचमुच अभागा हूँ और बस, इतना ही कह सकता हूँ कि कैकेयी ने जो पाप कर्म किया, उसमें मेरी ज़रा भी सहमति हो तो मेरा सिर टुकड़े-टुकड़े हो जाए, और मैं जीते जी रौरव नरक में पड़ूँ।” 

राम ने प्यार से भरत को गले लगाकर कहा, “दुखी न होओ भाई। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि तुम्हारा हृदय गंगा की तरह निर्मल है। इसीलिए तुम्हारे जैसा प्रिय मुझे कोई और नहीं है।” 
भरत जी को दिलासा देने के बाद राम बड़े ही अनुराग से छोटे भाई शत्रुघ्न और सभी परिजनों से मिले। निषादराज से मिलते हुए तो उनका प्रेम मानो समा नहीं रहा था, और बाँध तोड़कर बह निकला था। उन्होंने प्रिय मित्र गुह को बाँहों में भर लिया। फिर वे सभी पुरवासियों से बड़े प्रेम से मिले। 

तब भरत जी ने छोटे भाई शत्रुघ्न को भाभी सीता और कुटिया की रक्षा के लिए भेजा, ताकि लक्ष्मण आकर सबसे मिल लें। 

शत्रुघ्न ने चित्रकूट पर्वत पर बनी उस सुंदर कुटिया पर आकर बड़े आदर से भाभी सीता जी के चरण स्पर्श करके, उन्हें प्रणाम किया। सीता जी बड़े प्रेम से अपने छोटे देवर से मिलीं, और उन्हें आशीर्वाद दिया। फिर शत्रुघ्न भाई लक्ष्मण को प्रणाम करके बोले, “भैया, आप जाकर वहाँ सब से भेंट कर लें। तक तक मैं यहाँ कुटिया पर रहूँगा, ताकि कोई वन्य जीव आकर उत्पात न करे।” 

कुछ ही देर में लक्ष्मण वहाँ आए, जहाँ भरत जी तथा सभी परिजन आदि थे। वे गुरुदेव वसिष्ठ, तीनों माताओं और समस्त परिजनों से बड़े आदर से मिले। 

इसी बीच गुरुदेव वसिष्ठ ने राम को राजा दशरथ की मृत्यु का समाचार दिया। सुनकर उनके दुख की सीमा न रही। शोकमग्न होकर बोले, “अरे, इतना कुछ हो गया और मुझे आज पता चल रहा है। हाय, कैसा अभागा पुत्र हूँ मैं!” 

उन्हें वनगमन के समय दशरथ की वह मार्मिक वेदना और ‘हे राम, हे राम’ कहते हुए निःशब्द रुदन याद आ गया, जिससे वे अवाक्‌ से रह गए थे। फिर जब माता कौशल्या और सभी लोगों ने बताया कि राजा अंतिम क्षणों में एकदम कातर होकर बार-बार उन्हें पुकारते हुए गए, तो उनकी आँखों से धरोधार आँसू बहने लगे। 

“हा पिता, मैं कैसा अभागा पुत्र हूँ कि अंतिम क्षणों में आपसे मिल भी न सका! मेरे जीवन की यह कैसी दारुण विडंबना है . . . मैं तो अच्छे पुत्र का भी धर्म नहीं निभा पाया!” कहते हुए उनका गला भर आया और रुलाई छूट पड़ी। 

साफ़ लग रहा था, कि ख़ुद को सँभालने के लिए उन्हें बहुत प्रयत्न करना पड़ रहा है। नहीं तो शायद वे फूट-फूटकर रो पड़ते। 

किसी तरह गुरुदेव वसिष्ठ और माता कौशल्या ने उन्हें समझाया और धीरज दिया। 

राम के साथ-साथ सभी प्रेम से राजा दशरथ को याद कर रहे थे। उनकी सरलता, निश्छल प्रेम, करुणा और दयालुता की घटनाएँ याद कर-करके सभी भावमग्न हो उठते। तभी एकाएक राम को अपने अबोध बचपन के नटखट प्रसंग याद आ गए। वे जब छोटे थे, तो अपनी चंचल क्रीड़ाओं से कई बार पिता को कितना तंग करते थे। पिता गोदी में लेना चाहते तो छिटककर दूर जा भागते। फिर कितनी मनुहार करने पर वे पिता की गोद में आकर बैठते, और उनके साथ एक ही थाली में भोजन करने लगते। 

उस समय राजा दशरथ की आँखों में जो प्रेम झलकता, वाणी में जो मीठी पुलक आ जाती, उसे वे क्या कभी भूल सकते हैं? 

याद करते हुए राम को लगा, जैसे वे फिर से एक छोटे बालक में बदल गए हैं और राजा दशरथ ने बड़े दुलार के साथ उन्हें छाती से लगा लिया है। 

बड़े होने पर भी राजा दशरथ का वह भावुक प्रेम और दुलार गया कहाँ। अभी कुछ दिन पहले की ही तो बात है। उनके राजतिलक का समाचार देते हुए, राजा दशरथ की आँखों में कैसा अनोखा वात्सल्य उमड़ पड़ा था, हृदय गद्‌गद्‌। वाणी में जैसे प्रेम लिपटा चला आता हो . . .! 

राम को लगा, कि वे कभी उसे भूल नहीं पाएँगे। 

सब लोग कुछ देर राम के चेहरे पर आते-जाते भावों को देखते रहे। उनकी उदासी जैसे बिन कहे, सब कह रही थी। माता कौशल्या ने बड़े प्यार से पुत्र के सिर पर हाथ फेरकर उन्हें धीरज बँधाया। फिर तीनों रानियाँ और गुरु वसिष्ठ समेत कुछ परिवारी जन राम के साथ चल पड़े, ताकि सीता जी से मिल लें। 

चित्रकूट के मोहक प्राकृतिक वातावरण में बनी राम और सीता जी की सुंदर कुटिया पास ही थी। उनके वहाँ पहुँचने पर, सीता ने बड़े आदर के साथ गुरुदेव वसिष्ठ और तीनों माताओं को चरण स्पर्श करके, बैठने के लिए साफ़-सुथरे आसन दिए। सभी ने प्रेम से भरकर उन्हें सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद दिया। फिर सीता जी सभी परिजनों से बड़े आदर से मिलीं और स्नेह भरे वचनों से सबका स्वागत किया। 

तीनों रानियों ने अत्यंत साधारण वस्त्रों में अलंकार विहीन सीता को देखा, तो उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। पर सीता जी ने मुस्कुराते हुए कहा, “आप लोग किसी तरह की चिंता न करें। मैं यहाँ हर तरह से सुखी हूँ। वन में किसी तरह का कोई कष्ट नहीं है, बल्कि इतने बड़े-बड़े तेजस्वी ऋषि-मुनियों से मिलना हो जाता है कि लगता है, जीवन धन्य हो गया। फिर लक्ष्मण जैसे प्यारे देवर साथ हैं। वे दौड़-दौड़कर सारे काम कर देते हैं। इसलिए यहाँ किसी तरह का कोई कष्ट नहीं है।” 

तब तीनों माताओं ने मन में धीरज रखकर सीता जी की सुंदर कुटिया देखी, जिसमें प्रेम, सादगी और सरलता की छाप थी। 

माता कौशल्या ने कहा, “सीता, वन में भी तुम्हारी इस छोटी सी कुटिया में स्वर्ग जैसा सुख रहे। मैं बस, यही आशीर्वाद देती हूँ।” 

माता सुमित्रा और कैकेयी भी देर तक सीता के सिर पर हाथ फेरकर असीसें देती रहीं। 

कैकेयी इस समय बिल्कुल करुणा की मूर्ति लग रही थी। वह देर तक सीता को छाती से लगाकर, दुलारती रही। सीता बोली, “आप सब लोग इस कुटिया पर आए। मैं धन्य हो गई। यह कुटिया भी धन्य हो गई।” 

कुछ देर बाद गुरुदेव वसिष्ठ, तीनों माताएँ और सभी परिजन वहाँ से चलने लगे, तो प्रभु राम और सीता जी ने फिर से सबको प्रणाम किया। 

थोड़ी देर में गुरुदेव वसिष्ठ, तीनों रानियाँ और अन्य लोग चलकर वहीं आ गए, जहाँ अयोध्या से आए सभी लोग ठहरे हुए थे। 

♦    ♦    ♦

अगले दिन सुबह राम और सब लोगों ने गुरुवर वसिष्ठ के बताए हुए ढंग से पूरे विधि-विधान के साथ नदी के पवित्र जल से राजा दशरथ का तर्पण किया। उनके उज्ज्वल चरित्र के साथ ही बड़ी भावुक स्मृतियाँ एक बार फिर सबको विकल करने लगीं। 

उस दिन किसी ने अन्न ग्रहण नहीं किया और फलाहार किया। पूरे दिन राजा दशरथ के उदार चरित्र से जुड़ी एक से एक विलक्षण यादें ही सबके मन में उमड़ी-घुमड़ती रहीं। 

रात्रि विश्राम के बाद, प्रातःकाल होते ही सबने स्नान आदि किया। फिर गुरु वसिष्ठ जी ने राम और सभी भाइयों समेत तीनों रानियों और राज परिवार के लोगों को पास बुलाकर कहा, “राजा दशरथ के जाने के बाद अयोध्या अभी तक राजविहीन है। यह अच्छा नहीं है। अयोध्या का राज सिंहासन ख़ाली न रहे, हमें जल्दी ही इस बारे में विचार करना चाहिए।” 

फिर उन्होंने राम की ओर देखते हुए कहा, “हे राम, राज परिवार में सभी की सम्मति है कि राजा दशरथ तो अब रहे नहीं। तुम उनके बड़े पुत्र हो, हर तरह से समर्थ और योग्य हो। अयोध्या की सारी प्रजा भी तुम्हें बहुत चाहती हैं। तो यह राजपद तुम्हें सँभाल लेना चाहिए। इससे अयोध्या की प्रजा और राज परिवार के लोग, विशेषकर स्त्रियाँ चिंतामुक्त हो जाएँगी। अयोध्या में कोई शासक नहीं है, इसलिए सभी अपने को असुरक्षित महसूस करते हैं। फिर ऐसे में सीमा पर शत्रुओं का भी भय है। वे अयोध्या की इस अनिश्चित घड़ी का लाभ उठा सकते हैं . . . ऐसे में तुम्हें वापस अयोध्या ले जाने के लिए ही भरत समेत हम सब लोग आए हैं।” 

इस पर रामचंद्र जी ने बड़ी ही विनय के साथ कहा, “गुरुवर, मैं आपकी चिंता समझ रहा हूँ। सभी माताओं और सम्मान्य जनों की भी . . . पर आप तो जानते ही हैं कि रघुकुल की सदा-सदा से यही रीति चलती आई है कि चाहे प्राण चले जाएँ, पर वचन भंग नहीं होना चाहिए। मैंने पिता को उनकी आज्ञा का पालन करने और चौदह वर्ष के वनवास का वचन दिया है। अब अगर उस वचन को तोड़कर मैं अयोध्या लौट चलूँ तो इस शरीर को थोड़ा आराम भले ही मिल जाए, पर मेरी अंतरात्मा मुझे कभी क्षमा नहीं करेगी। आप ही बताएँ गुरुदेव, ऐसा कलंकित जीवन लेकर जीना क्या अच्छा होगा? उलटा सब लोग मुझे महा पातकी और भीरु कहेंगे। ऐसा जीवन जीकर मैं क्या करूँगा? जबकि वन में मुझे कोई संकट नहीं है और मैं बड़ी प्रसन्नता से यहाँ जीवन जी रहा हूँ।” 

फिर एक क्षण रुककर उन्होंने आगे कहा, “राजा दशरथ ने हम सबके प्यारे भरत जी को यह राज सिंहासन सौंपा है। वे इस पर बैठेंगे तो हम सभी को बड़ी ख़ुशी होगी। और सबसे अधिक मुझे। इसलिए कि भरत मुझे सबसे अधिक प्रिय हैं और वे भी मुझसे बहुत प्रेम करते हैं। वे हर तरह से इस सिंहासन पर बैठने के लिए योग्य और समर्थ भी हैं। मुझे विश्वास है कि भरत जी के राजपद सँभाल लेने पर, अयोध्या पूरी तरह सनाथ और सुरक्षित हो जाएगी। साथ ही, प्रजा को भी बड़ा सुख, आनंद और न्याय मिलेगा।” 

इस पर भरत जी ने बड़ी विनम्रता से दोनों हाथ जोड़ दिए। फिर सभा पर एक नज़र डाली। उनके चेहरे पर गहरा दुख और पीड़ा थी। लग रहा था, वे ख़ुद को सँभालने की कोशिश कर रहे हैं। 

कुछ देर तक वे इसी द्वंद्व में घिरे रहे कि क्या कहें, क्या नहीं। फिर किसी तरह मन को स्थिर करके, झिझकते हुए बोले, “इतने बड़े लोगों के बीच कुछ भी कहते हुए मुझे बड़ी लज्जा आ रही है। आप लोग कृपया छोटा समझकर मेरी ढिठाई को क्षमा कर दें। पर मैं बड़ी विनय से इतना अवश्य कहना चाहता हूँ कि अयोध्या के राज सिंहासन पर बैठने का अधिकार बड़े भैया राम का था, और वह उनका ही रहेगा। भैया मुझसे बहुत प्रेम करते हैं, इसलिए मुझे आशा है कि वे मेरी बात को नहीं टालेंगे, और हम सबके साथ अयोध्या लौट चलेंगे . . . 

“अगर उनके मन में यह बात है कि इससे पिता को दिया गया वचन पूरा न होगा। तो मैं उन्हें आश्वस्त करता हूँ कि वे अयोध्या लौट चलें। चौदह वर्ष पूरे होने में जितनी अवधि शेष है, उसमें मैं भाई लक्ष्मण के साथ वनवास पूरा करूँगा। राम राजपद सँभाल लें। वे ही इसके लिए सर्वाधिक उपयुक्त हैं। उनके अलावा कोई और अयोध्या के राज सिंहासन पर बैठे, यह न तो शोभा देगा, और न अयोध्या की प्रजा ही इसे स्वीकार करेगी।” 

लेकिन रामचंद्र जी फिर भी इसके लिए तैयार नहीं हुए। बोले, “मैं समझता हूँ, पिता ने भरत को राजगद्दी दी है, तो उनकी इच्छा पूरी करना उनका कर्त्तव्य है। नीति और विवेक भी यही कहते हैं। भरत मुझे प्राणों से अधिक प्रिय हैं। इसलिए स्वयं मेरे लिए इससे बड़ा सुख कुछ और नहीं है। इसमें सभी राजमाताओं की भी सम्मति है कि वे पुत्र धर्म का पालन करें। भरत अयोध्या का शासन सँभालेंगे तो राज्य की धन-संपदा, वैभव और रानियों की भी रक्षा हो सकेगी। इसलिए उन्हें इसमें विलंब नहीं करना चाहिए।” 

सुनकर सभी की निगाहें भरत जी की ओर मुड़ गईं। तब भरत ने विनीत भाव से कहा, “भैया, तब मेरा एक अनुरोध आप मान लें। आप अपनी चरण पादुकाएँ मुझे दे दें। वही आपकी निशानी के रूप में राज सिंहासन पर रखी जाएँगी। मैं आपके आज्ञापालक के रूप में अयोध्या के ही निकट किसी स्थान पर, सादा वेश में रहते हुए शासन का ज़िम्मा सँभालूँगा। अयोध्या का राजपद आपका है, और आपसे ज़्यादा कोई इसका अधिकारी नहीं है। आपकी ये चरण पादुकाएँ राज सिंहासन पर रखकर, मैं आपकी इच्छानुसार और आपके सुंदर आदर्शों के अनुसार राज्य की रक्षा करूँगा।” 

फिर एक पल रुककर उन्होंने बड़े ही दुख और पीड़ा से थरथराते स्वर में कहा, “भैया, आपकी आज्ञा मुझे शिरोधार्य है . . . पर मेरा भी एक अनुरोध है, जिसे आपको मानना पड़ेगा, नहीं तो आपका भरत आपको नहीं मिल पाएगा। मैं आपका वनवास पूरा होने की अवधि गिनता रहूँगा। चौदह वर्ष पूरे होते ही आप आकर यह राज सिंहासन सँभाल लें। अगर इसमें एक दिन का भी विलंब हुआ, तो मैं अपने प्राण त्याग दूँगा।” 

सुनकर रामचंद्र जी ने उठकर भरत को गले से लगा लिया। बोले, “हाँ भाई, वनवास पूरा होते ही मैं वापस अयोध्या लौट आऊँगा। इसमें एक दिन का भी विलंब नहीं होगा। मैं यह वचन देता हूँ।” 

और फिर, रामचंद्र जी से विदा लेकर, उनकी चरण पादुकाएँ सिर पर रखे हुए, सभी परिजनों और अयोध्या वासियों समेत भरत वापस अयोध्या की और चल दिए। पर उनका मन तो अभी राम के ही चरणों की वंदना कर रहा था। 
 

6 टिप्पणियाँ

  • पूरी कहानी पढ़ी। करुण-रस की नदी में आद्यंत बहता रहा। बार-बार मन भीगता रहा। भरत के दूध के कटोरे जैसे पवित्र चरित्र का इतना भावपूर्ण, सुंंदर और संवेदना के बारीक तारों को झंकृत करनेवाला चित्रांकन शायद ही विश्व-साहित्य में अन्यत्र कहीं मिले। मैथिलीशरण गुप्त के 'साकेत' महाकाव्य की भी याद आ गई, जिसमें उन्होंने लिखा, 'युग-युग तक चलती रहे कठोर कहानी, रघकुल में भी थी एक अभागिन रानी।' इतनी भावविगलित कर देने वाली कालजयी कहानी की रचना के लिए हार्दिक बधाई, श्रद्धेय। - श्यामपलट पांडेय, अहमदाबाद

  • भावपूर्ण अभिव्यक्ति। पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे महाभारत के संजय की तरह हम सारा दृश्य स्वयं देख रहे हों। अति उत्तम। - शशिभूषण कौशिक, मोहाली, पंजाब

  • 19 Apr, 2025 07:21 PM

    बहुत सुन्दर इतनी मार्मिक है कि हृदय पसीज जाता है। आँखें नम हों जाती हैं। पूरी कहानी जैसे सामने रील की तरह चल रही हैं। पाठक लेखक के साथ पूरी तरह जुड़कर बहता हुआ चलता है। पाठक सोचता कि अरे, यह क्या हो गया, क्यों हो गया। भाव विभोर कर देने वाली, अपनी ही लय में चलने वाली लाजवाब कहानी है। साधुवाद, गुरु जी।

  • 19 Apr, 2025 06:50 PM

    पढ़कर वास्तव में हृदय आप्लावित हो गया। हार्दिक धन्यवाद और बधाई! आप राम नाम जब भी लिखते हैं, डूब जाते हैं भक्ति रस में और पाठकों को भी अभिसिंचित कर देते हैं। चमत्कार है आपकी लेखनी में बाबू‌ जी। - शैली

  • 18 Apr, 2025 08:32 PM

    रामकथा न जाने कितने रुपों में ,कितनी.विविधताओं के.साथ लिखी गई और पढी गई है किंतु छंदों,सीमाओं में बंधकर कुछ न कुछ अनकहा छूट जाता है या सृजन की राह अधूरी लगती है। डा प्रकाश मनु द्वारा लिखित मानस का मार्मिक प्रसंग जब भरत भगवान राम को मनाने के लिए वन को प्रस्थान करते हैं तब मानों पूरी अयोध्या ही नहीं माताए, भाई,परिजन,गुरु सभी के मन प्राण अपने आराध्य, प्रिय पुत्र, से मिलने के लिए निकल पढते हैं।मानों सरयू की पवित्र धारा सागर में समाहित होने के लिए चल पडी हो। यह आलेख *भरत चले राम को मनाने * इतनी सहज सरल प्रांजल शैली में लिखा गया जैसे पाठक स्वय उस क्षण को जी रहा हो,प्रत्यक्ष साकार हो रही हैं वह घटना। चित्र बनते.हैं,मानस पटल पर छा जाते हैं और देर तक वो.चित्र बिंब अपना प्रभाव छोडते है भरत एकाकी और असहाय से प्रतीत होते.हैं जब राम जैसे भाई का साथ नहीं ,अयोध्या की गलियां सुखद नहीं दर्द बांट रही हैं।हर व्यक्ति दुखी है हताश है अयोध्या में राम नहीं मानों समूची अयोध्या ही प्राणविहीन हो गई है। लेखक प्रकाश मनु सर की संवेदनशीलता भरत के दृढ़संकल्प और निष्ठा के साथ है और उनकी पीडा में साझीदार लगती है।भरत के संकल्प को जानकर सभी उनके साथ चलने के लिए तैयार हो गए। हर व्यक्ति खुद को अपराधी मान रहा है जैसे राम के वनवास का वही दोषी हो।यह अपराध बोध उनके स्नेह, वात्सल्य और ममत्व के कारण है।वन मार्ग में राम के मित्र निषादराज से भेंट होती है ,भरत को संपूर्ण समाज के साथ आते देखकर वो राम की सुरक्षा के लिए विचलित हो उठते हैं। और भरत की राम के प्रति स्नेह और भक्ति की भावनाओं से अभिभूत हो उठते हैं।यहां प्रकाश मनु सर के व्यक्तित्व में निहित कोमलता,स्नेह, करुणा का सहज प्रवाह उनकी भावधारा के साथ एकाकार होकर उनकी भाषा और शैली का ही एक अंग बन जाता है। आगे.मार्ग में ऋषि भारद्वाज, वाल्मकि से भेंट होती है,राम वनवास और भरत की कर्तव्य निष्ठा देखकर सभी उन्हें आशिर्वाद देते हैं।वाल्मकि ऋषि ने राम सीता और लक्ष्मण के चित्रकूट में होने की बात बताई। अब नजदीक आते ही राम की कुटिया भी दिखाई देने लगी ,सबका मन चंचल हो उठा ।राम वन के सौंदर्य की सीता से चर्चा करते हैं जहां चित्रकूट हरीतिमा और सघनता से भरा वन्य प्रदेश मन को मोहित करता है।राम कहते हैं--असल में वन कई बार दूर से भीषण लगता है। पर पास जाने पर उसकी रम्यता और अनुपम शोभा हमें मोह लेती है। फिर चित्रकूट तो जैसे हरियाली की छींटदार चादर ओढ़े हुए है। इसकी सुंदरता तन-मन को पुलकित करती है।” सीता भी पति का साथ देती हैं।वन कई भयावहता से प्रभावित हुए बिना वह उसके सौंदर्य से अभिभूत हैं।अब यही उनका घर.है।“चित्रकूट सचमुच बहुत सुंदर तीर्थस्थल है। यहाँ रहते हुए मन नहीं अघाता। लगता है, जैसे प्रकृति ने अपने द्वार हमारे लिए खोल दिए हैं। इसलिए हरियाली से लदे पेड़-पौधों और सुंदर-सुंदर फूलों की नित नई छवियाँ हमें देखने को मिलती हैं। प्रकृति का ऐसा रमणीक और मोहक रूप मैंने पहली बार यहाँ आकर ही देखा है।” यही इस आलेख की विशेषता और मर्मज्ञता है कि पात्रो की योग्यता और वर्ग के अनुरुप भाषा,सरल सहज, और प्रबुद्ध है।जैसे हम किसी चलचित्र को देख रहे हों,,पटल पर कोई कथा अभिव्यक्त हो रही है जिसके बिंब मन पर अंकित होते जा रहे हैं।भाव सलिल में बहते हुए भाव विह्वलता इस लेख का प्राण है। अनेक ऐसे प्रसंग भी हैं इस आलेख में जो कहीं नहीं मिलते.जब राम शत्रुघ्न को कुटिया में भेजकर लक्ष्मण को बुलवाते हैं ताकि वह भी अपने परिजनों से,माताओं से मिल सकें।सीता का अपने परिवार गुरुजनों, पुरवासियों से यथायोग्य मिलना,,महाराज दशरथ की मृत्यु का समाचार पाकर राम का व्यथित हो अपने बालपन को याद करना जब पिता के साथ बिताए पलों की स्मृतियां उन्हें भाव विह्वल बनाती हैं,जिन्हे पढते हुए पाठक का हृदय भी विचलित हो जाता है।यही तो साधारणीकरण है जब पाठक लेखक की.भावनाओ के साथ तादात्म्य स्थापित कर पाता है,दोनो की पीडा एक ही लगती है।भरत वन से वापस लौटने का अनुनय करते.हैं और राम पिता की आज्ञा उनका ,प्रण पूरा न कर पाने पर दोषी हो जाने की विवशता से बंधे हैं। अंतत:राम की चरण पादुका राज्य सिंहासन पर रखकर राजकाज करने का निर्णय लिया जाता है। यहां पर आदरणीय प्रकाश मनु सर अत्यंत सफल रहे हैं।इस सुंदर, भावप्रवण सारगर्भित आलेख के लिए बहुत बहुत बधाई, शुभ कामनाएं।सादर प्रणाम। पद्मा मिश्रा.जमशेदपुर

  • 13 Apr, 2025 11:11 PM

    भरत मिलाप का बहुत जीवंत वर्णन किया है आपने। मन भीग गया बाबूजी।

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