ख़ुद में खोया हुआ-सा एक भोला बच्चा और माँ की याद
प्रकाश मनु
माँ को याद करता हूँ तो सबसे पहले उनकी आँखें याद आती हैं। वे आँखें जिनमें एक बच्चे का-सा भोलापन था और जानने-समझने की अनवरत जिज्ञासा। इसीलिए हम अपने तईं कोई साधारण-सी बात भी कहते, तो माँ की उत्सुक आँखें फैल जातीं। थोड़ी देर तक अपने ‘सामान्य ज्ञान’ से वे उसे समझने की कोशिश करतीं और फिर अगले ही पल चकित स्वर में कह उठतीं, “हच्छा . . .!”
इसीलिए माँ थीं तो जीवन में कोई बनावट नहीं थी, जीवन में कोई जटिलता या असहजता नहीं थी। जीवन में कोई डर नहीं था। माँ माँ थीं तो आस्था का समंदर भी। जीवन वहाँ ठाठें मारता। कुछ अरसा पहले ‘कथादेश’ में गार्सीया गाब्रिएल मार्केस का इंटरव्यू पढ़ रहा था जिसका ख़ूबसूरत अनुवाद मंगलेश डबराल ने किया है। उसमें ख़ासकर स्त्रियों को लेकर उन्होंने कुछ अद्भुत बातें कही हैं। उन्हीं में से एक बात यह भी है कि ये स्त्रियाँ ही हैं जो जीवन को थामे रहती हैं। यह जीवन को थामे रहना क्या है और स्त्रियाँ यह काम कैसे करती हैं? इस पर ग़ौर करते हुए मुझे माँ की याद आई। कैसे एक बारीक़, बहुत बारीक़ और अदृश्य तार से उन्होंने हमारे पूरे घर को जोड़ा हुआ था और कैसे उस बारीक़ तार के न रहने पर बहुत कुछ तिनका-तिनका होकर बिखर गया! इसे याद करता हूँ तो फिर माँ का होना बहुत-बहुत याद आता है।
यों माँ को लेकर दुनिया की तमाम भाषाओं के साहित्य, ख़ासकर लोक साहित्य में कुछ कम नहीं कहा गया। लंबी दाढ़ी और ज़िंदादिली से भरपूर हमारे घुमंतू साहित्यकार सत्यार्थी जी अक्सर एक पुरानी कहावत दोहराया करते थे कि ईश्वर ने माँएँ बनाईं क्योंकि वह सब जगह उपस्थित नहीं रह सकता था। मुझे लगता है कि माँ को लेकर इससे बड़ी कोई बात शायद ही कही जा सकती हो।
सच तो यह है कि मुझे ईश्वर पर भी भरोसा इसलिए है कि मैंने माँ को देखा है। लगता है, जिसने मेरी माँ को बनाया, वह सचमुच कुछ न कुछ होगा! वह सचमुच महान होगा! जीवन में विश्वास, आस्था, भद्रता और न जाने कौन-कौन सी अच्छी चीज़ें इसीलिए हैं क्योंकि माँ है और उसका होना हमारे पूरे जीवन में व्याप्त है, उसके न रहने पर भी!
सत्यार्थी जी के जिस विचार की ऊपर चर्चा की है, वह उनके उपन्यास ‘दूध-गाछ’ का तो केंद्रीय विचार या ‘सिगनेचर ट्यून’ ही है। एक और दिलचस्प बात यह है कि ‘दूध-गाछ’ उपन्यास में दूध-गाछ माँ के लिए ही आया है, यानी कि माँ जो ‘दूध का पेड़’ भी है—पूरी दुनिया को तृप्त करने के लिए उगा दूध का दरख़्त! सचमुच यह कल्पना ही अनोखी है।
इस दुनिया में माँ का होना भी तो सचमुच ऐसा ही अनोखा है। माँ न होती तो यह दुनिया न इतनी ख़ूबसूरत होती, न अनोखी और न इतने बारीक़, परत-दर-परत रहस्यों से भरी!
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माँ की छवियाँ बचपन की उन निहायत मासूम और धुँधभरी परतों तक फैली हैं जब मुझे अपने और आसपास की शायद ही कोई चेतना रही हो। लेकिन माँ का होना तब भी महसूस होता था। माँ की बातें तब भी अच्छी लगती थीं। शायद इसलिए कि ये बातें सिर्फ़ बातें नहीं थीं। ये वो प्यारा-सा तिनकों का घोंसला थीं जिसमें सिर छिपाए-छिपाए, आसपास के ढेर सारे जंजालों से बचता हुआ, मैं धीरे-धीरे बड़ा हो रहा था।
माँ जब पड़ोसिनों और सहेलियों से बतिया रही होती थीं, तो मुझे अच्छी तरह याद है, एक नन्हे, उत्सुक बच्चे के रूप में मेरा घुसकर उस मंडली में बैठना और ग़ौर से माँ की बातें सुनना। कुक्कू बचपन में मेरा घरेलू नाम था। प्यार से पुकारने का नाम। तो माँ और सहेलियाँ कई बार कटाक्षपूर्ण हँसी हँसते हुए बरज भी दिया करती थीं कि “ओए कुक्कू! तू की सुण रेआ एँ? तैंनूँ की समझ आणगियाँ ए औरताँ दीयाँ गल्लाँ!” (अरे कुक्कू! तू क्या सुन रहा है? तुझको क्या समझ में आएँगी ये औरतों की बातें!”)
और वे बातें क्या हुआ करती थीं, “नीं ओ शणिए, जद मेरा कुक्कू होया सी . . .!” (अरी ओ शाहनी, जिस समय मेरे कुक्कू का जन्म हुआ था) या ‘जिस वेले मेरा श्याम होया . . .!” (जिस समय मेरे श्याम का जन्म हुआ) या मेरा ‘मेरा किशन, जगन हाले छोटा-ज्या सी . . .!” (मेरा किशन और जगन अभी छोटा सा ही था) और तब क्या-क्या संकट आए या क्या-क्या आश्चर्यजनक चीज़ें घटित हुईं, वही सब उन अकथ कहानियों का सार था, जिन्हें ‘औरतों की बातें’ कहा जाता था। उन्हीं के बारे में माँ अपनी साथिन स्त्रियों से घंटों तक बतियाती रह सकती थीं ओर गरमी की लंबी-लंबी दोपहरियाँ और शामें सुख-दुख की इन सहज-सहज बातों के जाल में उलझकर कैसे उड़न-छू हो जाती थीं, यह आज भी मुझे किसी आश्चर्य की नाईं लगता है!
और इतनी ही आश्चर्य की बात यह भी लगती है कि मुझ एक नन्हे बच्चे को इन बातों में ऐसी क्या अकूत दिलचस्पी थी कि बातें समझ में आएँ या न आएँ, मगर वह ख़त्म होने में न आती थी। और मैं आँखें फैलाए हुए एकटक उन बातों को सुनता, बल्कि पीता था। मेरे लिए दिलचस्पी की बात यही थी कि वे माँ की बातें थीं! पर माँ और उनकी सहेलियाँ जब इतने ग़ौर से मुझे बातें सुनते देखती थीं, तो हँसकर टोक दिया करती थीं, “चल-चल परे हट! तू की सुण रेआ एँ!” (चलो-चलो, दूर हटो। तुम क्या सुन रहे हो! )
बहुत छुटपन की स्मृति। माँ सिर पर कपड़ों की बड़ी-सी गठरी रखे, तालाब पर कपड़े धोने जा रही हैं और मैं साथ हूँ। माँ तालाब के किनारे पड़े पत्थर पर रगड़-रगड़कर कपड़े धो रही हैं और मैं खेतों की मेड़ पर उगे पीले-पीले सुंदर वनफूल तोड़ने और आसपास दौड़ लगाने में मगन हूँ। उन दिनों जानता कम था, लेकिन चीज़ें महसूस ख़ूब होती थीं। मसलन सर्दियों की गुनगुनी धूप में दौड़ने-भागने और खेलने का सुख क्या है, यह ख़ूब अच्छी तरह महसूस करता था और प्रकृति की अंतरंग सुंदरता को भी! मन तो उत्साह से भरा हुआ-सा पुकारता था, “अरे वाह, तालाब के आसपास के खेतों में सरसों क्या ख़ूब लहक-लहककर उगी है! और सरसों के पीले-पीले फूल ही नहीं, उसकी गंध भी चारों ओर एक झालर-सी रचकर, आसपास के पूरे माहौल को मानो एक अद्भुत उत्सव में ढाल रही है।”
याद है, उस दिन कोई चार बरस की उम्र में मैंने प्रकृति के अनंत विस्तार की अनुभूति की थी। लगा, मेरा हृदय फैलकर बहुत बड़ा हो गया है और उसमें बहुत कुछ समाता चला जा रहा है। यहाँ तक कि पूरा का पूरा तालाब, आसपास के लह-लह करते खेत और पीले फूलों वाली जंगली झाड़ियाँ भी। यह एक शिशु के मन में जनमी शायद पहली नन्ही कविता थी।
एक और पुराना लेकिन गहरा-गहरा-सा चित्र। माँ एक डोलू में गुड़ के शीरे में डुबोई हुई डोइयाँ (आटे की छोटी-छोटी टिकड़ियाँ) लिए, तालाब के पास ‘गुग्गा’ यानी ‘गोगा पीर’ या फिर कहिए ग्राम देवता को पूजने जा रही हैं और मैं साथ हूँ। पूजा के बाद गुड़ के शीरे में डूबी हुई डोइयाँ मिलती हैं और मुझे लगता है, इससे अधिक स्वादिष्ट चीज़ दुनिया में कोई और नहीं है। मैं माँगकर और डोइयाँ लेता हूँ। माँ मेरी कटोरी में ढेर सारा शीरा और दो-एक डोइयाँ रख देती है और मुझे लगता है, दुनिया सचमुच कितनी ख़ूबसूरत और स्वाद भरी है!
याद आता है, माँ नहाते समय कुछ पंक्तियाँ दोहराया करती थीं। इनमें ये दो पंक्तियाँ ज़रूर होती थीं, “गंगे मल-मल नहाइए, स्त्री दा जनम कदी न पाइए . . .!” माँ बार-बार इन पंक्तियों को दोहराती थीं, मानो इन्हें बार-बार दोहराना ही उन्हें किसी ‘मुक्ति आश्वासन’ की तरह लगता हो। स्त्री का जीवन कष्टकारी है, पर उसे बदलने के बजाय बस प्रार्थना करनी चाहिए, शायद यही बस माँ के हिस्से का ‘सच’ रहा होगा! इस सच की सीमा हो सकती है पर इस सच को साकार करने की माँ की साधना की कोई सीमा नहीं थी।
यों माँ का जीवन दुख, निराशा या किसी क़िस्म की हीनता से मलिन न था। वे कमेरी थीं और हर दिन उत्साह से नए दिन का स्वागत करती थीं। याद आती है कोई आधी सदी से भी अधिक पुरानी सर्दियों की सुबह। हम लोग तब छोटे-छोटे थे। बड़ी भोर में उठकर, अभी हम बिस्तर पर ही होते थे कि माँ किसी चिड़िया की तरह धीमे-धीमे गुन-गुन करके एक गीत छेड़ देती थीं। और हम अनजाने ही उसे दोहराने लगते थे। सचमुच बड़ी मिठास थी इन गीत में और यह एक मीठी और उत्साह भरी भोर के स्वागत-गान सा लगता था—
उठ जाग सवेरे!
गुराँ दा ध्यान,
गंगा इश्नान।
हथ विच लोटा,
मोढे लोई,
राम जी दी गउआँसीता दी रसोई . . .!
(उठो, बड़ी सुबह-सवेरे उठ जाओ। गुरुओं का ध्यान और गंगा-स्नान करो। हाथ में लोटा और कंधे पर दुशाला। राम जी गउएँ चरा रहे हैं और माँ सीता रसोई तैयार कर रही हैं।)
गीत क्या था, मानो हिंदुस्तानी दांपत्य का आदर्श सामने रखा गया था। एक कर्मलीन जीवन का सीधा-सादा चित्र। . . . काफ़ी लंबा गीत था। धीरे-धीरे बड़ी आरामदारी की-सी सहज, मंथर लय में आगे बढ़ता हुआ। और इसी में आगे चलकर एक पंक्ति आती थी जो मुझे बड़ी प्यारी लगती थी, “चिड़ियाँ वी चुनगुन लाया ई, उठ, जाग सवेरे!!” (चिड़ियों ने भी चुनगुन का राग छेड़ दिया है। बड़ी सुबह-सवेरे उठ जाओ।)
इसी तरह याद पड़ता है कि गायत्री मंत्र भी मुझे पहले-पहल माँ से ही सुनने को मिला। बल्कि सर्दियों की एक सुबह, माँ ने अपनी मीठी, खरखरी आवाज़ में मुझे यह मंत्र अच्छी तरह याद करा दिया था। आज जब कि नाना जी के असाधारण व्यक्तित्व के बारे में कश्मीरी भाईसाहब से काफ़ी कुछ सुन चुका हूँ, मैं कल्पना कर सकता हूँ कि मेरे विद्वान नाना जी ने कैसे माँ को यह गायत्री मंत्र याद कराया होगा! और जब माँ से वही मंत्र किसी जादुई प्रभाव से मुझ तक आ गया तो मानो माँ के रूप में नाना जी ही वह मंत्र मुझे याद करा रहे थे!
जीवन के विकास का यही तो शाश्वत मंत्र है। और यह जितना सीधा-सरल है, उतना ही रहस्यमय भी!
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इसी तरह माँ की सुनाई कहानियों की भी मुझे ख़ूब अच्छी तरह याद है। इनमें एक तो ‘अधकू’ वाली कहानी थी, जिसका मुझ पर ख़ासा असर पड़ा था। हालाँकि यह कहानी शायद जस की तस मुझे याद नहीं रह गई। इस कहानी को मैंने थोड़ा अलग रूप देकर अपनी बाल कहानियों की पुस्तक ‘इक्यावन बाल कहानियाँ’ में शामिल किया है। पिछले दिनों कश्मीरी भाईसाहब मेरी बाल कहानियों की किताब पढ़कर इस कहानी की चर्चा कर रहे थे, तो एकाएक उनकी बड़े ज़ोरों की हँसी छूट गई। ज़ाहिर है, इस कहानी को पढ़ते-पढ़ते वे भी मेरी तरह अपने बचपन की सीढ़ियाँ उतरकर बचपन के जादुई संसार में चले गए होंगे! शायद यही असर होता है, बचपन में माँ से सुनी हुई कहानियाँ का।
माँ से सुनी कहानियों में एक थी सात कोठरियों वाली कहानी। राजकुमार से कहा जाता है कि वह इस महल की छह कोठरियाँ देख ले, लेकिन सातवीं नहीं। वरना वह मुसीबतों में फँस जाएगा। राजकुमार छह कोठरियाँ देखता है, लेकिन फिर सातवीं कोठरी देखने से भी ख़ुद को रोक नहीं पाता। होने दो जो होता है, पर एक बार तो मैं देखकर रहूँगा कि क्या है सातवीं कोठरी में? वह सोचता है। ज़िद ठान लेता है। और सचमुच सातवीं कोठरी में प्रवेश के साथ ही मुश्किलें एक के बाद एक भयंकर आँधी, पानी, तूफ़ान की तरह—या फिर एक भीषण पंजों वाले गिद्ध की तरह उस पर टूट पड़ती हैं। पर वह हिम्मत नहीं हारता, बहादुरी से उन्हें झेलता है और आख़िर एक दिन सफलता के ऊँचे शिखर पर खड़ा हुआ नज़र आता है . . .।
माँ से यह कहानी सुनते हुए लगता था कि चाहे जो हो, मैं भी सातवीं कोठरी में जाकर देखूँगा कि वहाँ भला कौन-सा रहस्य छिपा हुआ है। फिर चाहे जिऊँ या मरूँ! तब चाहे न सोचा हो, पर अब कई बार मैं हैरान होकर सोचता हूँ—तो क्या साहित्य की दुनिया में आना वही सातवीं कोठरी में झाँकना है जिसमें रहस्य ही रहस्य भरे पड़े हैं और अपनी तरह के ‘ख़तरे’ भी? मैं हैरानी से सोचता हूँ और बड़े ताज्जुब से भर जाता हूँ कि एक ही कहानी अगर वह सचमुच जी लगाकर सुनी-सुनाई गई हो, तो कितने लोगों के लिए कितने भिन्न आशय खोल सकती है। बचपन में सुनी कहानियों की शायद यही ताक़त भी है। हमारी माँएँ शायद इसी तरह सदियों से बुराई पर अच्छाई की विजय का मंत्र हमें पिलाती रही हैं! भले ही इसका महत्त्व बहुत ‘अंग्रेजी’ पढ़े समाजविज्ञानियों को अभी ठीक-ठीक समझ में न आया हो!
और मेरे लिए तो यह अतिरिक्त सुख की तरह है कि माँ अपनी सुनाई कहानियों में छिपी हुई हैं। जब चाहा, वहाँ जाकर उन्हें देख और सुन लिया . . .।
माँ की सुनाई कहानियों में दो-एक कहानियाँ ऐसी भी थीं जिनके ज़रिए माँ शायद अपने माँ होने या स्त्री होने की तकलीफ़ को हमारे साथ बाँटना चाहती थीं या कहिए कि एक क़िस्म का पाठ पढ़ाना चाहती थीं। इनमें एक कहानी में बेटा जो अब अच्छा कमाने-धमाने लगा है, बड़ा होने पर माँ के त्याग का मोल चुकाना चाहता है। वह बार-बार पूछता है, “बोल न माँ, मैं तेरे लिए क्या लाऊँ?” माँ चुप रहती है। बहुत पूछने पर हँसकर कह देती है, “रहने दे बेटा, क्यों तकलीफ़ झेलता है?” बेटे के बहुत ज़िद करने पर माँ आख़िरकार कहती है कि अच्छा बेटा, समय आने पर कहूँगी।
उसी रात को बेटा सोया तो माँ ने उसकी खाट पर लोटे से ज़रा-सा पानी डाल दिया। लड़का हड़बड़ाकर उठा। पूछा, “माँ . . . माँ, यह क्या?” माँ बोली, “पता नहीं बेटा, मुझसे कैसे गिर गया। ख़ैर, तू परेशान न हो, सो जा!”
लड़के को नींद आई ही थी कि माँ ने फिर पानी गिरा दिया। अब तो वह बुरी तरह खीज उठा। चिल्लाकर बोला, “माँ, आज तू मुझे सोने देगी कि नहीं?” इस पर माँ ने बड़े ममतालु स्वर में कहा, “चैन से सो बेटे, पर एक बात याद रख। जब तू छोटा था तो रात में न जाने कितनी बार तू पेशाब करता था। पर मैं तुझे सूखे में सुलाती थी, ख़ुद गीले में सो जाती थी। कभी ग़ुस्सा नहीं आता था। पर तू तो बेटा, दो बार में ही परेशान हो गया। तो भला माँ का ऋण तू कैसे उतारेगा?”
माँ की कई कहानियों में अद्भुत फ़ैंटेसी भी थी। मसलन माँ की एक कहानी हज़ारों साल पहले की उस आश्चर्यजनक ‘अदिम’ दुनिया की कहानी थी जिसमें लोग अपने सिर को हँड़िया की तरह उतारकर गोद में रख लेते थे ओर जूएँ बीनते थे। ख़ासकर स्त्रियों को चैन से जूएँ बीनने का अवसर मिल जाता था। धूप में बैठे-बैठे मज़े में जूँएँ बीनते रहो।
लेकिन फिर एक गड़बड़झाला हो गया। सचमुच अजीब गड़बड़झाला! हुआ यह है कि एक स्त्री ऐसा करते हुए, घरेलू व्यस्तताओं में अपने सिर को कहीं इधर-उधर रखकर भूल गई और दूसरे कामों में लग गई। पीछे से बंदर आया और उसके सिर को उठा ले गया। अब वह स्त्री यहाँ-वहाँ अपना सिर ढूँढ़ रही है, मगर सिर है कि मिल ही नहीं रहा। फिर पता चला कि सिर तो सामने पेड़ पर बैठे हुए बंदर के पास है जो बहुत मिन्नतें करने के बाद बमुश्किल उसे देने को राज़ी हुआ। उस दिन के बाद से भगवान ने अपनी सृष्टि में तब्दीली की और तब से सबके सिर पक्के जुड़े होने लगे . . .। माँ की भोली दुनिया का एक भोला सच!
अलबत्ता यह हँडिय़ा की तरह सिर को गोदी में रखकर जूएँ बीनने की कल्पना ऐसी मज़ेदार थी कि हँसते-हँसते हम लोटपोट हो जाते। और आज भी जब इस कल्पना के बारे में सोचता हूँ, तो हँसी आए बग़ैर नहीं रहती।
इसी तरह एक मज़ेदार कहानी थी ‘गिठमुठिए’ की। कल्पना का एक और अश्चर्यलोक! क्योंकि यह कहानी भी एक अद्भुत दुनिया में रहने वाले अद्भुत प्राणियों की थी। गिठमुठिए माने ऐसे लोग जो खड़े हों तो एक ‘गिठ’ यानी बालिस्त भर के हों ओर बैठें तो एक मुट्ठी भर के! ऐसे लोग पाताल से निकलकर धरती पर आते थे और फिर क्या-क्या न हो जाता था! मगर एक बात तय थी कि ये कोई बुरे लोग न थे। भले प्राणी थे जो मुसीबत में धरती के वासियों की मदद करने आते थे।
बाद में मैंने देशी-विदेशी परीकथाओं में बौनों के बारे में तमाम क़िस्से-कहानियाँ पढ़ीं। बहुत-सी तो ग्रिम बंधुओं की परीकथाओं में भी हैं। बौनों को लेकर लिखी गई ज़्यादातर परीकथाएँ बड़ी दिलचस्प है पर उनमें एक भी गिठमुठिए जैसी मज़ेदार नहीं है। हो सकता है, माँ ने भी यह कहानी अपनी माँ से बचपन में सुनी हो। इस लिहाज़ से परीकथाओं की भारतीय कल्पना भी एकदम नई तो नहीं है। और उसमें अगर लोककथाओं को भी जोड़ लिया जाए, तब तो यह परंपरा सदियों पुरानी ठहरती है।
ऐसा नहीं कि माँ की कहानियों में यथार्थ न हो, पर यथार्थ की उस अभिव्यक्ति में फ़ैंटेसी घुली-मिली रहती थी। मुझे याद पड़ता है, माँ की एक हैरतअंगेज़ कहानी ‘भूख’ को लेकर थी और इसे वे गांधारी से जोड़ती थीं। महाभारत युद्ध में गांधारी के सौ पुत्र मारे गए थे। शोक के मारे उसका बुरा हाल था। गांधारी के बहुत रोने-पीटने के बाद, कृष्ण ने उसे दिलासा देते हुए शोक का परित्याग करने और कुछ खा लेने के लिए कहा। पर गांधारी नहीं मानी। आख़िर कृष्ण समझा-बुझाकर चले गए। युद्ध के मैदान में अकेली गांधारी रह गई। आधी रात के समय गांधरी को ज़ोर से भूख लगी। रोते-रोते उसका ध्यान सामने झाड़ पर लगे एक बेर पर गया। उसने सोचा, “रोने के लिए अभी रात पड़ी है। एक बेर ही खा लूँ तो थोड़ी जान आए।” सोचकर उसने बेर को पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया तो बेर ऊँचा हो गया।
जब किसी भी तरह से बेर पकड़ाई में नहीं आया तो गांधरी ने सोचा, “एक बेटे के शव पर चढ़कर पकड़ूँ तो शायद बेर हाथ में आ जाएगा।”
उसे शर्म भी लगी, पर अब तक भूख बहुत तेज़ लग चुकी थी। फिर उसने सोचा, “रात का समय है। मुझे भला कौन देखेगा?” तो बेटे के शव को घसीटकर वह बेर के नीचे लाई। उस पर खड़े होकर बेर को पकड़ना चाहा, पर बेर तब तक और ऊपर उठ चुका था। ऐसे ही एक-एक कर गांधारी ने एक के ऊपर एक अपने सौ बेटों के शवों को रखा और बेर को पकड़ने की कोशिश की। बेर तो पकड़ में नहीं आया, पर सामने से कृष्ण आते नज़र आ गए। पास आकर बोले, “गांधारी, यह क्या?”
गांधारी शर्मिंदा होकर बोली, “कृष्ण, तुम ठीक कहते थे। जब तक जीना है, इस भूख से तो जीत पाना मुश्किल है। कोई रोग हो, शोक हो, वह अपनी जगह है, पर भूख तो इस देह का धर्म है। वह रोग-शोक कुछ नहीं देखती!”
यह कहानी मैंने बहुत खोजी, पर महाभारत के किसी नए-पुराने संस्करण में नहीं है। किसी पुराण वग़ैरह में भी नहीं . . .। पर यह कहानी माँ के लोकवेद में थी, और लोकवेद की कहानियाँ ऐसी होती हैं कि पढ़कर आप भीतर तक हिल जाएँ!
इसी बात को, याद आया, लोकमाता यानी सत्यार्थी जी की पत्नी अपने निराले अंदाज़ में कहती थीं, “मौतों भुक्ख बुरी, राती खादी सवेरे फेर खड़ी . . .!” (भूख तो मृत्यु से भी बुरी है। रात उसे खाया, सुबह वह फिर सामने आकर खड़ी हो गई!) स्त्रियाँ शायद जीवन के रोज़मर्रा के इस यथार्थ को कहीं अधिक गहराई से जानती हैं। इसीलिए सत्यार्थी जी जब झुँझलाकर उन्हें टोकते थे कि तुम क्या हर वक़्त रोटी और पैसे की चर्चा लेकर बैठ जाती हो तो वे कहती थीं, “एक दिन भी बग़ैर खाए गुज़ारा चलता है क्या? और अगर जेब में बस के लिए किराए के लिए रुपया न हो, तो क्या कोई बस का कंडक्टर आपको बस में भी बैठने देगा? फिर कहाँ से होगी आपकी घुमक्कड़ी, यार-दोस्तों से मिलना, साहित्य के क़िस्से-कहानियाँ और गपशप . . .?”
माँ पैसे से बहुत ज़्यादा आक्रांत तो न थीं—और धन के मामले में लालची वे हरगिज़ न थीं, पर इतना तो ज़रूर जानती थीं कि पैसे और रोटी से बहुत दूर जाकर ज़िन्दगी चल नहीं सकती। वे धार्मिक स्वभाव की थीं। उनका धार्मिक होना उन्हें पैसे के लोभ से बचाता था, पर पैसे से विरक्ति भी वहाँ न थी। कह सकते हैं कि पैसा दान देकर अपने धन को ‘सकारथ’ कर लेने वाला सहज ‘धार्मिकपना’ उनमें था। यानी पैसा सही रीति से कमाओ और कमाने के बाद उसका एक हिस्सा उन्हें ज़रूर दो, जो सच्चे धार्मिक गुरु, साधु-संन्यासी या फिर ज़रूरतमंद लोग हैं। यह था पैसे को लेकर माँ के हिस्से का सच, जिसे लेकर उनके मन में कोई दुविधा अंत तक नहीं थी। पैसे की हाय-हाय या उसके लिए बावला होने की यहाँ दरकार न थी। बल्कि ऐसा लोभ या उतावलापन यहाँ बुरा काम था।
याद पड़ता है, जगन भाई साहब जो इंजीनियर हैं और शिकोहाबाद में हिंद लैंप्स बल्ब फ़ैक्ट्री में डिप्टी जनरल मैनेजर थे, उनकी शुरूआती दौर में ही एर्नाकुलम में किसी बड़ी कंपनी में ऊँचे पद पर नियुक्ति हो गई थी। सब कुछ तय था। बस, उस प्रस्ताव को मंज़ूर करने के बाद सामान बाँधा जाना और प्रस्थान करना था। उन्होंने शायद रेलवे रिज़र्वेशन भी करा लिया था। पर माँ बेचैन थीं। उन्होंने जगन भाईसाहब से पूछा, “यहाँ तुम्हें किस तरह की परेशानी है, जिसके लिए घर से इतनी दूर जाना तुम्हें ज़रूरी लग रहा है?”
भाईसाहब के पास इस सवाल का जवाब नहीं था। और वहाँ तनखा ज़्यादा मिलेगी या फलाँ-ढिकाँ मिलेगा, यह माँ के निकट इतना निरर्थक था कि उन्हें समझाया ही नहीं जा सकता था। यहाँ उनका एक ही सिद्धांत था कि कमाओ, लेकिन संतोष भी रखना सीखो। बहुत पैसा आ जाएगा, तो क्या हो जाएगा?
आज के वक़्त में माँ की बात शायद उतनी प्रासंगिक न रही हो, या वैसा न समझा जाए। उनके पोते-पोतियाँ और नाती-धेवते आज दूर देशों में हैं। पर माँ ने हमेशा यही चाहा कि पास रहो, एक-दूसरे के साथ सुख-दुख बाँटो और अनावश्यक लालसाएँ छोड़ दो। संतोष भरा जीवन जियो।
मैं कह नहीं सकता कि माँ की बातें आज की बदली हुई दुनिया में कितनी सही हैं, कितनी नहीं। पर मैं इतना ज़रूर कहूँगा कि माँ एकदम ग़लत भी नहीं थीं। आज बहुतेरे लोगों की पूरी ज़िन्दगी एक अंधी भागदौड़ और हाय-हाय में बीतती है। उससे सचमुच हासिल क्या होता है? घर वीरान हो रहे हैं और वहाँ की चहकन ख़त्म हो रही है। ख़ाली-ख़ाली घर और उनमें रह रहे दो-एक अशक्त जन। पूरे घर में बजता सन्नाटा, इसलिए कि जिनमें ज़िन्दगी और ज़िंदादिली है, वे तो परदेस कूच कर गए। बहुत-बहुत धन्यवाद मोबाइल, इंटरनेट और वेब कैमरे को, जिसने थोड़ा-बहुत ही सही, पर घर के अहसास को बचाया हुआ है। हालाँकि कभी-कभी मैं सोचता हूँ, आदमी को ज़िन्दगी जीने के लिए आख़िर कितना चाहिए? और फिर जो कुछ हासिल करने के लिए हम बाहर जाते हैं, उसके बदले खोते कितना हैं—इसका भी क्या कोई हिसाब लगाया जा सकता है?
मुझे याद पड़ता है, एक बार पूर्व और पश्चिम के जीने और सोच-विचार के ढंग की भिन्नताओं की चर्चा करते हुए, स्वामी विवेकानंद एक बड़े फ़र्क़ की ओर निवेदिता का ध्यान खींचा था। उन्होंने कहा था, “सनातनियों का सारा आदर्श समर्पण है, तुम्हारा (पाश्चात्य) आदर्श संघर्ष है। फलतः हम लोग जीवन का आनंद ले सकते हैं, तुम लोग कदापि नहीं। तुम हमेशा अपनी दशा को और अच्छे में परिवर्तित करने के लिए सचेष्ट रहते हो, और उसके करोड़वें अंश मात्र का परिवर्तन संपन्न होने से पहले ही मर जाते हो . . .।”
आज जबकि पश्चिमी ढंग का रहन-सहन ही हम पर तारी हो गया है, तब माँ को और उनके समय को याद करना कहीं न कहीं हिंदुस्तानियत की जड़ों की तलाश भी लगता है मुझे। और यह समझ में आता है कि कितना कुछ हमने खो दिया है, और जो कुछ खोया, वह कितना मूल्यवान था।
हाँ, याद आया कि माँ जिनकी उँगली पकड़कर मैंने दुनिया देखी, वे अनपढ़ थीं, पर वे गीता पढ़ लेती थीं। गुरुमुखी लिपि में लिखी हुई गीता, जिसकी भाषा पंजाबी नहीं, हिंदी थी। शायद नाना जी ने प्रयत्न करके उन्हें गीता पढ़ना सिखा दिया था। मोटे-मोटे अक्षरों में लिखी हुई गीता माँ उँगली रख-रखकर पढ़ती थीं थोड़े ऊँचे सुर में—“तब कृष्ण ने कहा, हे अर्जुन, मेरी बात ध्यान लगाकर सुन।” कुछ-कुछ उसी तरह, जैसे कच्ची या पहली जमात के बच्चे स्वर खींच-खींचकर अपना पाठ पढ़ते हैं। पर इससे उनके बोलने में एक अजब लय और आकर्षण पैदा हो जाता था। बचपन में मैंने माँ को अक्सर इसी तरह सुबह-सुबह गीता पाठ करते देखा।
बाद में या तो वह गीता की प्रति जीर्ण हो गई या कोई और वजह रही होगी, जिससे माँ का गीता-पाठ कम हो गया। लेकिन उनका धार्मिक भाव तो ज़रा भी कम नहीं हुआ। और वे व्रत पर व्रत इतने रखती थीं कि किसी-किसी हफ़्ते तो मैंने उन्हें सात में से चार-चार, पाँच-पाँच दिन व्रत रखते देखा! कुछ तो नियमित रखे जाने वाले व्रत थे और कुछ बीच-बीच में आने वाले विशेष व्रत। उन्हें शायद यही संस्कार मिला था कि स्त्री को परिवार की हित-कामना के लिए ख़ुद को गला देना चाहिए। व्रत केवल व्रत नहीं था, उनकी तपस्या थी। और माँ ही नहीं, उस पीढ़ी की ज़्यादातर स्त्रियों की शायद यही जीवन आस्था थी। उन्हें लगता था, अपने परिवार के हित के लिए वे शायद इसी तरह ख़ुद को होम कर सकती हैं। और यही ईश्वर को भी प्रसन्न रखने का साधन था उनके हाथ में, जिससे दुनिया में संतोष और सुख-शांति रहे।
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यहीं बचपन के उन तिथि-त्योहारों की बात की जा सकती है जिनमें माँ को नित नए रूपों में देखने का अवसर मिलता था। इनमें एक ‘नवान्न’ का पर्व था, जिसमें नए अन्न की रोटी या शायद पराँठा बनता था। उसमें घी डालकर चूरी बना ली जाती। अब माँ आसपास सब बेटों को बिठा लेती थी। हाथ में चूरी का एक ग्रास लिए, एक-एक कर हम सब भाइयों से पूछती थी, “चंदर, मैं नवाँ अन्न चखाँ? . . . श्याम, मैं नवाँ अन्न चखाँ? . . . जगन, मैं नवाँ अन्न चखाँ? . . . सतपाल, मैं नवाँ अन्न चखाँ?”
हम लोग ‘हाँ’ कहते पर कभी-कभी माँ को तंग करने के लिए ‘न’ भी बोल देते थे। तो फिर माँ को फिर से यही सब सिलसिला शुरू करना पड़ता ओर यों माँ उस चूरी का एक-एक ग्रास खातीं और माँ के खाने के बाद फिर हमें भी वही सब मिलता। मगर इस पर्व की ख़ासियत यह थी कि माँ भी हमारे साथ एकदम बच्ची बन जाती थीं और हम कितना भी तंग करें, उनके चेहरे पर ज़रा भी शिकन नहीं आती थी। हम हँसते थे और माँ भी हमारे साथ बिल्कुल बच्ची बनकर हँसती रहती थीं। जैसे यह भी खो-खो जैसा कोई खेल हो।
इसी तरह नवरात्रों के समय माँ का उत्साह देखते ही बनता था। माँ ‘खेतरी’ (घर के आले में जौ बोना, प्रतीकात्मक खेती) बड़े शौक़ से बीजती थीं। उसके लिए श्याम भैया ख़ासकर खेतों से मिट्टी लाते थे। माँ ने खेतरी बोने के लिए एक अलग आला बनवा रखा था। जौ बोए जाते थे और जिस बरस माँ की यह छोटी सी खेती ख़ूब ज़ोरों से लहलहाती, माँ की ख़ुशी और उमंग का क्या ठिकाना! सुबह कथा होती, आरती होती। उसमें माँ देवी माँ की बहुत-सी आरतियाँ और भजन गातीं। पर मुझे उनमें एक ही पसंद था जिसमें माँ के साथ-साथ दोहराना मुझे अच्छा लगता, “नीं मैया, तेरा काँगड़ा घर चंगा . . .!”
इस आरती में आगे एक पंक्ति आती थी जो मुझे बड़ी पसंद थी, “नंगी-नंगी पैरीं राजा अकबर वी आया, सोने दा छतर चढ़ंदा . . .!” (नंगे पैरों राजा अकबर भी यहाँ आया और उसने सोने का छत्र चढ़ाया। अरी माँ, तेरा काँगड़ा वाला घर बड़ा अच्छा है।) इस आरती की हर पंक्ति के तुकांत को मैं इतना रस लेकर और इतने मज़े में, बल्कि कहना चाहिए, थोड़े शरारती अंदाज़ में दोहराता कि गाते-गाते माँ की हँसी छूट जाती और संग-संग मैं भी ज़ोरों से हँस पड़ता। यानी भक्ति में भी थोड़ा खिलंदड़ापन आ जाता और उसकी गंभीरता थोड़ी कम हो जाती। पर मेरी उदार विचारों की माँ को इसमें कोई आपत्ति न थी।
इसी तरह होई या अहोई भी माँ का प्रिय त्योहार था। मेरा ख़्याल है, उत्तर प्रदेश में इसे अहोई माता का त्योहार कहते हैं और पंजाब में होई का। और यह संतानों की कल्याण कामना का त्योहार है! बहरहाल उस दिन भी गुड़ का शीरा और डोइयाँ बनतीं। हम बच्चे कुंडा खड़काते हुए ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते, “होई . . . होई . . . होई, लै आपणा दुध-पुत्तर, दे मेरी डोई . . .!” फिर माँ के पुकारने पर हम दौड़कर जाते और वहाँ गुड़ के शीरे में डूबी डोइयाँ खाने के बाद, लौटकर फिर चिल्लाना शुरू कर देते, “होई . . . होई . . . होई . . . लै आपणा दुध-पुत्तर दे मेरी डोई . . .!”
दुध-पुत्तर क्या है, यह भला कौन जानता था? हाँ, गुड़ में डूबी आटे की डोइयाँ घर भर में—और साथ ही हमारे दिलों में भी आनंद और उल्लास भर देतीं। खेल में लीन हम बच्चे तब शायद इन चीज़ों को ज़्यादा नहीं महसूस कर पाते थे। पर बच्चों के इस खेल के साथ ही घर भर में कैसा आनंद लहलहा उठता है, इसे वे स्त्रियाँ ख़ूब अच्छी तरह समझती थीं और उनके ख़ुशी से दमकते चेहरों पर महसूस किया जा सकता था।
और करवा चौथ का तो नज़ारा ही कुछ और था। सुबह-सुबह बड़े अँधेरे ही ख़ासी चहल-पहल से हम बच्चों की नींद खुलती। उठकर देखते तो साथ वाले कमरे में बढ़िया-बढ़िया पकवानों से सजी थालियाँ लिए भाभियाँ। ख़ूब हँसती, बातें करती और साथ-साथ थोड़ा-बहुत खाती हुई। उनके बीच माँ, मानो किसी राजमहिषी के-से गौरव से भरी हुई नज़र आतीं।
मैं अचानक वहाँ पहुँचकर मज़ाक़ करते हुए कहता, “अच्छा, तो चोरी-चोरी खाया जा रहा है!” इस पर भाभियों सहित माँ ख़ूब ज़ोरों से हँसतीं। और कहतीं, “अच्छा चल तू भी खा ले . . .!”
शाम को करवाचौथ व्रत की कथा होती तो आस-पड़ोस की स्त्रियाँ सज-धजकर हमारे घर आतीं और माँ की कथा शुरू होती। उस कथा की कोई और बात तो मुझे याद नहीं। बस, एक लाइन ज़रूर याद है, जो मुझे तब अपनी विचित्र ध्वन्यात्मकता के कारण बहुत आकर्षित करती थी कि “जेहड़ी राणी हाई, ओह गोली हो गई ते जेहड़ी गोली हाई, ओह राणी हो गई . . .!” (यानी जो रानी थी, वह दासी बन गई और जो दासी थी, वह रानी बन बैठी!) इन शब्दों में पता नहीं ‘ध्वन्यात्मकता’ का कैसा जादू है कि आज भी इन्हें दोहराते ही मानो माँ और घेरे में बैठी स्त्रियों का पूरा ‘कथा-संसार’ भीतर-बाहर से मेरे आगे खुल पड़ता है।
कुछ और भी छोटे-मोटे व्रत-त्योहार थे। इनमें एक ठेठ देशी क़िस्म का त्योहार बासी खाने का भी था जिसे ‘बेवड़े’ या ऐसा ही कुछ कहा जाता था। मेरा ख़्याल है, उसी को कहीं-कहीं ‘बासड़े’ भी कहते हैं और यह होली के कुछ ही रोज़ बाद आता है। जिस दिन त्योहार होता, उससे एक रात पहले आलू के ढेर सारे पराँठे बनाकर रख लिए जाते और अगले दिन हम वही खाते। उस दिन चूल्हा सुलगाने और गरम खाने की मनाही थी। क्यों भला? यानी इसके पीछे असली बात या विश्वास क्या था? इसे मैं आज तक नहीं जान पाया। हालाँकि एक मित्र ने पिछले दिनों बड़े आत्मविश्वास के साथ समझाया, कि “भाई, बेवड़े पर्व में एक प्रतीकार्थ है कि आज तुम बासी खाना खा लो, पर यह बासी खाना खाने का आख़िरी दिन है। इसके बाद बासी खाना बंद। आगे से ऋतु-परिवर्तन के कारण ताज़ा बनाकर ही खाना चाहिए।” यह व्याख्या सही है या ग़लत, नहीं कह सकता। मगर इतनी बात तय है कि पुरानी बहुत-सी चीज़ों का प्रतीकात्मक मतलब तो है ही। उनसे नए और पुराने वक़्तों की तुलना करने का आनंद भी हमारे हाथ आ जाता है।
बात त्योहारों की चल रही थी। उसी सिलसिले में याद आया, शुरू में शिवरात्रि भी हमारे परिवार में ख़ूब ज़ोर-शोर से मनाई जाती थी। शाम के समय आँगन में उपलों की आग सुलगाई जाती। उसके चारों ओर पानी छिड़कते हुए हम लोग परिक्रमा करते। माँ उस आँच पर मोटे-मोटे ‘रोट’ सेकतीं। नमकीन भी, मीठे भी। और वे कई दिनों तक मीठी और नमकीन लस्सी के साथ खाए जाते। मुझे याद है, मीठी लस्सी के साथ नमकीन रोट और नमकीन लस्सी के साथ मीठे रोट खाना मुझे बहुत अच्छा लगता था . . .। यहीं यह दर्ज करना भी शायद अप्रासंगिक नहीं कि माँ शिवभक्त थीं और उन्होंने ही मेरा नाम शिवचंद्र प्रकाश रखा था। हालाँकि इतना लंबा नाम चला नहीं और स्कूल में एडमिशन के समय हैड मास्टर साहब ने ख़ुद-ब-ख़ुद छोटा करके उसे चंद्रप्रकाश बना दिया। पर यह बात मन में पुलक भरती है कि इस नाम में माँ की छुअन है और मेरे नाम में जुड़ा चंद्र असल में शिव के मस्तक में जड़ा चंद्रमा है।
त्योहार के दिन माँ की बनाई चीज़ों और खाने में पता नहीं कैसे, अनोखा रस आ जाता। यों माँ कोई असाधारण पाक-कलाशास्त्री न थीं, पर उनकी बनाई चीज़ों में बड़ा रस होता था। माँ के बनाए खाने की बात करें तो माँ आलू और मूली के पराँठे ख़ूब अच्छे बनाती थीं। मक्के और बाजरे की ख़ूब घी से तर रोटी भी। उसे हम लोग रोटी नहीं, ‘ढोढा’ कहा करते थे। यानी मक्के का ढोढा, बाजरे का ढोढा . . . वगैरह-वगैरह। सर्दी के दिनों में ऐसी चीज़ें हमारे लिए किसी अनमोल नेमत से कम न थीं और इनके आगे पाँच तारा होटल तो छोड़िए, स्वर्ग के पकवान भी हम छोड़ सकते थे। और सर्दियों में माँ के हाथ की बनाई गुड़ और आटे की पिन्नियों के लिए तो आज भी तरसता हूँ। दुनिया की अच्छी से अच्छी मिठाई से वे मुझे ज़्यादा स्वाद भरी लगती थीं।
[5]
माँ ने याद नहीं पड़ता कि कभी पीटा हो। बल्कि पीटना तो दूर, याद नहीं पड़ता कि माँ ने कभी हलके से भी डाँटा हो। माँ को न जाने कैसा यह अजब-सा विश्वास था अपनी संतानों को लेकर कि मेरे बेटे या बेटियाँ ग़लत नहीं हो सकते! या वे कभी कुछ ग़लत कर ही नहीं सकते . . .।
एक छोटी-सी घटना याद आ रही है—और वह होली के मौक़े की है। हुआ यह कि होली को मुश्किल से एक-दो दिन बाक़ी थे। हम सब बच्चे अपनी-अपनी पिचकारियाँ लिए मोरचों पर डटे थे। हमारे घर के सामने खुला मैदान है, जिसके चारों सिरों से चार गलियाँ निकलती हैं। यानी कोई कहीं से भी इनमें से निकलकर आ सकता था या जा सकता था। और हमारी चौकन्नी निगाहें इन चारों छोरों पर थीं। इतने में एक सज्जन ड्राईक्लीन किए हुए बढ़िया कोट-पैंट, टाई पहने हुए निकले। रोब-रुतबे और घमंड की साकार मूर्ति! अब उन पर कौन रंग डाले? सभी बच्चे डर रहे थे तो मैंने बीड़ा उठाया। मैं उस छोटे-से बालदल का नायक जो ठहरा! मैं चुपके-चुपके उनके पीछे गया और फिर एकाएक अपनी पिचकारी से उन्हें छींटमछींट कर दिया।
पता लगा तो वे कोट-पेंटधारी महाशय ग़ुस्से में फनफनाते हुए मेरे पीछे दौड़े। मैं तब छोटा-सा था। दुबला-पतला और एकदम चुस्त। लिहाज़ा एकाएक उछलकर घर के अंदर! अब मैं सुरक्षित घेरे में था। वे सज्जन भी तेज़ी से घर में आना चाहते थे कि हमारे चौंतरे पर धड़ाम से गिरे . . .। चबूतरे पर काफ़ी गीला रंग बिखरा हुआ था। लिहाज़ा जितना हमने लगाया, उससे ज़्यादा रंग ख़ुद-ब-ख़ुद लग गया।
अब तो उनका ग़ुस्सा और भी बुलंद। अदर आकर उन्होंने शिकायत की। माँ ने कहा, “मैं डाँटूँगी इन्हें, पर ये तो छोटे बच्चे हैं। बेटा, तू बता, तूने कौन-सी समझदारी की कि होली से एक दिन पहले यह सूट पहनकर चला आया? . . . तू तो इनसे भी गया-बीता है!”
सुनकर उनका पारा उतरा, शर्मिंदा हुए। बाद में माँ ने हमें समझाया कि ऐसा नहीं करते। पर दूसरों के आगे अपने बच्चों को किसी शेरनी की तरह वे बचाती थीं! और धीमे से सीख भी देती जातीं कि देखो, मुझे तुम्हारी वजह से कहीं नीचा न देखना पड़े!
अलबत्ता माँ का यह विश्वास जाने-अनजाने हमें बहुत ताक़त, बहुत बल देता था और आज भी देता है। लगता था कि माँ का चाहे हम पर यह भोला विश्वास ही है, पर हमें इस विश्वास को झूठा नहीं होने देना, ख़ुद को भटकने नहीं देना।
एक दिलचस्प बात यह है कि माँ पिता से बड़ी थीं, शायद कुछ महीने। मुझे शुरू-शुरू में जब यह पता चला तो बड़ी हैरानी हुई थी। आज भी इसे याद करता हूँ, तो चकित होता हूँ। पिता सौ बरस पूरे करके गए, 19 जून 2009 को। इस लिहाज़ से उनका विवाह कोई पचासी बरस पहले—यानी सन् 1925 में हुआ होगा। उस समय ऐसे विवाह का होना जिसमें वधू की उम्र दूल्हे से अधिक हो, चाहे वह कुछ महीने ही अधिक क्यों न हो, सचमुच बड़ी चीज़ थी।
माँ बड़ी थीं तो अपने बड़प्पन का एकाध बार इस्तेमाल कर भी लेती थीं। यों तो पिता बहुत बोलते, बहुत ग़ुस्सा करते थे और माँ अक्सर चुप रहती थीं या बहुत कम जवाब दिया करती थीं। पर माँ पिता से दबती या डरती हरगिज़ न थीं। और कभी-कभी तो जब उनका धैर्य जवाब दे जाता था, उलटा सुना दिया करती थीं, “बस-बस . . .! हुण बस कर।” और पिता की बोलती एकदम बंद!
ऐसा मुझे याद पड़ता है कि अक्सर तभी हुआ करता था जब या तो पिता घर के काम में अनुचित दख़लंदाज़ी करते थे या फिर उस समय जब पिता हम भाई-बहनों पर नाराज़ होकर हमारे बारे में कोई छोटी बात कहते थे। घर माँ का साम्राज्य था जहाँ की वे ‘राजरानी’ थीं। उसमें पिता की दख़लंदाज़ी वे बिल्कुल सहन नहीं करती थीं। इसी तरह माँ सब सह सकती थीं, पर अपनी संतानों की हेठी बिल्कुल बरदाश्त नहीं कर सकती थीं। आख़िर हम उनकी सर्वोत्कृष्ट रचना थे और सचमुच एक बड़ी तपस्या के साथ उन्होंने हमें पाला था।
एक बार तो अपने बड़े बेटे की मदद लेकर माँ ने पिता को ग़लत राह जाने से रोका था। हमारे घर के वे बहुत दुखभरे दिन थे। इसलिए कि पिता ने शिकोहाबाद आकर ख़ासा कमाया था, पर इस कमाई के साथ ही उनमें वे व्यसन भी आने लगे थे जो अति समृद्धि से जनमते हैं। वे सट्टा खेलने लगे थे और सट्टे में उस समय के हिसाब से भी कई हज़ार रुपए गँवा चुके थे। इससे घर की आर्थिक हालत तो डगमगाई थी, साथ ही व्यापार के लिए भी एक अलग मुसीबत खड़ी हो गई। इतने बरसों में बनाई विश्वसनीयता पर अलग उँगलियाँ उठ रही थीं। माँ को किसी न किसी तरह इस सबकी जानकारी हो ही जाती थी। पिता को इस व्यसन से विरत करने की उनकी कोशिशें सफल नहीं हो पा रही थीं। रोकने पर पिता जी बार-बार वायदा करते कि आगे न खेलूँगा, पर एक बार जो चस्का लगा, वह छूटता न था। जैसे जुआरी की सोच होती है कि इस बार सारी पिछली हारों का बदला चुका लूँगा, वही उनकी थी। इस चक्कर में वे गड्ढे में धँसते ही जाते थे।
माँ को लगा कि अब हालत यह है कि कुछ न किया गया, तो घर दिवालिया हो जाएगा। उन्होंने बड़े बेटे बलराज को बुलवाया। सारी बात बताई। वे अलग घर में रहते थे, पर माँ-पिता के श्रवणकुमार पूत थे। माँ के बुलाने पर दौड़े-दौड़े घर आए। और मुझे याद है, उस समय का उनका क्रोध से तमतमाया चेहरा। लाल, एकदम लाल। पिता की बाँह पकड़कर वे मंदिर के आगे ले गए। बोले, “मेरी क़सम खाओ कि आगे से कभी सट्टा न खेलोगे। खेलोगे तो मेरा मरा मुँह देखोगे!”
ओह, उस समय की पिता की बेचारगी। उन्होंने सिर झुकाकर लगभग आर्त्त होकर क़सम खाई। माँ जीतीं। बड़े भाई जीते और सचमुच पिता का सट्टा खेलना हमेशा-हमेशा के लिए ख़त्म!
आज भी मुझे यह सोचकर ताज्जुब होता है कि माँ के पास वह कौन-सी अंतर्दृष्टि थी कि ख़ुद अनपढ़ होते हुए भी वे अपनी संतानों के बारे में सब कुछ जानती थीं। श्याम भैया की बीमारी के दौरान माँ का रात-रात भर जागना और परेशान होना मुझे अच्छी तरह याद है। श्याम भैया अपनी बीमारी की वजह से कुछ ज़्यादा ही ग़ुस्से में आ जाते थे और उसे सँभाल नहीं पाते थे। इसलिए माँ श्याम भैया के पास आने से तो बचती थीं, पर दूर रहते हुए भी एक-एक चीज़ का हिसाब रखती थीं। श्याम अब तक नहाया या नहीं? श्याम ने खाना खा लिया या नहीं? एक-एक छोटी से छोटी बात की चिंता। श्याम ने खाना नहीं खाया तो वे कैसे खा लें! रोटी का कौर उनके गले से उतरता न था।
और कोई आश्चर्य की बात नहीं कि माँ के गुज़रने के कोई दो-ढाई साल के अंदर श्याम भैया भी चले गए! माँ 15 फरवरी 1988 को गुज़रीं, श्याम भैया कोई ढाई बरस बाद सितंबर 1990 में। मानो माँ के बाद उन्हें समझने और सँभालने वाला कोई न रहा हो। यह कम आश्चर्य की बात नहीं कि श्याम भैया उसी दिन गुज़रे, जिस दिन माँ का श्राद्ध था। यानी वह द्वादशी का दिन था।
और यही नहीं, माँ के बाद हमारा पूरा घर ही क़रीब-क़रीब बिखर गया। माँ ने ममता की किस बारीक़ डोरी से पूरे घर को लपेटकर एकजुट किया हुआ था, यह उनके जाने के बाद और अधिक चकित करता है। एक फ़र्क़ यह भी है कि माँ के लिए उनकी संतानों में कोई छोटा-बड़ा नहीं था। उनके बेटों में अगर कोई दुनियावी रूप से कमज़ोर और शक्तिशाली है तो वे उनमें भेदभाव न करती थीं। बल्कि जो कमज़ोर है, उसके प्रति उनकी ममता कहीं अधिक निसार होती थी। जबकि पिता के साथ उलटा था। वे हमेशा शक्तिशाली के साथ थे और कमज़ोर के लिए उनके मन में एक अव्यक्त चिढ़-सी थी कि यह अपने आप को ठीक-ठाक क्यों नहीं कर लेता? और ठीक-ठाक माने? सफल, अग्रणी। पैसा, इज़्ज़त, नाम और दुनियादारी में सबसे आगे।
यही माँ और पिता के हम भाइयों को लेकर देखे गए सपनों का फ़र्क़ है। पिता का सपना था कि उनके बेटे बड़े बनें, इतने बड़े कि दुनिया उन्हें सलाम करे। और माँ का सपना था कि उनके बेटे भले और उदार बनें। इतने भले और उदार कि लोग मन ही मन उनकी सराहना करें कि बेटे हों तो ऐसे!
मुझे याद है, जब कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में मैं शोध कर रहा था, माँ मेरे बारे में सोच-सोचकर चिंतित रहा करती थीं। तब फोन वग़ैरह की तो ज़्यादा सुविधा नहीं थी। इसलिए अगर उन्हें रात को मेरे बारे में कोई बुरा सपना भी आ गया तो अगले दिन ही छोटे भाई सत से या कृष्ण भाईसाहब से चिट्ठी लिखवाती थीं। और एक बार तो उन्होंने कृष्ण भाईसाहब और भाभी जी को बड़ी ज़िद करके कुरुक्षेत्र भेजा था कि “जाओ, चंदर से मिलकर आओ। मुझे बहुत चिंता हो रही है। उसके बारे में बड़ा बुरा सपना आया है!”
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माँ स्वाभिमानिनी थीं और पिता की तरह बोलती भले ही न थीं, पर पिता से डरती हरगिज़ न थीं, बल्कि एकाध दफ़ा तो मैंने उलटा भी देखा है। बात तब की है, जब हमारा मकान बन रहा था और हम कुछ दिनोंं के लिए कलकत्ते वालों के मकान में किराए पर रहे थे। सर्दियों की एक सुबह। कंबल ओढ़े बीड़ी पी रहे पिता। और तभी जब वे बीड़ी पीकर राख झाड़ रहे थे, थोड़ी-सी गरम राख कंबल पर गिरी। पिता ने झटपट राख हटाई तो देखा, कंबल थोड़ा-सा जल गया है। नया कंबल था। माँ तब कुछ दिनोंं के लिए बाहर गई थीं—देहरादून या कहीं और। पिता ने जैसे हम बच्चों से डरकर कहा, “तुम्हारी माँ आएँगी तो ग़ुस्सा करेंगी कि नया कंबल जला दिया!” और वे ख़ुद सूई-धागा लेकर कंबल रफ़ू करने में जुट गए।
और सचमुच, मेरे लिए यह हैरानी की बात है कि कोई उस कंबल का आधा इंच का टुकड़ा था जहाँ उन्होंने रफ़ू किया था, और बेहतरीन रफ़ू किया था। अलबत्ता इससे दो बातें मुझे पता चलीं। एक तो यह कि पिता जो भी काम करें, जमकर कर लेते हैं। और दूसरे यह कि जैसे माँ ‘तेरे पिता जी . . . तेरे पिता जी’ कहकर हमें डराती हैं, ऐसे ही पिता को भी माँ का डर हो सकता है। क्योंकि आख़िर तो घर की चीज़ों की वही सम्राज्ञी थीं।
और एक दिन तो अद्भुत था कि पिता रो रहे थे और माँ उन्हें सांत्वना दे रही थीं, धीरज बँधा रही थीं कि हो जाएगा, सब ठीक हो जाएगा। ईश्वर यहाँ तक साथ देता आया है तो अब भी क्यों न देगा! . . . प्रसंग यह था कि पिता सट्टा खेल-खेलकर आर्थिक रूप से दुर्बल हो चुके थे। फिर अब अनाज पर कंट्रोल लग गया था। शायद लालबहादुर शास्त्री या इंदिरा गाँधी का शुरूआती ज़माना था। पहले की तरह मुक्त व्यापार सम्भव नहीं था, बल्कि जीविका कमाना ही मुश्किल था। घर कैसे चले यह चिंता थी, क्योंकि चीज़ों की बहुत लिखत-पढ़त, एक-एक चीज़ का हिसाब मेंटेन करना और सरकारी इंस्पेक्टरों से निबटना उन्हें कठिन लगता था। पिता टूट गए थे, पर माँ को अपने भगवान पर भरोसा शायद कहीं अधिक था। वे पिता से कहीं अधिक बड़ी हो गई थीं और पिता को भरोसा दिला रही थीं कि जिस ईश्वर ने पैदा किया है, वही कोई इंतज़ाम करेगा। हम अपना काम करते जाएँ, बस! कष्ट किस पर नहीं आए? भीड़ाँ (विपत्तियाँ) किस पर नहीं पड़ीं? ध्रुव पर भी . . . प्रह्लाद पर भी! पर आख़िर तो भगवान ने सबकी मदद की न!
वाह रे स्त्रियों के धीरज, जिसके आगे मर्द कई बार बौने लगते हैं!
ऐसे ही मेरा एम.एस-सी. के बाद हिंदी से एम.ए. करने का निर्णय दुनियादारी के हिसाब से एकदम अटपटा था। मुझे याद है कि पूरा घर न सिर्फ़ मेरे विरोध में था, बल्कि मुझे कोस रहा था। पर तब भी मेरी अनपढ़ माँ ही थीं जो कुछ न समझती हुई भी मेरे साथ आ खड़ी हुई थीं। और उन्होंने कहा था, “ठीक है पुत्तर! तुझे जो ठीक लगता है, कर। तुझे किसी की चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। फ़ीस के पैसे मैं दूँगी, चाहे जहाँ से इंतज़ाम करूँ!”
कभी-कभी तो मुझे यहाँ तक लगता है कि कहीं माँ ने अपने अतिरिक्त लाड़ से हमें कमज़ोर तो नहीं कर दिया। कहीं ज़रा अपमान होते ही मैं मर्माहत हो उठता हूँ। क्या यह इसलिए तो नहीं कि माँ ने अपने कोमल प्यार और ममता के घेरे में बाँधकर हमें इतना बड़ा सुरक्षा-कवच दे दिया था कि वहाँ कोई दुख, कोई अभाव, कोई परेशानी झाँक ही न पाती थी। इसलिए हमें शायद इसकी आदत ही नहीं रही। लेकिन ज़िन्दगी तो सख़्त है, बहुत सख़्त। बहुत कस-कसकर मारती है और भिगो-भिगोकर मारती है। और कई बार तो यह मार वहाँ से आती है, जहाँ इसकी बिल्कुल कल्पना ही नहीं होती। अपनों के और-और चेहरे निकलकर आते हैं और हम एकबारगी भौचक्के रह जाते हैं। मगर ज़िन्दगी तो इसी का नाम है . . .। यह दीगर बात है कि जब तक माँ थीं, हमने इस तरह की चोटों को कभी महसूस ही नहीं किया।
याद पड़ता है, माँ मेरे दोस्तों को कितना लाड़ करती थीं! मेरे बाल मित्रों में अनिल हो या शेखर, उन्हें ये मेरे प्रतिरूप लगते थे और वे उन पर अपनी अजस्र ममता और प्यार लुटाया करती थीं। मेरे पीछे भी वे घर आते तो माँ घंटों उनसे बातें किया करती थीं। माँ की पंजाबी मिश्रित निहायत अटपटी हिंदी अनिल-शेखर को कम ही समझ में आती थी। पर माँ के प्यार का आवेग ऐसा था कि भाषा का संकट कोई संकट नहीं रह जाता था। माँ उनसे घंटों अविरल बतियाती रहतीं। और उन्हें ख़ूब खिला-पिताकर भेजतीं, तभी उन्हें चैन पड़ता। ऐसे ही एम.ए. की मेरी सहपाठिका कमला यादव और उनके पति मि. यादव से भी माँ बिल्कुल अपने बच्चों की तरह ही प्यार करती थीं।
एम.ए. की पढ़ाई के दिनों में ही मेरी एक सहपाठिका मुझसे पूछने और नोट्स लेने के लिए घर आती थी और घंटों बैठकर जाती थी। वह जब भी घर में आती, माँ और भाभियों से बड़े प्रेम से मिलकर जाती। उसके जाने के बाद भाभियाँ मज़ाक़ में कहतीं, “आज तेरी होने वाली बोट्टी आई सी!” इस पर सब ख़ूब हसँते, माँ भी और उन्हें ज़रा भी बुरा न लगता। मानो उन्हें पूरा विश्वास था कि उनका बेटा कहीं ग़लत हो ही नहीं सकता। अगर कोई बात उसके मन में होगी तो वह पहले उन्हें बताएगा।
इसी तरह मैं जब कुरुक्षेत्र में पढ़ता था तो माँ एक-एक दिन गिनते हुए, किस क़द्र बेकली से मेरा इंतज़ार करती थीं और छुट्टियों में घर आते ही कैसे बेकली से छाती से चिपका लेती थीं! आज भी आँखें बंद करूँ तो माँ का वह चेहरा डब-डब-डब करता आँखों के आगे आ जाता है।
सूर्यग्रहण के मेले पर माँ और पिता जी कुरुक्षेत्र आए थे। मैंने माँ को सुनीता से मिलवाया तो उन्होंने इशारों में पूछा कि क्या यही लड़की है जिसके बारे में तुमने चिट्ठी में लिखा था? मैंने बताया तो सुनीता के प्रति उनका प्यार जैसे बहने लगा . . . कि उनके बेटे की जो पसंद है, वह भला उनकी पसंद क्यों न हो और वह पसंद ख़राब या गड़बड़ तो हो ही नहीं सकती!
यहाँ तक कि कुरुक्षेत्र से वापस जाते समय वे मेरा हाथ सुनीता के हाथ में देकर गई थीं कि “बेटी, इसे तो किसी चीज़ का होश नहीं रहता। तुम इसका ख़्याल करना कि ढंग से कुछ खा-पी लिया करे, रोज़ कपड़े-अपड़े बदल ले . . . टाइम से बाल कटाता रहे!”
माँ को सिर्फ़ एक बात में परेशानी नज़र आ रही थी कि सुनीता ब्राह्मण परिवार की है। भला उससे पैर छुआकर वे पाप की भागी न होगी? बाद में उन्हें समझाया गया कि जात-पाँत का यह चक्कर आज कोई मतलब नहीं रखता, तो वे बड़ी आसानी से मान गईं। और सुनीता को उन्होंने हमेशा मुझसे अधिक चाहा।
कुछ कम संकट मेरे विवाह में न आए थे! सच तो यह है कि मेरे विवाह का क्षण मेरे लिए ही नहीं, मेरे पूरे परिवार के लिए अग्निपरीक्षा का क्षण था। निहायत अटपटी स्थितियाँ थीं और कुछ भी हो सकता था। यहाँ तक कि दूसरे किनारे पर मृत्यु मुझे और सुनीता को लीलने के लिए तैयार खड़ी थी। उस समय माँ ने अपने सारे पुराने विचारों को एक ओर धर, हमारे अंतरजातीय विवाह को न सिर्फ़ स्वीकार किया था, बल्कि बहुत खुले मन और उदारता से हमें आशीर्वाद भी दिया था। उन्होंने सुनीता को इस क़द्र प्यार-दुलार से बाँहों में भर लिया कि अंतत: पूरे घर को इसे स्वीकार करना ही पड़ा। वे क्षण मेरे लिए निस्संदेह जीने-मरने के क्षण थे और एक गाढ़े आतंक की लपेट में तो हम थे ही। तब माँ ने मानो अपने अंक में लेकर मुझे सब और से सुरक्षित कर दिया था।
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माँ का नाम उस समय के हिसाब से मुझे बड़ा सुंदर लगता है, भागसुधी। हिंदी में शायद इसे भाग्यसुधि कहा जाए। भाग्यसुधि तो सुंदर है ही, उसका तद्भव भागसुधी भी मेरे ख़्याल से कम सुंदर नहीं है। जैसे नाना जी ने अपनी बड़ी और लाड़ली बेटी के लिए बहुत सोचकर यह नाम ढूँढ़ निकाला हो। और नाम ही नहीं, नाना जी के व्यक्तित्व की छाप माँ में कई रूपों में नज़र आती थी। उनमें बड़प्पन, एक तरह की उदारता या देने का भाव कहीं अधिक था, पिता से भी अधिक! और यह चीज़ उनमें मैं समझता हूँ, नाना जी से आई थी।
नाना जी ज़मींदार थे और व्यक्तित्व और देह से भी काफ़ी भव्य। लंबा, ऊँचा क़द। लहीम-शहीम काया। घोड़ी पर चढ़कर दूर से आ रहे होते तो हल्ला मच जाता कि वो देखो, वो हकीम साहब आ रहे हैं! दूर-दूर के गाँवों तक उनकी धाक थी। लेकिन वे किसी से एक पैसा तक न लेते थे। यहाँ तक कि जिसके यहाँ इलाज करने जाते, उसके यहाँ पानी तक न पीते थे। आसपास के लोग इसीलिए उन्हें किसी देवता की तरह पूजते थे। मेरे बड़े भाई कश्मीरी भाईसाहब जिन्होंने नाना जी को नज़दीक से देखा था, अक्सर उनकी चर्चा करते हुए कुछ ज़्यादा ही भावुक हो जाते हैं। विगलित स्वर में कहते हैं, “वे कोई सामान्य व्यक्ति तो हो नहीं सकते। वे तो कोई देवता थे, देवता! जैसा उनका भव्य व्यक्तित्व था, जैसे उनके विचार और काम थे, उससे वे तमाम लोगों से ऊपर उठे हुए नज़र आते थे!”
बेशक, इस कथन में अतिरंजना कम नहीं, पर इससे नाना जी के प्रभावशाली व्यक्तित्व का कुछ अंदाज़ तो लगाया ही जा सकता है। उनके जीवन के बहुत आश्चर्यजनक प्रसंग कश्मीरी भाईसाहब सुनाते हैं। इनमें उनकी मृत्यु का प्रसंग बड़ा अद्भुत है। नाना जी को अपनी मृत्यु का आभास हो गया था और उन्होंने गाँव में और दूर-पास की रिश्तेदारियों में सबको कहला दिया था कि “फलाँ दिन मुझे यह चोला छोड़ना है। आप सब लोग आ जाएँ!” और ठीक उसी दिन उनका निधन हुआ। उनके निधन पर आसपास के गाँवों के सभी लोग इस तरह शोकाकुल थे और रो रहे थे, जैसे उनका अपना कोई बड़ा पुरखा चला गया हो!
इसी तरह देश-विभाजन के दौर का एक प्रसंग माँ से कई बार सुना था और हर बार सुनकर मेरी आँखें भीगती थीं और इनसानियत पर विश्वास कहीं ज़्यादा पुख़्ता हो जाता था। हुआ यह कि शुरू-शुरू में तो लोगों ने देश-विभाजन की जुगत को महज़ अफ़वाह माना और कोई अपनी जगह छोड़ने को तैयार नहीं था। अपनी धरती कभी पराई हो जाएगी, यह कल्पना भी मुश्किल थी। पर जैसे-जैसे समय बीता, यह साफ़ होता गया कि जिसे लोग अफ़वाह मान रहे हैं, वह तो ऐसी क्रूर और कठोर सच्चाई है, जिसका सामना करना ही होगा। उस समय पूरा गाँव माँ को मनाने के लिए गया कि वे यह पिंड छोड़कर न जाएँ। उनकी सुरक्षा का पूरा ज़िम्मा गाँव वालों का है। गाँव में अधिकतर परिवार मुस्लिमों के थे, पर हिंदू और मुस्लिम का कोई भेदभाव वहाँ न था। सब बार-बार नाना जी को याद कर रहे थे और कह रहे थे, “तुम हकीम साहब की बेटी हो तो समझो, पूरे गाँव की बेटी हो। तुम्हारी हिफ़ाज़त हम करेंगे और बाल बाँका न होने देंगे। तुम कहीं न जाओ।”
कुछ दिन इसी तरह अनिश्चय में बीते। फिर आने वाले समय का कुछ अनुमान करके माँ ने दुखी हृदय से ही सही, अपने पुरखों की धरती और अपना गाँव छोड़ने का निर्णय किया। तब सबको उनका यह निर्णय स्वीकार करना ही पड़ा। पर जिस समय माँ गाँव से विदा हुईं, उस समय का दृश्य बड़ा ही कारुणिक था। पूरा गाँव रोते हुए उन्हें विदा करने आया था। चलते समय लोग रास्ते के लिए खाने-पीने के सामान के साथ, नेग दे रहे थे कि हमारी बेटी विदा हो रही है। और सब बार-बार आग्रह कर रहे थे कि “देखना भागसुधी, ये सब बाबेला थोड़े दिनों में ही थम जाएगा। उसके बाद तुम्हारा मन करे तो जब चाहो, फिर से आ जाना। तुम्हें अपना घर-मकान और सारी चीज़ें ऐसी की ऐसी मिल जाएँगी, जैसी तुम छोड़कर जा रही हो।”
उस बुरे दौर में भी माँ की विदाई ऐसी हो रही थी, जैसे वे वहाँ की राजकुमारी हों। अपनी यादगार के रूप में लोग उन्हें कुछ न कुछ भेंट कर रहे थे। अपनी जन्मभूमि से विदा होते हुए माँ लगातार रो रही थीं और साथ-साथ पूरा गाँव रो रहा था।
बेशक यह नाना जी के बड़े और उदार व्यक्तित्व का ही असर था, जिसके कारण उनकी बेटी सबकी बेटी बन गई। वे हर किसी के सुख-दुख में भागीदार होते थे और सारा गाँव उन्हें अपना ख़ैर-ख़्वाह मानता था। तो फिर ऐसे नाना जी की बेटी सबकी बेटी भला क्यों न होगी?
तो ऐसे पिता की बेटी थीं माँ और यों भी वे जिस परिवार से आई थीं, उसका पारिवारिक गौरव और प्रतिष्ठा पिता के परिवार से कहीं अधिक थी। शायद इसीलिए माँ में दूसरों को देने और देकर तृप्त होने का राजसी भाव अधिक था। यानी जो भी घर में कुछ माँगने आया, वह वापस न लौटा। घर में मदद के लिए कुछ माँगने आए ग़रीब, अभावग्रस्त लोगों और साधु-संन्यासियों के मामले में तो ऐसा था कि जब तक माँ उन्हें खिला-पिलाकर और ख़ूब संतुष्ट करके न भेजती थीं, उन्हें चैन न था।
माँ का बीमारी के दिनों में दिल्ली में हमारे किराए के एक कमरे वाले छोटे-से घर में रहना कभी नहीं भूलता। यों वह कमरा भी कुठरिया-सा ही था, दस-गुना-दस वर्ग फ़ुट वाला। साथ में इतनी छोटी-सी रसोई कि बस गृहिणी किसी तरह वहाँ अँटकर खाना बना ले। माँ को स्किन कैंसर था और उन्हें दिल्ली में रहकर इलाज कराना था, इसलिए वे हमारे घर आकर रही थीं। यह संभवतः सन् 1984-85 की बात है। माँ के देहांत से कोई चार बरस पहले। एम्स यानी ऑल इंडिया मेडिकल इंस्टीट्यूट में उनका इलाज चल रहा था। उन दिनों वे कोई दो-तीन महीने शास्त्री नगर के हमारे उस छोटे-से कमरे में रही थीं। तब मेरी बड़ी बेटी ऋचा बिल्कुल छोटी-सी थी। कमरे में एक दीवान बिछा रहता था। माँ अक्सर उसी पर लेटी रहती थीं। कमरे में बस इतनी-सी ही जगह थी कि उस दीवान के साथ एक छोटी-सी चारपाई बिछा ली जाए या फिर फ़र्श पर कोई दरी वग़ैरह बिछाकर काम चलाया जाए . . .
यह उनके उस विद्रोही बेटे का घर था, जिसे वे सबसे ज़्यादा लाड़ करती थीं, पर जिसने जीवन की बहुत सारी सुख-सुविधाओं को ठुकराकर अपने लिए एक अलग डगर चुनी थी। तमाम मुश्किलों, अनिश्चितताओं और असुविधाओं से भरी।
उस घर में और भी ढेरों असुविधाएँ थीं। पानी हाथ से खींचना पड़ता था और कच्ची लेट्रीन थी, बहुत ही बेढंगी। सामने आँगन का खड़ंजे वाला फ़र्श, जिसे रोज़ ही धोना पड़ता था। इस तरह से हमारा वह छोटा-सा घर था, ढेरों असुविधाओं से भरा। तिस पर मकान मालिकिन का बहुत सनक भरा शुचितावादी व्यवहार। माँ के लिए यह सब अकल्पनीय रहा होगा।
माँ अपने विशाल हवेलीनुमा घर में राजरानियों की तरह रहती थीं। पर दिल्ली में हमारे साथ रहते हुए ये असुविधाएँ उन्होंने ख़ुशी-ख़ुशी झेलीं। वे बहुत बड़े और संपन्न घर से यहाँ रहने आई हैं, यह उन्होंने एक बार भी प्रकट नहीं किया, भूल से भी। बहुत ही रमकर वे हमारे घर में रहीं, हमारे सारे कष्टों को समझते हुए, बल्कि अपने से भी ज़्यादा हमारी चिंता करते हुए कि उनके कारण कहीं हमें कोई दिक़्क़त न हो! सुनीता से बात करना उन्हें अच्छा लगता था, क्योंकि सुनीता की बातें मैल-मत्सर से दूर, एकदम सीधी-सरल बातें होती थीं। और हमारे घर रहते हुए छोटे-मोटे काम करते रहना भी उन्हें पसंद था। ख़ासकर बैठे-बैठे सब्ज़ी काट देना उनके लिए सहज काम था और इससे उन्हें ऊब भी महसूस नहीं होती थी।
बाद में कुछ दिनों के लिए माँ को अस्पताल में भी भर्ती होना पड़ा थ। माँ के इलाज के लिए जो कोबाल्ट थैरेपी या ‘रेज़’ दी जाती थीं, उनके कारण उनकी नाक से द्रव का काफ़ी रिसाव होता था। इस थैरेपी के कारण जो मृत टिशूज थे, वे मटमैले द्रव के रूप में बह निकलते। कभी-कभी यह द्रव आँख में भी चला जाता था। उसे निरंतर पोंछना होता था, नहीं तो आँखों को नुक़्सान होने का डर था। यह माँ के लिए काफ़ी यातना का समय था और उसे देखकर हमें भी बहुत कष्ट होता था। लगभग अग्निपरीक्षा जैसे दिन। अंतत: माँ जीतीं। उन्होंने कैंसर जैसे दानव को पराजित कर दिया और लगभग ठीक होकर घर पहुँची। और जैसा कि उनका स्वभाव था, उन्होंने घर जाकर सुनीता की प्रशंसा के पुल बाँध दिए कि इतनी मुश्किलों के बावजूद उनकी इस बहू ने उन्हें कितने सुख और आराम से रखा।
लेकिन हमारे घर जो मुश्किलें आईं, उनकी चर्चा उन्होंने भूल से भी किसी से नहीं की, मानो उन्हें भय हो कि उनकी चर्चा कहीं न कहीं हमें छोटा कर देगी।
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कैंसर से माँ जीत भले ही गईं, पर उसने उनकी शक्तियों को क्षीण कर दिया था। कोई तीन-चार बरस बाद माँ को पक्षाघात और ब्रेन हैमरेज हुआ। दफ़्तर में ख़बर मिली तो मैं उसी रात को नई दिल्ली स्टेशन पर ‘मगध’ में बैठ, लगभग बदहवास-सा शिकोहाबाद पहुँचा। माँ बुरी तरह अशक्त हो चुकी थीं। यहाँ तक कि उन्हें बोलने में भी मुश्किल आ रही थी। किसी तरह कोशिश करके लड़खड़ाते शब्दों में उन्होंने इतना कही कहा, “पुत्तर, मैं तैनूँ कहया सी न, फिर मैं तैनूँ नहीं मिलणा . . .!!” (बेटे, मैंने तुमसे कहा था न, कि फिर मैं तुम्हें नहीं मिलूँगी।)
हुआ यह था कि उससे तीन-चार रोज़ पहले ही कोई हफ़्ते भर की छुट्टियाँ शिकोहाबाद में काटकर मैं आया था। चलते समय माँ से इजाज़त माँगी थी तो उन्होंने रुकने का आग्रह करते हुए कहा था, “पुत्तर दो दिन होर रुक जा।” (बेटा, दो दिन और रुक जाओ।) मैंने कहा, “माँ, अब छुट्टियाँ नहीं बचीं। दफ़्तर में परेशानी होगी। मैं फिर जल्दी ही आऊँगा।” इस पर माँ के होंठों से निकला था, “पुत्तर, फिर मैं तैनूँ नहीं मिलणा . . .!” कहते हुए उनके मुख पर अजीब-सा भाव था जिसे समझने में मुझसे चूक हो गई।
मृत्यु से पहले बेहद अशक्त हो चुकी माँ में उसी तरह से चेतना आ गई थी, जैसे दीपक बुझने से पहले एक बार फिर पूरी शक्ति के साथ अपनी लौ को उठाता है। माँ ने मृत्यु से भीषण संघर्ष किया था और बहुत दिनों तक चारपाई पर रही थीं। अक्सर तो वे कुछ भी बोल नहीं पाती थीं, पर मृत्यु से पहले उन्होंने घर में सबको याद किया था और मानो भरे-पूरे घर में छोटे से लेकर बड़ों तक, एक-एक से मिलकर अपने पीछे भरा-पूरा घर छोड़ने के संतोष के साथ वे गईं।
जाने से पहले उन्होंने सभी को कुछ न कुछ देने की इच्छा प्रकट की। अपना बेशक़ीमती हार उन्होंने सबसे अधिक सेवा करने वाली बहू यानी कृष्णा भाभी को दिया। मेरे बड़े भाई श्याम गुज़र चुके थे। उनके बच्चों का बिल्कुल अपने बच्चों की तरह पालन करने का वादा उन्होंने छोटे भाई सत से करवाया। साथ ही उससे वादा करवाया कि फरीदाबाद वाले मकान का एक हिस्सा चंदर को देना, ताकि इसे कोई परेशानी न हो!
यों पूरा घर माँ की आँखों के आगे था, जब उनकी आँखों बंद हुई!
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मेरी एक कहानी कुनु पर है, ‘एक हमारा वो कुनु’, जिसे भाई चंद्रभानु भारद्वाज जी ने ‘संप्रेषण’ पत्रिका में छापा है। कुनु एक छोटा-सा पिल्ला था। हमारे दुख-दर्द का साथी, सहभोक्ता। मेरी बेरोज़गारी के कष्ट-भरे दिनों में बहुत सहारा था उसका। ‘एक नन्हा-सा फ़रिश्ता . . .!’ इसी रूप में मैं आज भी उसे याद करता हूँ। और वह एक दिन रहा नहीं। मिट्टी में दफ़्न हो गया, जीवन का वह नन्हा-सा फ़रिश्ता। हमारे घर के पास एक प्यारी-सी, मासूम बच्ची थी विनी जो उससे खेला करती थी। कहानी के अंत में एक मार्मिक क्षण है कि सपने में अक्सर माँ दिखाई देती हैं और वह नन्हा-सा पिल्ला कुनु भी। फिर माँ न जाने किस जादू के ज़ोर से विनी में बदल जाती हैं। फिर माँ और कुनु, कुनु और माँ—मेरे दुख-दर्द भरे अध्याय के जो साथी थे, मिट्टी की तहों को फोड़कर बाहर आते हैं। मुझे एक साथ दमकते उनके निश्छल चेहरे दिखाई देते हैं।
आश्चर्य, माँ जिन्होंने मुझे यह जीवन दिया और जिनका मेरे जीवन पर सबसे ज़्यादा असर पड़ा, उन पर कोई कहानी या कोई लंबी रचना मैं नहीं लिख सका। सिर्फ़ मेरी कहानी ‘यात्रा’ में उनका बड़ा भावपूर्ण चेहरा आता है या फिर मेरे उपन्यास ‘कथा सर्कस’ में वे हैं। पर उन पर कोई बड़ी और मुकम्मल रचना लिख पाना मेरे लिए सम्भव नहीं हुआ। जबकि अभी अनगिनत प्रसंग हैं जो कहे जाने की बाट जोह रहे हैं। शायद जो अपने, बहुत अपने होते हैं, उन पर लिख पाना सबसे मुश्किल और चुनौती भरा होता होगा! तो भी उम्मीद मैंने अभी छोड़ी नहीं है।
यों भी माँ तो आज भी मेरे चारों ओर व्याप्त एक अगाध सिंधु-सी हैं, जिसमें डूबना, तैरना हर बार मेरी झोली को अनगिनत सुच्चे और अनमोल मोतियों से भर देता है। आज भी ज़्यादातर मामलों में मेरे सोचने की शुरूआत माँ से होती है कि माँ थीं तो ये करती थीं, माँ वो करती थीं और ऐसे हालात में माँ ऐसे रास्ता निकाल लिया करती थीं।
पता नहीं, औरों के साथ भी ठीक ऐसे ही होता है यह नहीं, पर मैं अपनी पैंसठ बरस लंबी ज़िन्दगी के बारे में सोचता हूँ, तो लगता है, शायद ही कोई ऐसा दिन गया हो, जब किसी न किसी बहाने माँ याद न आई हों। माँ जैसे मेरे लिए ज़िन्दगी की पाठमाला को समझने का पहला-पहला अक्षर क हैं, और उनके बारे में सोचते ही न जाने किस जादू से मैं फिर से एक छोटा, नन्हा बच्चा बन जाता हूँ, जो माँ की उँगली पकड़कर चल रहा है। चलता जा रहा है निश्चिंत, इस भरोसे पर कि माँ हैं, तो चाहे शेर बबर आए या बज्र टूट पड़े, कोई मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकता। माँ हैं न! वे हर मुश्किल से मुझे बचा लेंगी और कोई न कोई रास्ता निकाल लेंगी।
और आश्चर्य, माँ को गए जब आज कोई कोई तीस बरस हो गए हैं, तो भी मेरे इस यक़ीन में रत्ती भर फ़र्क़ नहीं आया। आज भी किसी मुसीबत या परेशानी में पड़ता हूँ, तो भीतर कोई है, जो बहुत धीमी, मद्धिम-सी आवाज़ में पुकारकर कहता है, “माँ हैं न, वे ज़रूर कोई न कोई रास्ता निकाल देंगी।”
मैं तब भी दुनियादार नहीं था और आज लगभग पूरी ज़िन्दगी जी चुकने के बाद भी दुनियादार नहीं बना। उसकी ज़रूरत भी नहीं महसूस हुई। मानो माँ की भोली आँखों का विश्वास कह रहा हो, “चंदर, इस दुनिया में बहुत-बहुत भोले लोग हैं जो अपनी ज़िन्दगी का कभी कोई हिसाब नहीं बना पाते और जी जाते हैं। तो तुम्हें क्या मुश्किल है?” शायद इसीलिए आज भी किसी के दुख-दर्द की बात सुनते ही आँसू आ जाते हैं और बड़े-बड़े फ़ायदे-नफ़े के गणित समझ में नहीं आते और बेमानी लगते हैं।
“यह दुनिया सिर्फ़ ताक़तवरों की नहीं है, बल्कि यह सबके लिए है और बहुत सीधे-सादे, ग़ैर-दुनियादार और यहाँ तक कि बहुत कमज़ोर आदमी के लिए भी यहाँ जीने के लिए कोई न कोई कोना ज़रूर छूटा रहता है।” माँ से मिले इस भोले भरोसे के साथ चलते हुए आज भी हिम्मत आ जाती है और डगमगाते हुए पाँव सँभल जाते हैं। और लगता है, माँ हैं, इसीलिए यह दुनिया सुंदर और जीने लायक़ है और माँ हैं, इसीलिए यह दुनिया बची भी हुई है।
1 टिप्पणियाँ
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प्रकाश मनु ने पूरी संवेदनशीलता के साथ लिखा है।हर किसी को,भले ही वह रचनाकार न हो, अपने माता-पिता और नाते रिश्तेदारों पर लिखना चाहिए।मानवेतर प्राणियों पर भी! वाचस्पति, वाराणसी