दुख ने अपनी चादर तान दी है माँ

01-02-2024

दुख ने अपनी चादर तान दी है माँ

प्रकाश मनु (अंक: 246, फरवरी प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

दुख ने अपनी चादर तान दी है माँ! 
इतनी काली अँधेरी है यह चादर कि जैसे काले सन्नाटे की गुफा 
कि अब रास्ते बिलाने लगे हैं
हताशा की हारी हुई राह पर 
डगमग-डगमग पाँव . . . 
काँपती है साँस की डोरी, घुटने काँपते हैं
 
दुख ने अपनी चादर तान दी है माँ
कुछ ऐसे
कि ख़ुद पर ख़ुद का यक़ीन नहीं रहा अब
कल तक थे जो मेरे आसमान के जगमग नक्षत्र
हर क़दम पर पाथेय मेरी ज़िन्दगी के
और उपलब्धि की वैदूर्य मणियाँ
समय ने बुहारकर उन्हें एक बेछोर कूड़ेदान के हवाले किया
 
कभी-कभी टिम-टिम चमकती है उनमें उम्मीद कोई
अगले पल बुझती है
बुझी हुई ज़िन्दगी के बोझ को और गाढ़ा और अँधेरा बनाती हुई
 
दुख ने अपनी चादर तान दी है माँ! 
और समय के साथ बदल गई हैं सब चीज़ें
और सिलसिले जीत-हार के
 
यों भी समय के साथ बदल जाता है बहुत कुछ 
यहाँ तक कि सुख के नग़्मे और दुख के आँसू तक
 
इन दिनों हर राह चलते
का दुख देख भीगती हैं आँखें बह आते आँसू
गला रुँधने लगता है
पर कोई करता है किसी के साथ कुछ अच्छा
कोई भला हाथ उम्मीद की डोर लिए थपथपाता है किसी की पीठ
तो मारे ख़ुशी के हिलक-हिलककर रोने लगता हूँ
पता नहीं, रोने और हँसने का फ़र्क़ कहाँ चला गया? 
 
दुख ने अपनी चादर तान दी है माँ! 
और अँधेरे और हताशा से घबराकर
अब ज़िन्दगी को ज़िन्दगी की तरह जीने के बजाय
मैं एकांत विथा में रास्ते खोजने लगा हूँ
 
मगर रास्ते कभी मिलते हैं और कभी एक और 
निबिड़ अंधकार में छोड़ जाते हैं छटपटाने को
जहाँ न टिम-टिम तारे हैं
न उम्मीद के हर पल रोशन चाँद-सूरज के नग़्मे
न पुरानी स्मृतियों के टूटे तिनके
न नदी न कगार
 
तो फिर जाऊँ कहाँ और कैसे, 
कहाँ उतार दूँ भार इस बेमानी और अंतहीन सफ़र का
कि शेष हो ज़िन्दगी का सिलसिला बेमतलब . . . 
 
दुख ने अपनी चादर तान दी है माँ! 
और समझ में नहीं आ रहा
कि मैं क्यों यों ख़ुद को खींचता चला जा रहा हूँ निरर्थक लंबा
जबकि जीने में कुछ दम ही नहीं बचा अब
 
दुख ने अपनी चादर तान दी है माँ! 
और अब काली आँधियों-सा निबिड़ अंधकार है चारों ओर बस
और इस अंधकार में मेरी पुकार कहीं नहीं जाती माँ, 
शायद तुम तक भी नहीं
 
तो फिर मैं क्यों पुकार रहा हूँ लगातार माँ! 
किसलिए . . .? 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें