भारत माता पुकार रही है . . .!
प्रकाश मनु
राजेश्वर के पुराने मित्र हैं परमेश्वरी बाबू। अजीब, बड़े ही अजीब। बड़े हठी और धुन के पक्के। इलाहाबाद विश्वविद्यायल में अच्छे-ख़ासे प्रोफ़ेसर थे, पर सब कुछ छोड़-छाड़कर यहाँ-वहाँ भटकने लगे। एक ही धुन कि उनकी किताब जल्दी से पूरी हो, जिसमें जगह-जगह बिखरी देश के अनाम शहीदों की गाथाएँ वे लिखना चाहते थे।
काफ़ी काम हो गया था, पर अभी बहुत कुछ बाक़ी था। और वे दीवानावार उसे पूरा करने में जुटे थे। आज यहाँ तो कल वहाँ, ताकि उनकी साँसों का हिसाब चुकने से पहले किताब सामने आ जाए . . .
क्रांतिकारियों की जीवन-गाथाओं से जुड़े परमेश्वरी बाबू के जोशीले लेख अख़बारों में छपते, तो राजेश्वर सहाय उत्सुकता से पढ़ते। मन में जोश की लहर सी पैदा होती कि देखो, मेरा दोस्त कुछ काम कर रहा है। सच ही एक बड़ा काम। वरना आज के ज़माने में किसे पड़ी है घरबार और ज़माने की तीन-तिकड़ी भूलकर यों शहर-शहर, गली-गली की धूल फाँकता फिरे!
बरसों हो गए थे मिले हुए। पर इन लेखों को पढ़ा तो पुरानी पहचानें ताज़ी हो गईं। एक दिन राजेश्वर ने एक पत्रिका में परमेश्वरी शरण का पता देखा तो झट चिट्ठी डाल दी—
“प्यारे भाई, कहीं तुम वही परमेश्वरी तो नहीं हो, जो मेरे साथ आगरा कॉलेज में पढ़े थे? और थोड़े निराले क़िस्म के इन्सान थे। ख़ब्ती भी! . . . ज़रूर वही होगे, वरना ऐसा धुनी परमेश्वरी इस धरतीतल पर दूसरा भला कहाँ हो सकता है? तो आजकल कहाँ हो दोस्त? क्या कर रहे हो? हम लोग कैसे मिल सकते हैं? हो सके, तो चिट्ठी डालना . . . आजकल सेवानिवृत्ति के बाद मलखानपुर आकर टिक गया हूँ। अख़बारों, पत्रिकाओं में तुम्हें पढ़ता रहता हूँ, तो बड़ी ख़ुशी होती है कि चलो, अपना परमेश्वरी तो अभी सक्रिय हो।”
इस पर परमेश्वर बाबू की चिट्ठी नहीं, बल्कि वे ख़ुद ही सशरीर मलखानपुर आ पहुँचे। आते ही धधाकर मिले और ख़ूब ज़ोर से हँसते बोले, “प्यारे दोस्त, तुमने पूछा था कि अपन कैसे मिल सकते हैं? तो मैंने सोचा कि अचानक तुम्हारे पास पहुँचकर बता ही दूँ, कि अजी मेरे प्यारे बालमित्र, हम ऐसे मिल सकते हैं!”
सुनकर दिल बाग-बाग हो गया राजेश्वर सहाय का।
और सचमुच कोई चालीस बरस बाद दोनों पुराने मित्र मिले तो बातों का कोई ओर-छोर ही न रहा। चायपान और नाश्ते के बाद बातें, बातें और तमाम बातें। दोनों सारी दुनिया भूल, मगन होकर पुरानी यादें ताज़ा कर रहे थे।
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राजेश्वर सहाय को लगा, थोड़ी देर के लिए घड़ी और समय का चक्का जैसे पीछे की ओर मुड़ गया है और वे सचमुच अपनी किशोरावस्था में लौट गए हैं।
दोनों किस क़द्र शरारतें और हँसी-ठिठोली करते थे। पर इसके साथ ही पढ़ाई, वाद-विवाद प्रतियोगिता और समय-समय पर होने वाले व्याख्यान सबमें सक्रिय थे। परमेश्वरी तो कुछ ज़्यादा ही। तब भी बार-बार कहता था, “देखो राजेश्वर, देश ने हमें क्या कुछ नहीं दिया! . . . कितनी ख़ुशियाँ और उल्लास, कितना सुख-साज, कितनी महान परंपरा और अनमोल विरासतें। मगर हमने देश के लिए क्या किया? हमें भी तो कुछ लौटाना चाहिए न!”
तब उसकी बातें पूरी तरह समझ में नहीं आती थीं राजेश्वर सहाय को, पर अब तो समझ में आ रही हैं। एकदम। सामने मेज़ पर रखे क़लम और काग़ज़ की तरह।
तब भी परमेश्वरी बीच-बीच में कई दिनों के लिए ग़ायब हो जाता और लौटता तो उसके पास अनंत क़िस्सों का भंडार होता। कभी वह राजस्थान के भीलों से मिलने चला जाता तो कभी मध्यप्रदेश के आदिवासियों से। कभी पुराने ऐतिहासिक स्थलों की खोजबीन में जुट जाता तो कभी धुर दक्षिण की यात्रा करके लौटता और कहता, “देखो मित्र, अपना देश कितनी विविधताओं से भरा है। हमें कम से कम एक बार इसे देखना और जानना तो चाहिए . . .”
आज वे सारी बातें ताज़ा हो रही थीं और राजेश्वर को बहुत कुछ याद आ रहा था। जैसे उनके दिल के कैनवस पर किसी ने ताज़ा-ताज़ा चित्र उकेर दिया हो।
तभी अचानक बातों-बातों में उन्हें कुछ याद आया। बोले, “सुनो परमेश्वरी, तुम्हें कुछ याद है वनमाला की? . . . ऊँचा गाँव की वनमाला!”
“नाम तो सुना है . . .!” कुछ बेध्यानी में परमेश्वरी बाबू बोले।
फिर एकाएक उन्हें जैसे झटका सा लगा। महसूस हुआ कि जैसे स्मृतियों के आगे से परदा हट गया है। जोश में आकर बोले—
“हाँ-हाँ, याद है, बहुत कुछ . . .! बहुत कुछ याद आ रहा है। अरे, वही कानपुर की दुबली-पतली और साँवली-सी लड़की ना, जो सन् बयालीस के भारत छोड़ो आंदोलन के समय ख़ूब सक्रिय थी। उन दिनों दूर-दूर तक की परिक्रमा की थी उसने। एक बार हमारे हॉस्टल में भी आकर उसने भाषण दिया था कि यह हम सबके लिए करने या मरने का समय है . . .
“बड़ी देर तक वह बोली थी राजेश्वर। बोलती रही थी, बोलती रही थी, इस क़द्र जोश में, कि जैसे अपनी देह का भी उसे कुछ होश न हो . . . उसके कहे कुछ शब्द अब भी मेरे कानों में गूँज रहे हैं—प्यारे भाइयो, भारत माता हमें पुकार रही है। पुकार रही है भाइयो! . . . उसकी ज़ंजीरें हम तोड़ दें, इतिहास देवता ने हमें यह अवसर दे दिया है, और अगर हम चूक गए तो इतिहास हमेशा के लिए कायरों में हमारा नाम लिखा जाएगा . . . वह अद्भुत भाषण था, अपूर्व!” कहते-कहते परमेश्वरी बाबू को जैसे बिजली का करंट-सा लगा हो।
पुराने दिन—युवावस्था के जोशीले दिन उनकी आँखों में झिलमिल-झिलमिल कर रहे थे।
“बिल्कुल . . . बिल्कुल, तुम्हें याद आ गया!” राजेश्वर भी चहक उठे। बोले, “उसके बाद ही तो हम विद्यार्थियों ने अगले दिन सुबह कचहरी के सामने जुलूस निकाला था। शहर की हवा में अचानक गरमी आ गई थी। पुलिस ने वनमाला को पकड़ने की कोशिश की, पर वह सबकी नज़रों से छिपकर निकलने में सफल हो गई थी और फिर अगले दिन अलीगढ़ में उसके वैसे ही जोशीले भाषण की ख़बर आई थी। अब वह वनमाला नहीं, जैसे क्रांतिमाला बन गई थी . . .!”
राजेश्वर की बात सुनकर परमेश्वरी बाबू को कुछ और भी याद आया। फिर बहुत कुछ याद आता गया। वह दौर जैसे दोनों की आँखों के आगे साकार हो रहा था।
“परमेश्वरी बाबू, तुम क्रांतिकारियों के बारे में किताब तैयार कर रहे हो तो क्या उसमें वनमाला का नाम नहीं होना चाहिए?” बातें करते-करते एकाएक राजेश्वर ने पूछ लिया।
“ज़रूर होना चाहिए . . .!” आवेश में थरथराते हुए परमेश्वरी बाबू बोले, “पर उसके बारे में आधा-अधूरा ही तो हमें पता है। मैं चाहता था कि उनकी पूरी कहानी पता चले, तो उस पर भी कुछ लिखा जाए। पर कैसे . . .?”
“इसीलिए तो मैंने बात छेड़ी है!” राजेश्वर ने मुसकराकर कहा, “अगर चल सकते हो तो चलो। इटावा में उसके छोटे भाई सोमेश से मुलाक़ात हो सकती है।”
“सोमेश . . .?” परमेश्वरी कुछ अचकचाए।
“हाँ, वह एक स्कूल में हिंदी का अध्यापक है। मुझे एक बार रेलगाड़ी में मिला तो बातों-बातों में पता चला और उसने अपना पता लिखवाया . . . अब भी मेरी डायरी में ज़रूर होगा,” राजेश्वर ने बताया।
“तो चलो . . .!” परमेश्वरी बाबू एकाएक उठते हुए बोले, “अभी चलते हैं राजेश्वर। जो सोच लिया, वह कर ही डालें। वैसे भी वनमाला का वह जोशीला भाषण, उसकी वे क्रांतिकारी बातें . . . सब कुछ मुझे याद आ रहा है। और मैंने तो कहीं पढ़ा या सुना था कि उसने आज़ाद भारत का स्वतंत्र रेडियो भी बना लिया था, जिस पर रात-दिन देशभक्ति के गीतों का प्रसारण होता था और स्वाधीनता संग्राम के तीखे समाचार . . .! अँग्रेज़ सरकार एकदम हिल गई थी।”
“हाँ, सुना था मैंने भी था . . .! अँग्रेज़ों के ज़ुल्म और अत्याचारों का जवाब देने के लिए उसने आज़ाद भारत का स्वतंत्र रेडियो बना लिया था। भारत की जनता का अपना रेडियो . . . किसी अख़बार में उस पर लेख छपा था,” राजेश्वर बोले।
पुराने दिन . . . पुराने दिनों की जोशीली स्मृतियाँ . . .!
दोनों मित्र उनमें बहे जाते थे।
♦ ♦ ♦
अब ख़ुद-ब-ख़ुद वे सारे सूत्र मिलते जा रहे थे, जिससे वनमाला की जोशीली कहानी का ओर-छोर पता चलता। और जो बाक़ी बच गया था, उसे इटावा के फूलपुर महल्ले की एक तंग गली में वनमाला के छोटे भाई सोमेश की भाव-गद्गद वाणी में हम लोग सुन रहे थे।
“मैं तो अंकल, उस समय छोटा था। बहुत छोटा। शायद कोई चार-पाँच बरस का रहा होऊँगा . . .”
सोमेश बता रहा था, “बस, दीदी की बातें सुनना बहुत अच्छा लगता था। मैं कहानी सुनाने को कहता तो वह मुझे भगतसिंह की कहानी सुनाती, शहीद चंद्रशेखर की कहानी . . . बिस्मल और अशफाकुल्ला की कहानी। सुनकर रोमांच होता था। मुझे अब भी याद है कि एक बार उसने गाँधी बाबा की पूरी कहानी सुनाई कि दक्षिण अफ़्रीका में उन्होंने कैसी-कैसी लड़ाइयाँ लड़ीं। और फिर यहाँ आए तो अंग्रेज़ी सत्ता के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ दिया . . . तब पहली बार समझ में आया कि आज़ादी का क्या मतलब है, क्यों लड़ी जा रही है पूरे देश भर में आज़ादी की लड़ाई? क्यों इतनी क़ुर्बानियाँ . . .!”
“तो क्या उसने यह भी बताया कि वह ख़ुद भी शामिल हैं आज़ादी की लड़ाई में?” परमेश्वरी बाबू ने जानना चाहा।
“नहीं, पर थोड़ा बड़ा हुआ तो धीरे-धीरे सब ख़ुद ही समझ में आ गया . . . घर में पुलिस का छापा पड़ा था। पर हमें कुछ भी पता नहीं था। पुलिस देर तक सारा घर खँगालती रही थी, पर उसे ख़ाली ही लौटना पड़ा . . . असल में दीदी ने जो भी किया, सिर्फ़ अपने बूते ही किया। हम लोगों को बहुत ज़्यादा पता नहीं था। या फिर बाद में पता चला, धीरे-धीरे . . .”
“पर हम तो तुम्हारे पास वनमाला की पूरी गाथा सुनने आए थे। मेरे मित्र परमेश्वरी बाबू क्रांतिकारियों पर एक बड़ा ग्रंथ निकाल रहे हैं। उसी में वनमाला की भी गाथा . . .!” राजेश्वर सहाय ने अपने आने का आशय बताया।
इस पर सोमेश कुछ सकुचा गया। बोला, “आप लोग आए, मुझे बड़ा अच्छा लगा . . . पर मुझे भी सब कुछ कहाँ पता है! आज़ादी के बाद दीदी एक-दो बार वह घर आई तो टुकड़ों-टुकड़ों में बहुत थोड़ा उसने बताया। कुछ अख़बारों से जाना। उसी सबको जोड़कर थोड़ा-बहुत मैं बता सकता हूँ, आप कहें तो!”
और फिर न जाने कब सोमेश ने क्रांतिबाला वनमाला की कहानी सुनानी शुरू कर दी। बिल्कुल शुरू से ही। परमेश्वरी और राजेश्वर सहाय जैसे साँस रोके सुन रहे थे . . .
वनमाला बचपन में ही कुछ अलग थी। एकदम जोशीली। सपनों की दुनिया में जीने वाली . . .। पढ़ाई-लिखाई में होशियार थी, तो साथ ही नाटक, कविता, कहानी सबमें रम जाती। बोलती तो लगता, कोई झरना बह रहा है . . . उसकी आवाज़ एकदम अलग थी। बड़ी कड़क और बुलंद आवाज़ . . . बोलती तो सामने वाला देखता रह जाता कि यह है कौन?
शरीर दुबला-पतला, साँवला . . . लेकिन दुबले शरीर में एकदम इस्पाती व्यक्तित्व।
बहुत छोटी थी वनमाला तो दादा जी से बातें करना उसे अच्छा लगता था। वे देश की ग़ुलामी और अँग्रेज़ों के अत्याचारों की कहानी सुनाते तो वनमाला को अंदर ही अंदर बहुत ग़ुस्सा आता। दादा जी बताते कि मुट्ठी भर अँग्रेज़ों के धोखे और चालाकी से हमारे देश पर क़ब्ज़ा कर लिया। आए थे व्यापार करने और मालिक बन बैठे . . .
“तो क्या हम इन्हें अपने देश से निकाल नहीं सकते? . . . भारतीय तो इतने ज़्यादा है, वे अँग्रेज़ों को क्यों नहीं भगा देते?” वनमाला पूछती।
“जिस दिन सारे हिंदुस्तानी इकट्ठे हो जाएँगे, अँग्रेज़ रातों-रात दुम दबाकर भागेंगे।” दादा जी मुसकराकर कहते।
बस, दादा जी की यही बात दीदी के मन में घर कर गई। और इसे वह कभी नहीं भूली . . .
जब वह हाईस्कूल करने के बाद कानपुर के दयानंद कॉलेज में पढ़ने गई तो उसने लड़कियों का एक दल बना लिया था। बहुत साधारण परिवार की थी वनमाला। पिता की एक छोटी-सी किताबों की दुकान थी। बड़ी मुश्किल से घर का ख़र्च चलता था, पर वनमाला पढ़ाई में होशियार थी और आगे पढ़ने की उसकी बहुत इच्छा थी तो पिता ने कानपुर पढ़ने भेज दिया।
वनमाला केवल पढ़ाई में ही नहीं, बाक़ी सब गतिविधियों में भी आगे रहती। थी भी बड़ी हिम्मती और दिलेर। लड़कियाँ यह नहीं कर सकतीं, वह नहीं कर सकतीं, यह बात उसके दिमाग़ में कभी आती ही नहीं थी। और कोई ऐसी बात कहता, तो उसे डपट देती।
एक बार कॉलेज में उसने ख़ुद अपना लिखा हुआ एक नाटक खेला था, ‘भारत के लाल’। नाटक में देश की आज़ादी के लिए लड़ने वाले सपूतों के जीवन की झाँकी थी। और जब अँग्रेज़ों से लड़कर घायल हुई झाँसी की रानी के बलिदान का दृश्य सामने आया, तो सामने नाटक देख रहे लोगों की आँखों में आँसू थे। अंत में उसने सुभद्राकुमारी चौहान की कविता ‘झाँसी की रानी’ बड़े जोशीले ढंग से पढ़ी। उसी कविता की पंक्ति थी— ‘गुमी हुई आज़ादी की क़ीमत सबने पहचानी थी . . .!”
नाटक ख़त्म हुआ तो लोग उठें, इससे पहले ही मंच पर बेड़ियों में बंदी भारत माता नज़र आई और उसके साथ ही नेपथ्य से वनमाला के शब्द जैसे हवा में गूँजने लगे—
“सन् सत्तावन में गुमी हुई आज़ादी की क़ीमत सबने पहचानी थी . . . और इसीलिए इतना बड़ा स्वाधीनता का युद्ध हुआ। आज अगर हम फिर से अपनी गुमी हुई आज़ादी की क़ीमत पहचानकर जाग जाएँ, तो भारत माता की बेड़ियाँ टूटेंगी . . . ज़रूर टूटेंगी। भारत माता तुम्हारी बाट जोह रही है। जागो . . . जागो भारत के लाल!”
वनमाला के उस नाटक ने देखने वालों पर इतना गहरा असर डाला था कि हर शख़्स की आँखों में कुछ कर गुज़रने का सपना था . . .
इतना ही नहीं, कॉलेज में समय-समय पर उसके जोशीले भाषण होते तो छात्र और अध्यापक सभी तारीफ़ करते। वाद-विवाद प्रतियोगिताओं और तीखी बहसों में भी वह सबसे आगे रहती। अपनी कक्षा में सबसे होशियार थी और हर किसी की मदद करने में सबसे आगे रहती थी। इसलिए कक्षा के सारे विद्यार्थियों की वह नेता थी।
कभी-कभी कुछ लोग हँसकर तंज़ के साथ कहते, “अरे वनमाला, कुछ करो भी . . . या केवल कहती ही रहोगी कि हमें देश के लिए यह करना चाहिए, वह करना चाहिए!”
कहने वाले सोचते कि वनमाला लड़की है, तो भला वह क्या कर पाएगी? पर वह कभी चिढ़ती नहीं थी। हँसकर कहती, “समय आएगा तो मैं पीछे नहीं रहूँगी!”
उसके कॉलेज के पास ही एक पुरानी-सी पीले रंग की कोठी थी। उसमें बहुत सी लड़कियाँ एक साथ रह रही थीं। वे साथ पढ़तीं, साथ घूमने जातीं। पर वे इस क़द्र भूचाल भी ला सकती हैं, कोई सोच भी नहीं सकता था।
वे पुस्तकालय से महापुरुषों की जीवनियाँ लाकर पढ़तीं। फिर उन पर आपस में चर्चा होती। बार-बार एक ही बात सामने आती कि आज भी देश संकट में है। कुछ न कुछ तो हमें करना ही होगा।
कुछ न कुछ, और बहुत जल्दी ही . . .!
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सन् बयालीस का आंदोलन छिड़ा तो वनमाला को भीतर से लगा कि कुछ करने का समय आ गया है। उसकी आत्मा जैसे पुकार करके कह रही थी, “वनमाला, यही समय है, बस यही समय . . . देश का ऋण उतारने का!”
कुछ समय पहले शहर में बापू आए थे, तो उनके स्वागत के लिए बड़ी विशाल सभा हुई। तब वनमाला ने ही बापू का प्रिय भजन बड़े सुरीले कंठ से गाकर सुनाया था, “वैष्णव जन तो तेणे कहिए जो पीर पराई जाणे रे . . .!”
सुनकर गाँधी जी एकदम भावविह्वल हो गए। वनमाला के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “तुममें कुछ अलग बात है बेटी। तुम ज़रूर कुछ बड़ा काम करोगी। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है . . .”
कुछ रोज़ बाद प्रसिद्ध गाँधीवादी हीरेन दा आए तो उनके स्वागत में फिर एक बड़ी सभा हुई। वनमाला को पता चला कि हीरेन दा एक बड़े सरकारी कॉलेज में प्रिंसिपल थे। ख़ासी तनख़्वाह थी, ढेर सारी सुख-सुविधाएँ थीं, पर बापू के कहने पर उन्होंने सरकारी नौकरी को तिनके की तरह छोड़ दिया और देशसेवा के काम में लग गए। अब पूरे देश में घूम-घूमकर वे लोगों को स्वाधीनता संग्राम से जुड़ने के लिए प्रेरित कर रहे हैं।
वनमाला ने सोचा, वह हीरेन दा से ज़रूर मिलेगी। शायद वे कोई राह सुझाएँ।
जैसे ही सभा शुरू हुई, ‘भारत माता की जय’, ‘महात्मा गाँधी की जय’ के नारों से आसमान गूँज उठा। वनमाला ने पहले ‘वंदेमातरम’ गाया, फिर हीरेन दा के स्वागत में उसका बड़ा जोशीला भाषण हुआ। सुनकर हीरेन दा अभिभूत हो गए। बोले, “इस छोटी सी बच्ची में इतना जोश है और इसकी वाणी में इतना तेज है कि बड़ी उम्र वाले हम जैसे लोग भी इससे प्रेरणा ले सकते हैं।”
सुनते ही सभाभवन तालियों की गड़गड़ाहट से गूँजने लगा। सभा में छात्रों की संख्या बहुत ज़्यादा थी। उनकी ओर देखते हुए हीरेन दा ने कहा—
“हमारे देश के बच्चे किसी से कम नहीं हैं। बच्चे चाहें तो बहुत कुछ करके दिखा सकते हैं। करना बड़ों को चाहिए, पर बड़े सोए हों तो बच्चों को आगे आकर मोरचा सँभालना होगा, जिससे बड़े जो सो रहे हैं, वे भी अपनी नींद से जागें . . .!”
हीरेन दा के भाषण ने सचमुच नया जोश भर दिया। जाते-जाते वे वनमाला को आशीर्वाद देकर गए कि बेटी, तुम आने वाले समय में देश की मशाल बनोगी।
और अगले दिन ही जो मंज़र दिखाई पड़ा, उसे हीरेन दा की बात सही होती जान पड़ी। छात्रों ने सोचा, हम भी देश की आज़ादी के लिए जुलूस निकालेंगे। दयानंद कॉलेज के सारे विद्यार्थी इकट्ठे हुए। सबसे आगे थी नारे लगाती हुई वनमाला। पुलिस ने पहले छात्रों को धमकी दी, फिर लाठी चार्ज कर दिया।
वनमाला को चोट आई, पर उसका जोश कम नहीं हुआ। छात्रों का ग़ुस्सा भी भड़क गया था।
अगले दिन आसपास के सारे स्कूलों के बच्चे एक जगह जुट गए। हज़ारों बच्चे . . . आगे-आगे वनमाला। सिर पर पट्टी बँधी हुई थी, पर हिम्मत में कोई कसर नहीं। सबके होंठों पर नारे, ‘स्वराज्य हम लेकर रहेंगे’ . . . ’भारत माता की जय’ . . . ‘अँग्रेज़ो, भारत छोड़ो . . .!”
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अँग्रेज़ सरकार हक्की-बक्की। छात्रों पर लाठी चलाने का अंजाम वह देख चुकी थी। कल की घटना को लेकर सभी अख़बारों में सरकार की कटु निंदा छपी थी। लिहाज़ा कुछ छात्रों को थोड़ी देर हिरासत में रखकर, फिर छोड़ दिया गया। वनमाला भी गिरफ़्तार हुई, फिर छूटी।
अगले दिन छात्रों की गिरफ़्तारी के विरोध में शहर के लोगों का जुलूस। पर इस बार भी आगे-आगे वनमाला। उसकी हिम्मत और बहादुरी ने सबको ताज्जुब में डाल दिया।
अब तो शहर की पुलिस वनमाला के पीछे पड़ गई। ख़ुफ़िया विभाग से उसे सूचना मिली थी कि दयानंद कॉलेज में बारहवीं जमात में पढ़ने वाली यही लड़की है सारी आफ़त की जड़। उसके साथ लड़कियों का एक दल है। वे ही यह हंगामा मचाए हुए हैं . . .
पर वनमाला यहाँ-वहाँ छिपकर पुलिस की आँखों में धूल झोंकती रही। कानपुर का डिप्टी कलेक्टर और पुलिस अधिकारी ग़ुस्से के मारे अपने बाल नोंच रहे थे।
“कौन है यह वनमाला . . .! वनमाला कौन है? आख़िर उसे गिरफ़्तार क्यों नहीं किया जा रहा?” ऊपर से सवालों पर सवाल आ रहे थे, पर उनका जवाब कौन देता?
हीरेन दा ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं के ज़रिए वनमाला को संदेश दे दिया था कि अब कानपुर छोड़ना होगा . . .
वनमाला ने कानपुर तो छोड़ा, पर वह गई कहाँ, यह किसी को पता नहीं चला। कभी यहाँ तो कभी वहाँ वह अचानक प्रकट हो जाती, और फिर अँग्रेजों की आँखों में धूल झोंककर अपनी आगे की यात्रा पर निकल जाती।
देश के युवकों को जगाने का इरादा था उसका, ताकि वे मातृभूमि की पुकार को सुनकर आगे आएँ। मिलकर अँग्रेजों को ख़िलाफ़ मोर्चा बाँधें।
यों शुरू हुईं वनमाला की लंबी देशयात्राएँ। हर जगह कांग्रेस कार्यकर्ताओं को पहले से उसके आने का पता चल जाता और वे अपने देशभक्त साथियों के घरों में उसके रहने का इंतज़ाम कर देते। लोग बिल्कुल अपनी बेटी की तरह विद्रोहिणी वनमाला को छिपाकर रखते। अख़बारों में उसके भाषणों की ख़बरें छपतीं, पर भाषण देकर वह कहाँ ग़ायब हो जाती है, यह किसी को पता नहीं था। और वनमाला तेज़ी से एक के बाद एक जगहें बदल रही थी।
अँग्रेज़ अधिकारी बुरी तरह खीजे हुए थे, पर लाचार थे। वनमाला ने उनकी नाक में दम कर दिया था। जगह-जगह उसके जोशीले व्याख्यान होते, जिससे लोगों में उबाल भर जाता। कुछ करने की लहर पैदा होती। फिर वह पुलिस अधिकारियों की आँखों में धूल झोंकर किसी और शहर में पहुँच जाती। अँग्रेज़ सरकार बहुत कोशिशों के बाद भी उसे गिरफ़्तार नहीं कर पा रही थी।
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हालाँकि कुछ अरसे बाद वनमाला गिरफ़्तार हुई, पर वह तो एक बिल्कुल अलग कहानी है . . .
तब तक वनमाला ने ही सोच लिया था कि अगर गिरफ़्तारी होती है तो हो, पर उससे पहले मैं सरकार को कँपा तो दूँगी ही। और वह इसमें कामयाब भी हुई। देश में एक ऐसी घटना हुई, जिससे सबके मुँह खुले के खुले रह गए।
यह था वनमाला का स्वदेशी रेडियो स्टेशन। आज़ादी के रणबाँकुरों का रेडियो स्टेशन। वनमाला ने सोचा, “देश को जगाना है, तो लोगों तक पहुँचने के लिए हम अपना स्वतंत्र रेडियो क्यों न बनाएँ, जिससे जनता को स्वाधीनता संग्राम की जोशीली ख़बरें मिलें . . .”
उसकी एक सहेली विनोदिनी भट्टाचार्य के मौसा जी साइंटिस्ट थे। कलकत्ता में रहे थे तथा विज्ञान और टैक्नोलाजी के नए से नए आविष्कारों की उनको जानकारी थी। उन्हीं को ज़िम्मा सौंपा गया कि वे देशभक्तों का एक रेडियो स्टेशन बनाएँ, जहाँ से देशभक्ति से सराबोर गीत और आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले राजनेताओं और देशभक्तों के संदेश और भाषण प्रसारित किए जाएँ।
और सचमुच वनमाला का यह सपना भी पूरा हुआ। जिस दिन देशभक्तों का वह रेडियो स्टेशन बनकर तैयार हुआ, सबसे पहले वनमाला की आवाज़ सुनाई दी—
“मेरे प्यारे भारतवासियो, यह भारत का स्वतंत्र रेडियो स्टेशन है। भारत का पहला स्वदेशी रेडियो स्टेशन . . . यहाँ आपको देश की आज़ादी के लिए लड़ने वाले देश के वीर सिपाहियों की बातें सुनने को मिलेंगी। बापू के व्याख्यान सुनाई देंगे और देशभक्ति के गीत भी . . . लीजिए, अब काकिली घोष से हमारा राष्ट्रीय गीत वंदेमातरम् सुनिए!”
‘वंदेमातरम्’ के बाद फिर वनमाला की जोश से थरथराती आवाज़ सुनाई दी—
“प्यारे साथियो, महात्मा गाँधी जी के ‘अँग्रेज़ों भारत छोड़ो’ और ‘करो या मरो’ के नारे ने पूरे देश में भूचाल पैदा कर दिया है। जगह-जगह जनता सड़कों पर आकर माँग कर रही है, अँग्रेज़ों भारत छोड़ो! . . . अब हमारी आज़ादी का दिन दूर नहीं है। भले ही अँग्रेज़ सरकार ने बापू समेत सभी बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया है, पर यह लड़ाई अब थमेगी नहीं। इसलिए कि हमारा ग़ुस्सा अब सारी हदें पार कर चुका है . . . अँग्रेज़ सरकार यह बात न भूले कि अब हर भारतीय बापू का सिपाही है और हम तब तक चैन नहीं लेंगे, जब तक अँग्रेज़ोंं को इस देश से भगा नहीं देंगे। लीजिए, अब आप देश की जनता के नाम बापू का संदेश सुनिए।”
लोग रोमांचित थे . . .
दिन-रात देश के कोने-कोने से ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के उत्साहपूर्ण समाचार। आज़ादी की लड़ाई के परवानों के विचार और भाषण . . .
अभी कुछ ही दिन हुए थे, पर ‘स्वदेशी रेडियो’ की धाक जम गई थी। वनमाला की जोशीली आवाज़ कानों में पड़ते ही लोग सारे काम छोड़कर रेडियो के पास सरक आते। बाज़ारों और चौराहों पर भी उसकी गूँज सुनाई पड़ रही थी।
अंग्रेज़ी रेडियो के समाचार सरकारी भोंपू की तरह थे, जिन पर किसी को यक़ीन नहीं था। पहली बार स्वदेशी रेडियो से आज़ादी की लड़ाई की सच्ची ख़बरें सुनकर लोग उत्साहित थे। उधर अँग्रेज़ सरकार बौखलाई हुई थी। वनमाला का नाम ही अब उसके लिए आतंक बन गया था।
पर आख़िर एक दिन अँग्रेज़ोंं ने पता लगा ही लिया कि स्वदेशी रेडियो का छिपा हुआ स्टेशन कहाँ है। कहाँ से यह विद्रोही वलबला आ रहा है?
और फिर एक दिन सुबह-सुबह एक साथ डेढ़ सौ पुलिस वालों ने रेडियो स्टेशन को घेर लिया . . .
पुलिस का छापा . . .! जबर्दस्त . . .!!
♦ ♦ ♦
ऊपर खट-खट सीढ़ियाँ चढ़कर धड़धड़ाते हुए कोई डेढ़-दो दर्जन पुलिस वाले प्रसारण-कक्ष में आए और वनमाला को गिरफ़्तार करने के लिए आगे बढ़े।
उस समय रेडियो से ‘वंदेमातरम्’ का प्रसारण हो रहा था . . .
पुलिस अधिकारी आगे बढ़ता, इससे पहले ही वनमाला की बिजली जैसी कड़कती आवाज़ सुनाई दी, “खबरदार, राष्ट्रगान हो रहा है। आप लोग अपनी जगह सीधे खड़े हो जाइए, अटेंशन . . .!”
एकदम सन्नाटा छा गया और सारे सिपाही एकदम अवाक् अटेंशन की मुद्रा में खड़े हो गए।
जब तक ‘वंदेमातरम्’ बजता रहा, सभी राष्ट्रगान के सम्मान में चुपचाप सावधान की मुद्रा में खड़े रहे। उसके बाद उन्होंने वनमाला और उसकी चार सहेलियों को गिरफ़्तार किया।
पूरे डेढ़ सौ सिपाही . . .!
‘लग रहा है, आज कोई बहुत बड़ा क्रांतिकारी पकड़ा जाने वाला है!’ लोग सोच रहे थे।
पर जब पुलिस वाले वनमाला और उसकी सहेलियों को पकड़कर ले जा रहे थे तो लोगों ने दाँतों तले उँगली दबा ली, “अरे, तो क्या ये लड़कियाँ इतनी ख़तरनाक हैं कि पुलिस को इतनी बड़ी फ़ोर्स के साथ धावा बोलना पड़ा?”
कई दिनों तक मुक़द्दमा चला।
पर वनमाला ने स्वदेशी रेडियो की योजना का पूरा ज़िम्मा लिया और बड़ी निर्भीकता से कहा—
“स्वदेशी रेडियो के ज़रिए मैंने भारतवासियों को आज़ादी की लड़ाई के सच्चे और सही समाचार दिए। इस पर मुझे गर्व है . . . मैंने अपने देश और अपनी मातृभूमि की सेवा की है, यह कोई अपराध नहीं है। फिर भी सरकार सज़ा देना चाहे, तो मुझे मंज़ूर है . . . हाँ, मेरी सहेलियों ने जो कुछ किया, सिर्फ़ मेरे कहने पर किया। इसलिए जो भी सज़ा मिले, सिर्फ़ मुझे मिले। मेरी सहेलियों का कोई क़ुसूर नहीं है . . . उन्हें छोड़ दिया जाए।”
मुक़द्दमा चला तो अदालत में ‘वंदेमातरम्’ और ‘महात्मा गाँधी की जय’ के नारे गूँजने लगे। वनमाला को दो साल की सज़ा सुनाई गई और उसकी सहेलियों को छोड़ दिया गया।
♦ ♦ ♦
जेल में वनमाला बुरी तरह बीमार पड़ गई . . .
उसकी सेहत बिगड़ती जा रही थी। सूखकर काँटा हो गई थी वनमाला, पर उसकी हिम्मत बरक़रार थी। उसने जेल में दूसरी महिला क़ैदियों से हमदर्दी से बात की, तो उसे पता चला कि देश में कितनी ग़रीबी, कितनी अशिक्षा और अंधविश्वास है, जिसकी वजह से स्त्रियों की बुरी हालत है। स्त्रियों की अगर यही हालत रही तो देश कैसे ऊँचा उठेगा?
वनमाला ने मन ही मन जैसे कुछ निश्चय कर लिया था।
दो साल बाद जेल से छूटकर वह बापू से मिली और कहा, “मैं स्त्रियों के कल्याण के लिए काम करना चाहती हूँ। आप मुझे आशीर्वाद दीजिए . . .”
बापू ने उसे सुदूर गाँवों में जाकर काम करने की सीख दी। और वनमाला ने यही किया। जिन ग़रीब गाँव वालों के बीच वह काम करती थी, उन्होंने उसके लिए एक छोटा-सा आश्रम बना दिया। वनमाला वहाँ रहती और स्त्रियों को लिखना-पढ़ना सिखाती। उनके बीच नई जागृति की लहर पैदा करती।
आज़ादी के बाद कांग्रेस के बड़े नेताओं ने संदेश भेजा, “वनमाला, तुमने देश की आज़ादी के लिए अपना सब कुछ क़ुर्बान कर दिया . . . देश की जनता तुम्हें चाहती है। इसलिए अब जहाँ से भी तुम चुनाव लड़ना चाहो, बता दो। वहाँ का टिकट तुम्हें मिल जाएगा . . .”
पर वनमाला तो किसी और ही मिट्टी की बनी थी। उसने जवाब दिया, “मुझे तो ख़ुद बापू ने टिकट दिया था। देशसेवा का टिकट। उससे बड़ा टिकट भला कोई क्या देगा? . . . देश को अभी आधी आज़ादी मिली है। उस आधी आज़ादी को पूरी आज़ादी में बदलने के लिए मुझे जैसे हज़ारों लोगों को अपनी जान क़ुर्बान करनी होगी . . . मैं उसी काम में लगी हूँ, और अपने जीवन की आख़िरी साँसों तक उसे करती रहूँगी।”
और सचमुच उसने देश के लिए अपनी जान क़ुर्बान कर दी। उसने अपनी एक-एक साँस देश पर क़ुर्बान की, जब तक कि कैंसर ने एक दिन . . .! यों एक दिन उसकी कहानी ख़त्म हुई।
तारीख़ थी 15 अगस्त, 1961 . . . जिस दिन ख़त्म हो गई वह विद्रोहिणी वनमाला . . .!!
♦ ♦ ♦
वनमाला की कहानी के आख़िरी छोर तक पहुँचते-पहुँचते सोमेश का स्वर भर्रा गया था। अपनी रुलाई को रोकते हुए उसने धीरे से आँसू पोंछ लिए।
“पर कैंसर . . .?” परमेश्वरी बाबू ने पूछा।
“हाँ, ब्लड कैंसर था . . .! पता चला तो मैं गया था। रोते-रोते बोला कि अब घर चलो दीदी। अब तक तो तुमने हमारी कभी नहीं सुनी, पर अब . . .?” सोमेश बोला।
“पर नहीं, मेरी बात नहीं मानी उन्होंने . . . बस इतना ही कहा कि देख, मेरी कहानी तो अब ख़त्म हो रही है सोमू। मुझे शान्ति से मृत्यु की गोद में सो जाने दो मेरे अच्छे भैया . . . वैसे भी ये ग्रामीण बंधु मेरे भाई-बंधु हैं। ज़िन्दगी भर इन्होंने मेरा ख़्याल रखा। अब आख़िरी समय इनसे दूर ले जाएगा, तो ये क्या सोचेंगे? . . . कहकर हौले से मेरी पीठ और कंधा थपथपाया दीदी ने . . .
“देर तक असीसों की बारिश करती रही। फिर बहुत भावुक होकर अपने जीवन की कुछ ऐसी बातें उन्होंने बताईं, जिनसे उनका जीवन बदल गया। बदलता चला गया . . . उनके जीवन में रोशनी आई, और देश के लिए मर मिटने की लौ पैदा हुई। इनमें बहुत सी बातें मुझे बिल्कुल पता नहीं थीं। और हाँ, उस दिन उन्होंने बड़े प्यार से माँ और बाबू को याद किया। दादा जी को याद किया, जिन्होंने उन्हें समझाया कि ग़ुलामी कितनी बुरी चीज़ है। और सारे भारतवासी इकट्ठे हो जाएँ, तो मुट्ठी भर अँग्रेज़ों को इस देश से भगाना कोई मुश्किल काम नहीं है . . .
“इतना ही नहीं राजेश्वर बाबू, उस दिन—उस आख़िरी मुलाक़ात वाले दिन अपने बचपन के दिनों को उन्होंने बहुत प्यार से याद किया, और ख़ुद मेरे बचपन की भी दो-तीन बातें बताईं। बोलीं, तू भोला था, बहुत भोला . . . और अब भी वैसा ही है। इसलिए मुझे तू इतना अच्छा लगता है सोमू!
“फिर बड़े प्यार से मेरा सिर पुचकारकर, मुझे घर भेज दिया . . . और उसके ठीक एक महीने बाद समाचार—वनमाला नहीं रही। कैंसर ने आख़िर रात में सोते हुए उसके प्राण . . .!”
कुछ रुककर बताया सोमेश ने, “हम लोग भागे-भागे गए। मैं, मेरी पत्नी मालिनी और बेटा नवेंदु . . . दीदी के चेहरे पर इतनी शान्ति थी, जैसे बहुत गहरी नींद में सो रही हो . . .!”
♦ ♦ ♦
सोमेश कुछ देर रुका। उसने परमेश्वरी बाबू के चेहरे पर एक नज़र डाली। कुछ खोई-खोई सी नज़र। फिर एक गहरी साँस लेकर कहा—
“हाँ, परमेश्वरी बाबू, मेरे लिए एक चिट्ठी भी छोड़ गई थी दीदी। उसकी आख़िरी चिट्टी। 12 अगस्त, 1961 तारीख़ उस पर पड़ी है . . . दीदी ने लिखी था—मेरे लिए शोक मत करना मेरे प्यारे भाई। मैंने देश के लिए अपना सब कुछ अर्पित किया। ऐसी मृत्यु शोक नहीं, गर्व करने लायक़ है . . . अभी तो भाई, आगे देश के लिए बहुत काम करने की दरकार है। देश की आज़ादी की लड़ाई से सौ गुनी लंबी और मुश्किल लड़ाई है अपनी इस अधूरी आज़ादी को पूरी आज़ादी में बदलने की . . .
और उस चिट्ठी की आख़िरी सतरें थीं—
“मेरे प्यारे भैया सोमू, तू पता नहीं, मेरी बात को समझेगा या नहीं . . . पर याद रखना दीदी की बात, कि अभी तो यह देश बहुत कर्बानियाँ माँग रहा है। मेरे जैसी बहुत वनमालाओं को अपनी जान क़ुर्बान करनी होगी। पर समय आएगा एक दिन . . . ज़रूर आएगा, जब फिर से इस देश का भाग्य चमकेगा। हमारा भारत फिर से सारी दुनिया का सरताज बनेगा!”
परमेश्वरी बाबू और राजेश्वर चुपचाप सुन रहे थे। इतने शांत कि एक-दूसरे की साँस भी सुनाई पड़े। फिर किसी से कुछ कहा नहीं गया।
“अच्छा . . . विदा दीजिए, अब चलूँ!” परमेश्वरी बाबू ने कहा, तो वहाँ बैठे सभी लोगों की आँखें गीली थीं।
थोड़ी देर बाद परमेश्वरी बाबू और राजेश्वर लौट रहे थे तो द्वार तक छोड़ने आए सोमेश, मालिनी जी और उनका बेटा नवेंदु . . . सभी चुप। एकदम चुप। लेकिन वह चुप्पी बहुत बोल रही थी। भीतर-भीतर हलचल मचाती हुई।
अगले दिन परमेश्वरी बाबू लौट गए। चलते-चलते उन्होंने कहा, “बहुत अच्छा रहा राजेश्वर कि तुमने वनमाला की याद दिला दी। वरना वनमाला की कहानी न जुड़ती तो मेरी किताब हमेशा अधूरी ही रहती . . .!”
आगे न उनसे कुछ कहा गया, न राजेश्वर सहाय से।
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