देवेंद्र सत्यार्थी: एक बूढ़े फ़रिश्ते की यादें
प्रकाश मनु
अपने गुरु और लोक साहित्य के फ़क़ीर देवेंद्र सत्यार्थी जी पर कुछ लिखने का जतन बहुत दिनों से कर रहा हूँ, पर पता नहीं क्यों, शब्द साथ नहीं देते। बार-बार लगता है कि क्या मैं सचमुच लिख पाऊँगा उस शख़्स के बारे में, जो दिल्ली में मुझे किसी फ़रिश्ते की तरह मिला था। और मेरा सारा जीवन ही बदल गया।
उनसे मिलकर मुझे लगा था, जैसे मेरी आत्मा निर्मल और उजली हो गई है, और काम करने की अनंत राहें मेरे आगे खुल गई हैं। लिखना क्या होता है, यह मैंने पहलेपहल उनके पास बैठकर जाना था।
उन्होंने अपने ख़ास, बहुत ख़ास अंदाज़ में मुझे बताया कि लिखना केवल लिखना ही नहीं, लिखना अपने आपको माँजना था, जिससे अपने भीतर और बाहर उजाला होता है।
यह एक नई ही सोच, नई दुनिया थी, जिससे मैं अब तक अपरिचित था।
सच कहूँ तो सत्यार्थी जी ने मुझे भीतर से और बाहर से इस क़द्र बदला था कि सारी दुनिया मेरे लिए नई-नई हो गई। ख़ुद को और चीज़ों को देखने का सारा नज़रिया ही बदल गया। साहित्य और कलाओं की भी एक अलग दृष्टि उनसे मिली, जिससे मेरे भीतर अब तक बने सोच के दायरे छोटे लगने लगे।
लगा, जीवन तो एक महाकाय समंदर है जिसे शब्दों में बाँधा नहीं जा सकता। ऐसे ही साहित्य हो, संगीत या अन्य कलाएँ, सबसे पहले तो ये हृदय की आवाज़ हैं, फिर कुछ और। अपना हृदय खोलकर हम उनके निकट जाते हैं, तो हमारे भीतर से वेगभरे झरने फूट पड़ते हैं। साहित्य और कला की हर तरह की रूढ़ परिभाषाएँ तब बेमानी हो जाती हैं।
किसी पुराने उस्ताद की तरह सत्यार्थी जी बता रहे होते थे, तो मैं अवाक् सा उहें सुनता था।
उन्हें लोकगीतों का दरवेश कहा जाता था, जिसने अपनी पूरी ज़िन्दगी लोकगीतों के संग्रह में लगा था। पूरे देश के गाँव-गाँव, गली-कूचे, खेत और पगडंडियों की न जाने कितनी बार परिक्रमा। लोकगीतों का अनहद नाद उनके भीतर गूँजता था। वही उन्हें यहाँ से वहाँ, वहाँ से वहाँ ले जाता था। न भाषा इसमें कोई दीवार बनती थी और न प्रांतों की सरहदें। इसलिए कि वह एक ऐसा शख़्स था, जो पूरे देश की आत्मा से एकाकार हो चुका था।
इसीलिए लोकगीत भी उसके लिए केवल लोकगीत नहीं, बल्कि धरती की आवाज़ें थीं, जिनमें जनता के सुख-दुख, अंतर्मन की पीड़ा, आनंद और उल्लास फूट पड़ता था। सत्यार्थी जी लोकगीतों में खेत की फ़सलों का हुमचता संगीत सुनते थे, और मुक्त हवाओं के साथ खिलखिलाती ज़िन्दगी का सुर-ताल भी।
अक्सर उनकी जेब में चार पैसे भी न होते, और वे पूरे भारत की परिक्रमा करने निकल पड़ते। कहाँ जाएँगे, कहाँ नहीं, कुछ तय न था। कहाँ ठहरेंगे, क्या खाएँगे-पिएँगे, किस-किस से मिलेंगे, कुछ पता नहीं। बस, पैर जिधर ले जाएँ, उधर चल पड़ते। हवाओं के वेग की तरह वे भी जैसे बहते चले जाते। भिन्न भाषा, भिन्न संस्कृति, भिन्न लोग। . . . पर मन में सच्ची लगन थी, इसलिए जहाँ भी सत्यार्थी जी जाते, वहाँ लोग मिल जाते थे। ऐसे भले और सहृदय लोग, जो लोकगीतों का अपना ख़ज़ाना तो इस फ़क़ीर को सौंपते ही, साथ ही उन लीकगीतों के अर्थ और गहनतम आशयों को जानने में भी मदद करते।
इतना ही नहीं सत्यार्थी जी बार-बार लोकगीतों को सुनकर, उनकी लय को दिल में बसा लेते। फिर जब वे ‘हंस’, ‘विशाल भारत’, ‘माडर्न रिव्यू’ या ‘प्रीतलड़ी’ सरीखी पत्रिकाओं में उन पर लेख लिखते तो लगता, उनके शब्द-शब्द में सचमुच धरती का संगीत फूट रहा है। यही कारण है कि लोकगीतों पर लिखे गए सत्यार्थी जी के लेखों ने गुरुदेव टैगोर, महामना मालवीय, महात्मा गाँधी, राजगोपालाचार्य, के.एम. मुंशी और डब्ल्यू.जी. आर्चर सरीखे व्यक्तित्वों को भी प्रभावित किया था। और गाँधी जी ने तो सत्यार्थी जी के इस काम को आज़ादी की लड़ाई का ही एक ज़रूरी हिस्सा माना था . . .
पर इन्हें लिखने वाले देवेंद्र सत्यार्थी तब भी बच्चों जैसे सरल थे, और अंत तक बच्चों जैसे सरल और निश्छल ही रहे।
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सत्यार्थी जी मेरे गुरु थे। अपना कथागुरु मैं उन्हें कहता हूँ, पर सच तो यह है कि उन्होंने मुझे सिर से पैर तक समूचा गढ़ा था। मैं आज जो कुछ भी हूँ, उन्हीं के कारण हूँ।
जिन दिनों सत्यार्थी जी से मिलना हुआ, मैं दिल्ली में नया-नया ही आया था और कुछ डरा-डरा सा रहता था। दिल्ली मुझे रास नहीं आ रही थी . . .। मैं सीधा-सादा क़सबाई आदमी। चेहरे पर चेहरे चढ़ाने की कला मुझे आती नहीं थी। भीतर कुछ और बाहर कुछ, ऐसा न मैं हो सकता था, और न होना ही चाहता था। पर यहाँ आकर शुरू-शुरू में ही जिस तरह के चिकने-चुपड़े और दोरंगी चाल चलने वाले लोग मिले, उन्होंने मुझे लगभग स्तब्ध और भौचक्का सा कर दिया था।
सो दिल्ली मुझे बेगाना सा शहर लगता था। अंदर कोई कहता था, “यहाँ से भाग चलो, प्रकाश मनु। यह शहर तुम्हारे लायक़ नहीं है या शायद तुम ही इसके लायक़ नहीं हो . . .!”
मुझे लगता था, भला कोई सीधा-सादा आदमी दिल्ली में कैसे रह सकता है? पर सत्यार्थी जी से मिला तो लगा, “अरे, ये तो मुझसे भी सीधे हैं। बिल्कुल बच्चों की तरह . . .। अगर ये दिल्ली में रह सकते हैं तो मैं क्यों नहीं?”
सच पूछिए तो पहली बार सत्यार्थी जी ने मुझे जीना सिखाया। उन्होंने एक मीठी फटकार लगाते हुए कहा, “तुम अपने आनंद में आनंदित क्यों नहीं रहते हो? . . . ख़ुश रहा करो मनु . . .। तुमने कोई अपराध थोड़े ही किया है। खुलकर हँसना सीखो, खुलकर जियो . . . हमें यह जीवन आनंद से जीने के लिए मिला है। अगर तुम यह सीख लो तुम्हें कोई मुश्किल नहीं आएगी।”
और सचमुच सत्यार्थी जी के नज़दीक आते ही, मेरे आगे रास्ते खुलते चले गए थे। मुझे जीने का तरीक़ा आ गया था।
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इसी तरह सत्यार्थी जी ने ही पहली बार मुझे साहित्य और कला का गुर बताया था।
एक दफ़ा कहानी की बात चल रही थी, तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, “मनु, अगर तुम देखो, तो तुम्हारे चारों ओर कहानियाँ ही कहानियाँ बिखरी हुई हैं। तुम्हारे आसपास की हर चीज़, यहाँ तक कि सड़क पर पड़े पत्थर के एक छोटे से अनगढ़ टुकड़े की भी एक कहानी है। तुम उसके नज़दीक जाओ तो लगेगा, वह अपनी कहानी सुना रहा है . . .। तुम्हारे आसपास जितने भी लोग हैं, सबकी कोई न कोई नायाब कहानी है। बस, उन्हें सहानुभूति से देखने, समझने और पहचानने की ज़रूरत है . . .!”
इसी तरह एक दिन मैं अपनी एक मार्मिक आत्मकथात्मक कहानी ‘यात्रा’ उन्हें सुना रहा था। कहानी सुनकर वे बोले, “मनु तुमने सचमुच अच्छी कहानी लिखी है, जिसमें तुम्हारा दिल बोलता है . . .। कहानी तो कुछ ऐसी ही चीज़ है, जो दिल से दिल में उतर जाए . . .”
फिर कुछ देर की चुप्पी के बाद उन्होंने कहा, “याद रखो मनु, जब तुम कोई कहानी लिखते हो तो कहानी भी तुम्हें लिखती है। इसलिए कोई अच्छी कहानी लिखकर तुम वही नहीं रह जाते, जो लिखने से पहले थे . . .। बल्कि कहानी तुम्हें बदलती भी है। वह तुम्हें भीतर ही भीतर एक अच्छे संवेदनशील आदमी में बदल देती है . . .!”
यह ऐसी बात थी कि मैं देर तक उन्हें देखता रह गया था। आज भी मैं सोचता हूँ तो लगता है, कितनी बड़ी बात उन्होंने कही थी, जिसके पूरे मानी आज खुल रहे हैं।
ऐसे ही एक दिन एक मूर्तिकार की कहानी वे सुना रहे थे। सुनाते-सुनाते एकाएक बोले, “देखो मनु, हर पत्थर में मूर्ति तो पहले से ही मौजूद होती है। बस, उसके फ़ालतू हिस्सों को काटने-छाँटने और तराशने की ज़रूरत है . . . और हर कलाकार यही करता है . . .!”
मुझे लगता है, शायद इससे कोई बड़ी बात मूर्तिकला के लिए कही नहीं जा सकती।
सत्यार्थी जी बातें करते-करते बहुत सहजता और आहिस्ता से ऐसी बहुत बातें कह जाते थे, जिन पर मैं बाद में विचार करता, तो मेरी पहले से बनी-बनाई सोच टूटकर बिखर जाती, और मुझे नए सिरे से चीज़ों पर सोचना पड़ता।
असल में सत्यार्थी जी सोच की तंगदिली बरदाश्त नहीं करते थे। उन्हें हर चीज़ पर खुले और उदार ढंग से सोचना पसंद था, और यही चीज़ उन्हें एक बड़ा इन्सान और बड़ा साहित्यकार बनाती थी।
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सत्यार्थी जी को गुज़रे कोई बाईस बरस हो गए, पर आज भी उनकी यादें पग-पग पर मुझे इस क़द्र घेर लेती हैं कि वे आज नहीं हैं, यह सोच पाना मेरे लिए कठिन हो जाता है।
उनके ख़ूबसूरत दाढ़ीदार चेहरे पर बिछलती खुली और उन्मुक्त हँसी, उनकी असाधारण क़िस्सागोई और उस्तादाना बातें याद आती हैं तो लगता है कि ऐसा इन्सान तो कभी जा ही नहीं सकता। और उन जैसा प्यार तो शायद कोई और कर ही नहीं सकता। एक बच्चा भी अगर उके पास पहुँच जाए तो उसके साथ वे घंटों बड़े प्यार से बतिया सकते थे।
यादें . . . यादें और यादें। बेशुमार यादों का एक क़ाफ़िला . . .। और यादों का यह अधीर क़ाफ़िला उस ख़ाना-बदोश की तलाश में है जो कभी था, मगर अब नहीं है।
सत्यार्थी जी आज होते तो गुज़री 28 मई को एक सौ बारह बरस के हो जाते। वे अब नहीं हैं, पर कहाँ नहीं हैं? उनके अजब-ग़ज़ब क़िस्से और ठहाके हर रोज़ सुनाई देते हैं। वे वहाँ-वहाँ हैं जहाँ ज़िन्दगी और ज़िन्दगी का धड़कता हुआ इतिहास है।
मेरे लिए इस ख़ाना-बदोश की कहानी इसलिए हर रोज़ फिर-फिर शुरू होती है। फिर-फिर नए रूप में शुरू होती है और एक अंतहीन कथा में ढलती जाती है। लगता है, मेरे ज़िन्दा रहते तो शायद यह पूरी होगी नहीं। इसलिए कि इसी कथाघाट पर तो वह कहानियों वाला फ़रिश्ता रहता था। ग़ज़ब का क़िस्सागो। इस क़द्र कहानियों, कहानियों और कहानियों से पाट दिया था उसने पूरा कथाघाट, कि इस पर फिर किसी और के आने की गुंजाइश ही नहीं बची।
तो चलिए, इस अद्भुत कथाघाट से ही शुरू करें उस दरवेश की कहानी।
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असल में हुआ यह कि मैं एक कहानी के सिलसिले में गया था सत्यार्थी जी के पास। ‘नंदन’ के उपहार विशेषांक के लिए एक कहानी सत्यार्थी जी की मिल जाए, तो क्या कहना! तब के नंदन-संपादक जटप्रकाश भारती जी का कहना था। मगर सवाल तो सत्यार्थी जी को पा जाने का था। सत्यार्थी जी कहाँ मिलेंगे?
क्या यह शख़्स दिल्ली में ही मिल जाएगा? मैं चकित। आँखों से खदबदाता अविश्वास! पलकें तेज़ी से झपझपाने लगीं। यह भला कोई ऐसा शख़्स है कि चाहने पर मिल जाए और आप चाहें तो उससे बात भी कर लें। नहीं-नहीं, सत्यार्थी तो आधी रात में महकने वाले बेला की तरह किसी लोककथा का कभी पकड़ में न आने वाला अनबूझा नायक है, ज़िन्दगी जिसने लोकगीतों का पीछा करते, भटकते बिता दी।
पाँच लाख लोकगीत . . .! कल्पना करें तो आँखें फटती हैं। इस अकेले आदमी ने एक साथ कितनी ही ज़िंदगियाँ जी लीं। कितनी मशहूर, कितनी गुमनाम! देश के हर हिस्से, हर कोने की धूल, पानी और पगडंडियों का स्वाद जिसके पैर, ज़ुबान और आँखें जानती हैं। और मैं—यानी मुझ जैसा मामूली आदमी उनसे बात कर लेगा? कहाँ ढूँढ़ूँ उन्हें? कोई पता-ठिकाना?
“भाई, कोई पता-ठिकाना थोड़े ही होता है फ़क़ीर का। रमता जोगी है। अभी यहाँ तो अभी वहाँ। चेहरे पर लहलहाता भव्य जंगल . . .। यानी ख़ूब भरी-पूरी सफ़ेद दाढ़ी। कुछ-कुछ गदराई हुई। पुराने ऋषियों जैसी। पर उसमें से बुज़ुर्गियत कम, बच्चों का-सा भोलापन ही अधिक टपकता है!”
उस अलमस्त फ़क़ीर का यही परिचय मुझे बताया गया था।
और हाँ, बग़ल में झोला। झोले में पांडुलिपियाँ, पुस्तकें, पत्रिकाएँ, ज़माने-भर के मीठे-तीते दुर्लभ अनुभव।
एक से एक होड़ लेतीं कहानियाँ . . .।
“आप पर मेहरबान हो गए तो झट झोले में से निकालकर कहानी पकड़ा देंगे। या फिर कहेंगे—बैठ जाओ यहीं, लो लिखो! और कहानी तैयार!” नंदन-संपादक भारती जी ने बताया तो मेरी आँखें झपक-झपक।
“हैं, ऐसा . . .!” अचरज पर अचरज।
क्या मैं दुनिया के एक अनोखे आदमी से मिलने जा रहा हूँ, जैसा कोई और है नहीं। होता भी नहीं।
मेरा धैर्य अब सभी रस्सियाँ तुड़ाकर भागमभाग पर उतारू था। कलेजा फुदक-फुदक! यों मुझे लगा कि इस व्यक्ति का इससे सही परिचय और हो ही क्या सकता है? लेकिन इस तरह कैसे ढूँढ़ पाऊँगा उसे? दिल्ली के किस-किस गली-कूचे में पीछा करूँ इस ख़ुद्दार कला-पुरुष का? तबीयत करती थी, अभी पा जाऊँ और बातों का पिटारा खोल दूँ।
कितनी ही बातें करनी थीं मुझे, जो कभी किसी से कीं ही नहीं—ज़िन्दगी के बारे में, साहित्य के बारे में, आदमी के बारे में। मेरी तमाम उधेड़-बुन बुरी तरह किसी ‘एक’ की प्रतीक्षा में थी, जो और कुछ भी हो, मगर ‘दुनियादार’ न हो। मगर दिल्ली में मिले थे अभी तक चतुर, सयाने लोग ही। और साहित्य की दुनिया भी कोई अपवाद नहीं थी।
फिर एक और भद्र व्यक्ति ने मदद की। उसने सुझाया, “मनु जी, आप कॉफ़ी हाउस क्यों नहीं चले जाते? मेरा मतलब है, मोहनसिंह पैलेस! वहाँ मस्ती से ठहाके लगाता, झकाझक सफ़ेद दाढ़ीदार व्यक्तित्व नज़र आए, बग़ल में कोई बेडौल-सी भारी-भरकम पांडुलिपि दबाए, तो बेखटके उसके पास चले जाइए . . .। वे यक़ीनन सत्यार्थी जी ही होंगे।”
सच कहूँ, मेरे मन के किसी कोने में ज़रा-सा हौल भी था। पूछ लिया डरते-डरते, “बात तो ठीक से करते हैं न! मेरा मतलब है, कुछ तेज़-मग़्ज़ या बिगड़ैल . . .?”
वह हँसा। खुलकर हँसा। हँसता रहा कुछ देर, फिर कहा, “चिंता न करो, स्वागत होगा। वे छोड़ेंगे नहीं आपको।”
और फिर हँसी। बड़ी भेद-भरी, रहस्यमय हँसी।
बहरहाल शाम को मेरे पैर मोहनसिंह पैलेस की ओर मुड़ गए। मगर झकाझक सफ़ेद दाढ़ी वाला, ठहाके लगाता वह बूढ़ा कहीं नज़र नहीं आया। दो-एक दिन जाया करने के बाद लगा—नहीं भाई, कुछ गड़बड़ है। अब और यहाँ नहीं, कहीं और ढूँढ़ना होगा।
लेकिन कहाँ?
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तब दिल्ली आए तीन साल हो गए थे। फिर भी मैं दिल्ली से बेगाना था। डरा-डरा सा। मुझे हमेशा यह एक ऐसा शहर लगा, जहाँ माचिस की डिब्बियों पर डिब्बियों की तरह बेढंगी, ऊँची-ऊँची बिल्डिंगें हैं, दफ़्तर, दुकानें, मकान, चमचमाते बोर्ड, ख़ूबसूरत नेमप्लेटें, मगर घर कोई नहीं।
जहाँ चेहरे ही चेहरे हैं, चेहरों का पूरा एक हुजूम। कंकरीटी बीहड़ जंगल और उसमें गूँजता शोर भरा सन्नाटा . . .। मगर आदमी कोई नहीं जो आपका पहचाना हुआ है। दुख-सुख में जिसे आप छू सकें। ऐसे में सत्यार्थी से मिलने का सपना या कमसकम उसकी बात ही छिड़ जाना, एक अजीब तरह का सुकून था मेरे लिए।
जिससे भी बात करता, वह कोई न कोई लतीफ़ा या कुछ मज़ेदार जानकारी और जोड़ देता इस घुमंतू लेखक के बारे में। शुरू-शुरू में अटपटा लगा, मगर फिर मुझे मज़ा आने लगा। सोचता, कैसा होगा वह व्यक्ति जो जीते-जी सैकड़ों किंवदंतियों के घेरे में आ गया!
कोई उन्हें महान साहित्यकार टॉलस्टाय सरीखा बताता, कोई टैगौर जैसा।
किसी ने कहा, दिल्ली में कोई फ़रिश्ता हो, तो सोचो, वह कैसा होगा . . .। बस, वैसे ही हैं सत्यार्थी जी!
किसी और ने कहा, नहीं, फ़रिश्ता नहीं, दरवेश। सच्ची-मुच्ची दरवेश!
फिर आख़िर पता चला कि यह अनोखा शख़्स नई रोहतक रोड पर लिबर्टी के सामने रहता है। मकान नंबर वग़ैरह तो बताने वाले को भी पता नहीं था।
“आप स्वयं मिलने जाएँगे न! वहाँ आसपास पूछ लीजिएगा। बताइएगा, मशहूर साहित्यकार हैं, अक्सर दाढ़ी और ख़ूब लंबे, बादामी कोट में नज़र आते हैं। कोई भी बता देगा।”
“कोई भी . . .?” फिर से आँखें झपक-झपक।
फिर से एक जंतर-मंतर मेरे आगे खुल गया। मैं उसमें प्रवेश के लिए रास्ता टोह रहा था। लेकिन बताने वाला तो बताकर जा चुका था।
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और पहली बार में तो नहीं, पर दूसरे चक्कर में सचमुच सत्यार्थी जी मिले। और लगा, कि सच्ची-मुच्ची ये तो टॉलस्टाय जैसे भी हैं, टैगोर जैसे भी . . .। एक फ़रिश्ता भी, दरवेश भी।
पहली बार महानगर के कंकरीटी जंगल के बीच निश्छलता से ठहाके लगता एक अलमस्त आदमी मिला। एक घर जैसा घर, और एक ऐसा साहित्यकार जो अपने कृतित्व से भी चार अंगुल ऊँचा था। और इतना निरभिमानी, कि आप यक़ीन नहीं कर पाते, जो आप देख रहे हैं, वह सच ही है!
बातें, कितनी ही बातें मैं करना चाहता था। और सत्यार्थी जी को बातों की रौ में बहते जिन्होंने देखा है, वही जान सकते हैं कि यह शख़्स कैसे एक जादू-सा जगा देता है दिल में। सचमुच, एक आवाज़ की-सी आवाज़ है उसकी!
मिलते ही पहली बात जो मुझे लगी, वह यह कि इस आदमी की दाढ़ी में जादू है या फिर इसकी बातों में। बाद में मशहूर अभिनेता बलराज साहनी को पढ़ रहा था, तो मेरी बात पर ख़ुद-ब-ख़ुद ठप्पा लग गया। अपनी नवोढ़ा पत्नी दमयंती का सत्यार्थी जी से परिचय कराते हुए उन्होंने कहा था, “दम्मो, इस आदमी की दाढ़ी में जादू है!”
बातों के बीच सामने की पूरी दीवार में बनी अलमारी पर ध्यान गया। उस विशाल अलमारी में किताबें ही किताबें। बेतरतीब ढंग से रखीं बेहिसाब किताबें। सत्यार्थी जी ने ख़ुद कहीं इनकी तुलना नन्ही-नन्ही चिड़ियों की चहचहाहट से की है, जो रोज़ सुबह-सुबह जगा देती हैं, “जागो मोहन प्यारे!”
कमरे में सत्यार्थी जी के कितने ही भव्य चित्र हैं। एक चित्र में गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर के साथ बैठे हैं। गुरुदेव सफ़ेद दाढ़ी में, कृशकाय। सत्यार्थी जी की दाढ़ी तब ख़ूब काली-काली चमकदार रही होगी। मगर व्यक्तित्व वैसा ही घना-घना। ज़रा विनय से गुरुदेव के आगे झुका माथा . . .।
चित्र में भी गुरुदेव की आँखों से छलकता स्नेह और दूर से ही छू लेने वाली आत्मीयता छिपती नहीं।
कमरे में सत्यार्थी जी के कुछ नए-पुराने चित्र और पोर्ट्रेट भी है . . .। पता नहीं, किन-किन कलाकारों ने सत्यार्थी जी के ये ख़ूबसूरत पोर्ट्रेट बनाए, कि लगता है, कमरे में एक नहीं, कितने ही सत्यार्थी उपस्थित हैं। और हर चित्र, हर पोर्ट्रेट की एक अलग कहानी।
यों सत्यार्थी जी की उम्र के हर मोड़ पर कितनी ही ठिठकी, ठहरी हुई कहानियाँ हैं, बाहर आने को बेचैन। और हर बात के पीछे क़िस्सा। क़िस्से में कोई असाधारण घटना, कोई छिपा हुआ गहरा संदर्भ। ‘लाहौर के दिनों की बात है . . .’, या ‘जब मैं पेशावर गया . . .’, ‘अमृतसर में एक व्यक्ति मिला . . .’, ‘अजीब इत्तिफ़ाक़ है . . .’, जैसा कोई भी वाक्य या वाक्यांश धीरे से सत्यार्थी जी के होंठों पर आएगा, और उसके पीछे-पीछे एक पूरी घटना बाहर आने के लिए ज़ोर मार रही होगी।
लगता है, एक पूरा का पूरा ‘महाकाव्य’ जिया है इस आदमी ने। देश के हर क्षेत्र के जाने-माने स्वनामधन्य लोग इसके प्रमुख पात्र हैं, इतिहास इसका कथानक है और पृष्ठ-पृष्ठ में जीवन की आवेगपूर्ण घटनाएँ और उथल-पुथल समाई है। बेछोर, विस्तृत कैनवस पर जहाँ-तहाँ बिखरे छोटे, मामूली पात्रों की भी कम अहमियत नहीं। कभी-कभी उनकी चमक बड़े-बड़े नामी-गिरामी साहित्यकारों और राजनेताओं को भी पीछे छोड़ देती है।
यों यह बात भी कोई कम क़ाबिल-ए-ग़ौर नहीं कि पिछली अर्धशताब्दी का शायद ही कोई बड़ा साहित्यकार, कलाकार, समाजसेवी या राजनेता हो, जिसका सत्यार्थी जी से आमना-सामना न हुआ हो और छूटते ही सत्यार्थी जी जिसके बारे में कुछ क़िस्से, कुछ घटनाएँ बयान करने की हालत में न हों।
सत्यार्थी जी ने ज़माने को देखा है और घुसकर देखा है, इसका सबूत यह कि उनके पास लिखी, अनलिखी, अधलिखी बेशुमार कहानियाँ हैं। नहीं, शायद मैंने ग़लत कहा। उनके आरपार बेशुमार कहानियाँ बुनी हुई हैं और वे ख़ुद इन कहानियों का हिस्सा बन गए हैं। उनकी हर यात्रा कहानी से कहानी तक की यात्रा होती है और शायद इससे भी बड़ा सच है कि वे कहानियों में ही साँस लेते हैं। कहानियों में कहानियाँ इस क़द्र गुत्थमगुत्था कि कब एक कहानी ख़त्म हुई और दूसरी शुरू हो गई, कुछ पता ही नहीं चलता।
तो इस तरह सत्यार्थी जी की बातें थीं और बातों में साहित्य, कला, लोकयान। घुमक्कड़ी के क़िस्से, गाँधी, गुरुदेव, लाहौर का सफ़रनामा और . . . और मैं!
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सत्यार्थी जी ने बातों-बातों में जब मुझे काफ़ी ऊँचा उछाल दिया और वहाँ मुझे कोई झटका-सा लगा, तो अचानक दफ़्तर याद आ गया।
आख़िर मैं सत्यार्थी जी से कहानी लेने आया था। जल्दी से ‘विषय’ पर लौटते हुए मैंने अपनी समस्या बताई, “बच्चों के लिए सीधी-सादी भाषा में लिखी हुई कहानी हमें चाहिए, जैसे दादी-नानी की कहानियाँ हुआ करती थीं। हमारी पत्रिका उसी परंपरा को अब भी जीवित रखे हुए हैं। हाँ, रूप बदल गया है, सुनाने के बजाय छपी हुई कहानी . . .!”
“आप बेफ़िक्र रहिए। रचना भी आख़िर रोटी सेंकने की तरह है न! रोटी न ज़्यादा सिंकी होनी चाहिए, न कम सिंकी। यानी न एक आँच कम, न एक आँच ज़्यादा। वैसे ही रचना भी पकती है। आपके लिए कोई अच्छी-सी कहानी ढूँढ़ूँगा, और सही आँच—न कम, न ज़्यादा!”
चश्मे के पीछे आँखों में चमकती हँसी। मुझे लगा, एक हलका-सा व्यंग्य भी है कि कल का छोकरा मुझे बताने चला है, कहानी कैसे लिखी जाती है!
एक बात यह भी समझ में आई कि साहित्य और कला की बड़ी से बड़ी बातों को कोई चाहे तो कितनी मामूली भाषा में कह सकता है, “रचना भी आख़िर रोटी सेंकने की तरह है न! . . . यानी न एक आँच कम, न एक आँच ज़्यादा . . .!” पर उसके लिए आपके पास एक उस्ताद की सी आँख होनी चाहिए।
सत्यार्थी जी के पास वह आँख थी। इसीलिए बड़ी से बड़ी बातों को खेल-खेल में कह देना उन्हें आता था।
मैं उठने को हुआ। तभी उन्होंने एक भारी-भरकम पांडुलिपि मेरी ओर बढ़ा दी, “आप जब इतनी दूर से आए हैं, तो ज़रा इसे पढ़ते जाइए। नज़र का धागा पिरा दीजिए!”
अब ठीक-ठीक तो नहीं कह सकता कि वह कौन-सी कहानी थी। पर इतना याद है कि वह कहानी से काफ़ी हटकर एक कहानी थी, जिसमें गुलहिमा थी और मिस फोकलोर, मोहनजोदड़ो की खुदाई से निकली नर्तकी, फ़ादर टाइम, महाश्वेतम् और न जाने क्या-क्या! अनुभवों का पूरा पिटारा। मिथकीय रहस्यों का कुहर-जाल और जीवन की कटु, बेहद कटु और त्रासदायक सच्चाइयाँ! . . .
साहित्य और कला की सोच का जो एक आड़ा-तिरछा फ़्रेम मेरे मन में था, उसकी धज्जियाँ उड़ने की नौबत आ गई। मैं जैसे मन ही मन बुदबुदाया, “उफ, कितना सरल लगता है यह आदमी, मगर बीहड़ जंगल है, जंगल! बड़ा मुश्किल है इस आदमी की थाह पाना . . .। लेकिन आप चाहें तो भी छोड़ नहीं सकते। यह आपके बस की बात नहीं।
बस, यही सत्यार्थी जी से मेरी पहली मुलाक़ात थी।
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लौटते समय मुझे उनका रेखाचित्र ‘चंबा उदास है’ याद आ रहा था, जिसकी संवेदना, ज़बरदस्त ‘पैशन’ आप पर छा जाता है। साथ बहा ले जाता है और आप देर तक उस प्रभाव से उबर नहीं पाते। या फिर ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ के ताज़ा अंक में छपा लेख ‘भारतमाता ग्रामवासिनी’ जिसमें ढोल और संगीत के ज़रिए भारत के ग्राम्य जीवन की मस्ती का ख़ूब लचकता चित्र उकेरा गया था। यह लेख भी उनकी किसी पुरानी पुस्तक से लिया गया था।
रह-रहकर एक ही सवाल तंग कर रहा था—सत्यार्थी जी अब वैसा क्यों नहीं लिखते? क्यों छोड़ दिया उन्होंने वह रास्ता? अब की उनकी रचनाएँ चमत्कृत करती हैं, टुकड़ों-टुकड़ों में अच्छी लगती हैं, मगर वैसा समग्र प्रभाव कहाँ है उनमें, जो शुरू की सीधे-सादी रचनाओं में है जिनमें जीवन का रस है, ओज और मस्ती है तो जीवन की गुत्थियाँ ओर अंतर्विरोध भी। शोषण और ग़रीबी के ख़िलाफ़ बंद मुट्ठी की तरह तना हुआ ग़ुस्सा और आक्रोश! जीवन वहाँ अपने सहज ओज के साथ बहा आता है। सत्यार्थी जी कहाँ बिचल गए? क्यों?
दौड़कर बस पकड़ी। बस में हलकी गुलाबी साड़ी पहने, कटे हुए बालों वाली एक फ़ैशनेबल युवती की गोद में ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ का बीच वाला पेज खुला पड़ा है। उसमें छपा लेख, ‘भारतमाता ग्रामवासिनी’। ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ के स्वाधीनता विशेषांक की कवर स्टोरी। नीचे लेखक का नाम छपा है—देवेंद्र सत्यार्थी।
युवती की आँखें उस लेख पर टँकी हैं और मैं सोच रहा हूँ, कितना फ़र्क़ है रंगीन पेजों पर छपे, इस सजे-धजे लेख और इसके सादा, मटमैली ज़िन्दगी जीते लेखक में। यह युवती इस बात को नहीं जानती। कभी जान भी नहीं पाएगी। ठीक वैसे ही, जैसे हिंदी साहित्य में ऊँचे आसनों पर विराजमान कुछ महाप्रभुओं की प्रभुता से दूर, अपनी लीक पर अकेला चलने वला धुनी साहित्यकार कब, कैसे हाशिए पर फेंक दिया जाता है, इसे न कोई आलोचक या इतिहास-लेखक जान पाएगा और न उसमें यह देख पाने की आब ही बची है।
फिर दूसरी-तीसरी, चौथी बार गया मैं सत्यार्थी जी के यहाँ, और हर दफ़ा हुआ यह कि कहानी तो पीछे रह जाती और खुल पड़ता सत्यार्थी जी के जीवन-महाकाव्य का कोई नया, अनजाना अध्याय। पर उसमें कशिश ऐसी थी कि मैं बहता चला जाता।
मुझे विवेकानंद की याद आती। एकदम बच्चों जैसे सीधे-सरल रामकृष्ण परमहंस के समीप आकर उन्हें भी शायद कुछ ऐसी ही अनुभूति होती होगी। रामकृष्ण परमहंस ने एक दिन बातों-बातों में अँगूठे से उनके माथे को छू दिया, तो उन्हें पूरी दुनिया घूमती हुई नज़र आई। जैसे देह में रहते भी वे विदेह हो गए हों, और एकाएक ध्यान के उच्च शिखरों पर पहुँच गए हों।
सत्यार्थी जी ने तो मुझे इस तरह छुआ न था। पर उनकी बातें, उनकी निश्छल हँसी, और क़िस्सों में से निकल-निकलकर आते क़िस्से मुझे इस क़द्र साथ बहा ले जाते कि मैं भूल ही जाता था कि मैं उनके पास आया किसलिए हूँ।
एक दिन मैंने ज़िद की, “देखिए, इस सप्ताह कहानी मुझे चाहिए। आपकी वजह से फ़ॉर्म रुका पड़ा है। पत्रिका लेट हो रही है . . .। बताइए, कब देंगे कहानी?”
सुनते ही सत्यार्थी जी की माथे की रेखाएँ एक-दूसरे से उलझ गईं। फिर उनमें एक बेमालूम-सा संगीत बज उठा, “भई मनु, एक वक़्त में मैं एक ही बला झेल पाता हूँ। दो-दो बलाएँ होंगी तो जाने क्या हालत हो, तुम ख़ुद ही सोचकर देखो!”
फिर पांडुलिपि मेरे पास सरका दी, “मैं इसे निबटाकर फ़ौरन शुरू कर डालता हूँ। आप ज़रा इस पर एक नज़र डालिए।”
देखा, बात पहले से कुछ साफ़ थी, मगर कुछ उलझी-उलझी। रचना ज़्यादा सँवारने के चक्कर में कहीं कुछ बिगड़ी थी। लेकिन पहले वाला रूप खोज पाना अब असंभव था। वह चेपियों के नीचे दफ़न हो चुका था।
यहाँ यह बताना बहुत ज़रूरी है कि सत्यार्थी जी लिखते थे तो पास में हर वक़्त लेई ज़रूर रहती थी। उनके यहाँ काग़ज़ और किताबों पर ही नहीं, फरनीचर पर भी लेई की मोटी-मोटी परतें जमी नज़र आ सकती थीं!
मैंने अपनी प्रतिक्रिया बता दी। चेपियों से होने वाले नुक़्सान से भी आगाह किया। लगे हाथ सुझाव भी दे दिया, “देखिए सत्यार्थी जी, चेपियों के चक्कर में इस उम्र में भी कितनी मेहनत करनी पड़ती है आपको। तो आप ऐसा क्यों नहीं करते कि सभी पेज अलग-अलग रखिए। जिस पेज पर ज़्यादा काट-छाँट हो, वह पेज बदल दीजिए। पूरी पांडुलिपि नहीं बिगड़ेगी। यह आसान पड़ेगा . . . मैं ख़ुद इसी तरह लिखता हूँ!”
सत्यार्थी जी एक क्षण चुप। फिर मुसकराए, “यह तो ऐसे ही है मनु, जैसे एक प्रेमिका दूसरी से कहे कि बहना, प्रेम ऐसे नहीं, ऐसे किया जाता है। भई, हर किसी का प्रेम करने का ढंग अलग होता है!” और फिर हँसे। हँसते हैं तो हँसते ही चले जाते हैं।
हँसी मेरी भी छूटती है, मगर कुछ इस क़द्र शर्मिंदा हुआ मैं, जैसा आदमी ज़िन्दगी में कभी-कभार ही होता है।
याद आया, गंगाप्रसाद विमल ने सत्यार्थी जी को ‘दाढ़ीवाला शिशु’ कहा था। मगर यह दाढ़ीवाला शिशु जब अपनी पर आता है तो इस क़द्र चंचल और शैतान हो जाता है कि बड़े-बड़े महारथियों के पसीने छूट जाएँ!
इसके बाद भी कई और चक्कर लगे . . .। और फिर एक दिन उन्होंने सच ही ‘नंदन’ के लिए लिखना शुरू किया। पूरा एक इतवार मैं उनके साथ रहा। साथ में मेरी बेटी ऋचा और पत्नी सुनीता भी थी। बेटी को मज़ेदार खेल पा गया। सत्यार्थी जी के सोफ़े पर उछल-उछलकर अपना मनोरंजन करने लगी। पत्नी लोकमाता से चर्चा में लीन। और मैं सत्यार्थी जी की सेवा में!
काटते, लिखते, काटते हुए सत्यार्थी जी कहानी के तार जोड़ते गए। कहीं-कुछ तार उलझे, तो मेरी भी राय माँगी गई। फिर मेरे सामने चेपियाँ भी चिपकाईं। यों पहली बार किसी प्रेमिका को सचमुच अपनी आँखों से प्यार करते देखा! उस समय की उनकी मुखाकृति, उस पर बारीक-सी हलचल और ख़ास तरह की भंगिमा अभी तक भुला नहीं पाया हूँ।
आख़िर पांडुलिपि मेरे हाथ में आई, तो वह एक दुर्लभ, दर्शनीय वस्तु थी। कहानी वाक़ई अच्छी बनी थी। क़िस्सागोई से भरपूर और चरित्र भी ऐसे आँके-बाँके कि जो ख़ाली सत्यार्थी जी की क़लम से ही पैदा हो सकते थे। इस अलमस्त कहानी का शीर्षक था, ‘सदारंग-अदारंग’।
कहानी दो संगीतकार भाइयों की थी। इनमें बड़ा भाई सदारंग राजा का चाटुकार, मगर छोटा अदारंग मनमौजी और अक्खड़। इसीलिए एक दिन राजा ने ग़ुस्से में अदारंग को दरबार से निकलवा दिया . . . पर फिर अदारंग के लिए राजा की बेचैनी इस क़द्र बढ़ी कि वह बेहाल . . .। अंत में अदारंग मिला तो, मगर ऐसी जबर्दस्त नाटकीयता के साथ, कि कहानी पढ़ें तो आप वाह-वाह किए बिना न रहेंगे।
सचमुच कोई उस्ताद कहानीकार ही रच सकता था ऐसे पात्र, और ऐसी बँधी हुई कथा कि पढ़ते हुए आप साँस लेना भूल जाएँ।
अगले दिन मैं इस नायाब कृति को दफ़्तर लेकर आया। हाथ से लिखकर कहानी प्रेस भेज दी! और वह पांडुलिपि कई दिनों तक सबके आकर्षण का केंद्र बनी रही।
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जिसे मैं हमेशा सँजोकर रखूँगा
यों कहानी पूरी हो गई . . .
लेकिन नहीं, कहानी तो अब शुरू हुई थी। हुआ यह कि कहीं भी जा रहा होऊँ, क़दम मुड़ जाते सत्यार्थी जी के घर की ओर। सच कहूँ, उनका जादू चल गया था मुझ पर। जब भी अकेला होता, मैं उनके बारे में सोच रहा होता। वे मेरे लिए एक ऐसे ‘महानायक’ थे, जैसा होना मेरे जीवन का सबसे बड़ा सपना था। बहुत व्यस्त होता तो भी सप्ताह में एक बार तो पहुँच ही जाता। और जाते ही सत्यार्थी जी की मुक्त हँसी का स्पर्श, “आ गए, मनु! मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था। देखना, बात कुछ बनी भी है या . . .? दरअसल, मैं सोच रहा था, एक ऐसा पात्र पेश करूँ जो आज के ज़बरदस्त अंतर्विरोधों का प्रतीक हो। कोशिश तो की है, अब देखो तुम!”
एक दिन उन्होंने पांडुलिपि के पहले सफे पर मेरा नाम लिखा। पता पूछकर लिखा और कहा, “आऊँगा किसी दिन।”
और फिर सचमुच एक दिन आ पहुँचे। जाने कहाँ, कैसे खोजते-खोजते। ख़ूब याद है, संकोच और आनंद का मिला-जुला भाव उपजा था उन्हें देखकर। मेरा बहुत छोटा, कोठरीनुमा कमरा उन जैसे लहीम-शहीम भव्य व्यक्तित्व को समेट नहीं पा रहा था। पर सत्यार्थी जी की वही मुक्त हँसी, जैसे कह रही हो, “अरे भई, घर तो घर ही होता है। घर छोटा-बड़ा नहीं होता, अपने आप जगह बनाकर बैठ जाएँगे।”
फिर जो बतकही, ठहाके और क़िस्सेबाज़ी शुरू हुई, तो वक़्त जैसे पंख लगाकर उड़ गया। चाय, चुहल और रचनाओं पर बात करते-करते कब शाम हो गई, पता ही नहीं चला।
और फिर एक ऐसा सिलसिला चल निकला, जिस पर न उनका कोई बस था, न मेरा। आज मिलकर गए हैं और कल या परसों सुबह-सुबह फिर हाज़िर। दरवाज़े पर ठक-ठक-ठक। मैं अवाक्, “सत्यार्थी जी, आप . . .?”
“माफ करना भई, तुमसे मिले बग़ैर रहा ही नहीं गया। एक बेहतरीन आइडिया सूझा है! . . .”
लेखन के प्रति उनकी ग़ज़ब की दीवानगी मुझे चकित करती। ऐसी दुनिया में, जिसमें छल-छद्म की कुर्सियों पर ऐंठे हुए लोग ही अधिक नज़र आते हैं, वहाँ अपनी राह ख़ुद ईजाद करने वाले ऐसे एक निरभिमान साधक का होना ख़ुद में किसी जादू से कम नहीं था।
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धूल भरे पैरों का सफ़र
ऐसे ही एक बार बातों-बातों में सत्यार्थी जी ने बताया कि वे उन्नीस बरस की अवस्था में कॉलेज की पढ़ाई अधबीच छोड़कर घुमक्कड़ी के लिए निकल पड़े थे। उन्होंने अपनी उम्र का एक बड़ा भाग गाँव-गाँव, शहर-शहर भटककर लोकगीत एकत्र करने में लगाया। गाँवों की धूलभरी पगडंडियों पर भटकते हुए, धरती के भीतर से फूटे क़िस्म-क़िस्म के रंगों और भाव-भूमियों के लोकगीतों को देखा, महसूस किया और उसके पीछे छिपे दर्द, करुणा, प्रेम और इंसानी जज़्बात से भीतर तक भीगे। तभी उन्होंने जाना कि धरती की कोख से जनमी फ़सलों की तरह ही लोकगीत भी जन्म लेते हैं और उन्हें उनकी ज़मीन और लोगों के दुख-दर्द और हालात से जोड़कर ही देखा जा सकता है।
मेरे मन में उनकी इस अनोखी लोकयात्रा को जानने की बेहद उत्सुकता थी। रास्ते में उन्हें किस तरह की परेशानियाँ आती थीं? कैसे अनुभव होते थे? मैंने जानना चाहा।
इस पर लोकसाधक सत्यार्थी जी से जो सुनने को मिला, वह मेरे लिए कम अचरज भरा न था। सत्यार्थी जी ने बताया कि पूरे देश के गाँव-गाँव में वे घूमे। यहाँ तक कि बेहद कष्ट उठाकर वे उन सुदूर इलाक़ों में भी गए, जहाँ जाना बहुत मुश्किल था। उनके पास कोई साधन न था, यहाँ तक कि खाने-पीने और कहीं आने-जाने के लिए पैसे तक नहीं। लेकिन लोकगीतों की खोज की दीवानगी थी, जो उनके पैरों को थमने नहीं देती थी . . .। जहाँ भी कोई अच्छा लोकगीत सुनने को मिलता, वे बैठकर कॉपी में उसे लिखने लग जाते थे। फिर भाषा की कठिनाई आई, तो पूछ-पूछकर उसका अर्थ भी लिख लेते। कॉपियाँ भरती गईं, पर अच्छे लोकगीतों के संग्रह की उनकी प्यास कम होने के बजाय और बढ़ी।
लोकगीतों के लिए सत्यार्थी जी का अनुराग बेअंत था। वे बताते हैं कि “जैसे चारों तरफ़ बेतरतीब पसरी धरती की पगडंडियों, नदियों, पहाड़ों, झरनों और कंदराओं का कोई अंत नहीं है, ऐसे ही लोकगीत भी अनंत हैं। और उन्हें तलाशने की मेरी चाह भी थमना नहीं जानती थी। इसलिए कोई बीस बरस तक लोकयात्री के रूप में मेरे पैर बिन थके चलते रहे, चलते रहे। कहीं कुछ खाने को मिला तो खा लिया, नहीं तो भूखे ही सो गए। बस तड़प यह थी कि कोई भी अच्छा लोकगीत मिला तो वह कॉपी में दर्ज होने से न रह जाए . . .।”
इस बीच विवाह हुआ, तो पत्नी भी साथ चल पड़ीं। राह में बेटी हुई तो वह भी नन्ही लोकयात्री बन गई। और असीम लोकयात्राओं की डगर पर इस असीम यात्री के पैर बढ़ते ही गए।
बातें . . . बातें और बातें! सत्यार्थी जी से उनकी घुमक्कड़ी को लेकर चर्चा हुई, तो बातों का कोई अंत ही नहीं था। यायावर की दीवानावार घुमक्कड़ी की अजीबोग़रीब दास्तानें रह-रहकर सामने आ रही थीं। एक से जुड़ी दूसरी घटना, दूसरी से तीसरी। अंतहीन कहानियाँ मिलकर एक घने बियाबान जंगल का आभास देने लगतीं।
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फिर उस दाढ़ी वाले जंगल की बात चल पड़ी, जो सत्यार्थी जी के चेहरे पर उग आया और उनकी एक अलग पहचान बना। इस जंगल में सत्यार्थी जी की घुमक्कड़ी की न जाने कितनी कहानियाँ छिपी हैं। कुछ के बारे में तो उन्होंने ख़ुद लिखा भी है।
इस बारे में पूछने पर सत्यार्थी जी ने हँसते हुए बताया था, “हाँ, आप ठीक कह रहे हैं! इस जंगल में एक नहीं, कई कहानियाँ हैं, कई क़िस्से हैं। बस, समझिए कि यह जंगल हाथ धोकर मेरे पीछे पड़ गया और उससे कोई नजात नहीं। मैं मुक्त होना चाहूँ, तो भी नहीं हो सकता। हालाँकि इसका मतलब यह नहीं कि मुझे इस जंगल से प्यार नहीं है। हाँ, तो पहले यह सुन लीजिए कि इस जंगल की ज़रूरत मुझे क्यों पड़ी? तो इसका कारण यह है कि जब मैं लोकगीत इकट्ठे करने जाता था, तो मेरे सामने कई तरह की मुश्किलें आती थीं। ज़्यादातर लोकगीत स्त्रियों को ही याद होते हैं, जैसे पर्वों और विवाह आदि के गीत। सच मानिए, उन्हीं के कारण ये अभी तक जीवित भी रहे। ख़ुद स्त्रियों के जीवन का बहुत-सा दुख-दर्द और दबी हुई इच्छाएँ इनमें समाई हुई हैं। इसीलिए इन लोकगीतों में इतना मिठास, इतना दर्द है और ये मन पर इतनी गहरी चोट करते है! . . .
“ख़ैर, पर लोग यह पसंद नहीं करते थे कि उनकी स्त्री से कोई ग़ैर-आदमी मिले और पूछ-पूछकर लोकगीत लिखता फिरे। तो मैंने साधु-संन्यासी वाला बाना धारण किया। दाढ़ी बढ़ा ली। बहुत समय तक लोग मुझे ब्रह्मचारी ही समझते रहे, जबकि विवाह हो तो चुका था। हाँ, पत्नी शुरू में घर पर ही रहीं, मैं अकेला ही घूमा करता था।”
और तो और, शांतिनिकेतन में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी भी उन्हें इसी रूप में जानते थे और ‘ब्रह्मचारी जी’ कहकर संबोधित करते थे। एक बार जब सत्यार्थी जी ने उन्हें बताया कि वे विवाहित हैं, तो आचार्य द्विवेदी बड़े ज़ोर का ठहाका लगाकर हँसे!
यों इस दाढ़ी को लेकर और भी तमाम क़िस्से और लतीफ़े हैं। हाँ, इतना बता देना प्रासंगिक होगा कि आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने सत्यार्थी जी की दाढ़ी की प्रशंसा में बाक़ायदा संस्कृत में कई श्लोक रचकर उन्हें भेजे। सत्यार्थी जी की पुस्तक ‘बाजत आवे ढोल’ में द्विवेदी का वह पत्र और उनके द्वारा रचे दाढ़ी-वंदना के श्लोक देखने को मिल सकते हैं।
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सत्यार्थी जी के इस अंतहीन सफ़र की तमाम-तमाम कहानियों में एक निजकथा भी है, जो पारिवारिक कथाघाट पर आकर ख़त्म होती है। इसमें कविता का उल्लेख ज़रूरी है। सत्यार्थी जी की बेटी कविता सफ़र में पैदा हुई, फिर वह लोकमाता के साथ-साथ उनकी हमराही हो गई। बाद में एक नन्ही बेटी को जन्म देकर वह असमय गुज़री। यायावर की जीवन-कथा का एक करुण अध्याय . . .!
ख़ुद में एक ‘इतिहास’ बन चुकी सत्यार्थी जी की लोकयात्राओं के साथ कविता की कितनी ही स्मृतियाँ जुड़ी हैं। मैंने इस बारे में जानना चाहा, पर कविता का नाम आते ही सत्यार्थी जी का स्वर कुछ गीला-गीला-सा हो गया। गंभीर होकर बोले, “तीनों बेटियों में कविता का ही साहित्य की ओर रुझान सबसे ज़्यादा था। गुरुदेव ठाकुर ने उसे आशीर्वाद दिया था। और मुझसे यह कहकर परिहास किया था कि तुम हो कविता के पिता! तुम्हें कविता लिखने की क्या दरकार? जबकि मुझे तो कवि होने का सबूत देने के लिए ही बार-बार कविता लिखनी पड़ती है!” कहते हुए सत्यार्थी जी के चेहरे पर मंद हँसी और करुणा एक साथ नज़र आती है।
फिर कई और प्रसंग जुड़ते चले जाते हैं। और सभी में असमय गुज़र गई बेटी की अलग-अलग ममतालु छवियाँ। एक से एक प्रीतिकर।
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मैं बच्चों की चीज़ें मुफ़्त में नहीं लेता
ऐसे ही कविता से जुड़ा सन् 1938 का एक और प्रसंग सत्यार्थी जी ने सुनाया था। बात रायपुर की है। सत्यार्थी जी को पता चला कि गाँधी जी रेलगाड़ी से यात्रा करते हुए रायपुर से होकर गुज़रेंगे। सत्यार्थी जी उन दिनों रायपुर में ही ठहरे हुए थे। तो वे कविता और पत्नी को साथ लेकर रायपुर रेलवे स्टेशन पर गए। वहाँ गाँधी जी का स्वागत करने के लिए आए हुए लोगों की बड़ी भारी भीड़ थी। एक कोने में सत्यार्थी जी भी कविता और लोकमाता के साथ खड़े हो गए। छह बरस की नन्ही बेटी कविता के हाथ में कुछ फल थे, जो उसने गाँधी जी को देने के लिए पकड़े हुए थे।
जब गाड़ी आकर रुकी, तो लोग दर्शन के लिए भागे। कविता ने भी किसी तरह आगे बढ़कर गाँधी जी को फल भेंट किए। गाँधी जी ने गोदी में लेकर उसे ख़ूब प्यार किया। फिर बोले, “देखो, बच्चों की चीज़ मैं मुफ़्त में नहीं लेता।” और उन्होंने दोनों हाथों में जितनी फूल मालाएँ आ सकती थीं, लेकर कविता को भेंट कर दीं।
इस पर नन्ही कविता के आनंद का ठिकाना नहीं था। वह उन्हें लेकर उछलती फिर रही थी और जो भी फूल माँगता, उसे वह फूल भेंट कर देती। बस, एक फूल बचाकर अपनी किताब में रख लिया। कुछ अरसे बाद लंका-यात्रा के समय भी वही फूल उसकी किताब में था, जिसे वह अड़ोस-पड़ोस वालों को दिखाकर चकित कर देती थी।
इसी तरह सत्यार्थी जी ने एक बार बहुत विस्तार से अपनी लंका-यात्रा के बारे में बताया था। इस यात्रा में उन्हें सिंहली लोकगीतों को नज़दीक से सुनने, एकत्र करने के साथ-साथ एकदम भिन्न परिवेश से जुड़े लोगों को जानने का भी अवसर मिला। लोकमाता और कविता के साथ होने से यात्रा का आनंद और बढ़ गया, हालाँकि कुछ आर्थिक मुश्किलें और मुसीबतें भी बढ़ीं।
लंका-यात्रा के यादगार अनुभवों के बारे में पूछने पर सत्यार्थी जी ने बताया, “आपको मालूम है कि मैं घुमक्कड़ी करता फिरता था। बहुत दिनों से लंका-यात्रा की इच्छा थी मन में। तब एक दक्षिण भारतीय सज्जन थे। जब उन्हें पता चला कि मैं लंका-यात्रा के लिए इच्छुक हूँ तो उन्होंने कहा कि आपके वहाँ जाने का किराया और रहने का ख़र्च मेरी ओर से रहेगा। आप चाहे जितने दिन रहना चाहें, रहें।”
उन्होंने पेशगी एक तरफ़ का किराया और रहने-खाने के लिए पैसे सत्यार्थी जी के पास भिजवा दिए और कहा, “जब लौटने का मन हो, तो पत्र लिख दें। पत्र मिलते ही मैं लौटने का किराया भी भिजवा दूँगा।”
यों पत्नी और कविता के साथ सत्यार्थी जी सन् 1940 में लंका-यात्रा पर गए थे और जुलाई से दिसंबर तक कोई पाँच महीने वहाँ रहे। कविता तब छोटी ही थी, कोई आठ साल की रही होगी। ख़ुद सत्यार्थी जी तब बत्तीस साल के युवा थे। ‘लंका देश है कोलंबो’ संस्मरण उन्हीं दिनों लिखा गया था . . .।
सत्यार्थी जी की लंका-यात्रा से जुड़ी कई और भी दिलचस्प यादें हैं। लंका-यात्रा से पहले वे कुछ समय के लिए चेन्नई में रुके थे। उन्हें दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की ओर से उसी ख़ास बाँस की कुटिया में ठहराया गया, जिसमें हमेशा गाँधी जी आकर ठहरते थे।
उन्हीं दिनों तमिल के एक पत्र के संपादक उनके पास पाँच हज़ार रुपए लेकर आए। बोले, “आपके लोक साहित्य संबंधी लेख हमारे यहाँ अनूदित होकर तमिल में छपते हैं। यह उसका पारिश्रमिक है।”
सत्यार्थी जी ने कहा, “मेरी लंका-यात्रा के ख़र्च का इंतज़ाम तो हो गया। मैं यह राशि लेकर क्या करूँगा? देना ही तो इसे आप अनुवादक को दे दीजिए। उसके अनुवाद की मैंने ख़ासी प्रशंसा सुनी है।” और वे पाँच हज़ार रुपए आख़िरकार अनुवादक को दिए गए।
यायावर की यायावरी तबीयत और फक्कड़पने का यह प्रसंग सचमुच हैरान कर देने वाला है। और आश्चर्य, ऐसा उन्होंने उस दौर में किया, जब उनके पास सचमुच खाने-पीने के भी पैसे न थे।
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महामना मालवीय: मेरे बेटे के पैर भी ऐसे ही हैं!
ऐसे ही सत्यार्थी जी ने एक दिन महामना मालवीय जी का प्रसंग सुनाया तो मैं अवाक् रह गया।
अपनी इन बीहड़ लोकयात्राओं में ही अचानक सत्यार्थी जी की भेंट महामना मदनमोहन मालवीय जी से हुई थी। इससे पहले मालवीय जी ने उनके लोकगीत-संग्रह के अनोखे काम की ख़ूब मन से प्रशंसा करते हुए पत्र लिखा था। सत्यार्थी जी की पुस्तक ‘नीलयक्षिणी’ में वह एक दस्तावेज़ के रूप में सुरक्षित है।
सत्यार्थी जी लोकगीत इकट्ठे करने की धुन में देहरादून पहुँचे, तो उन्हें पता चला कि महामना मालवीय भी देहरादून में ही ठहरे हुए हैं। सुनते ही सत्यार्थी जी महामना से मिलने पहुँच गए। महामना मालवीय बहुत प्रेम से उनसे मिले। सत्यार्थी जी के जीवन की एक यादगार घटना थी। इसलिए कि मालवीय जी की करुणा का एक अनूठा रूप उन्होंने देखा।
मालवीय जी सत्यार्थी जी का धूल से सना बाना और धूल-धूसरित पैर देखकर बहुत व्यथित थे। लेकिन लोकगीतों की तलाश में दर-दर भटकते सत्यार्थी जी के पास भला ढंग के कपड़े कहाँ से आते? वे न कभी बनियान पहनते थे और न उनके पैरों में कभी मोज़े होते थे। उनके कपड़े ही नहीं, पैर भी उनकी धूलभरी यात्राओं की गवाही दे रहे थे। मालवीय जी ने जब उनके पैर देखे तो दुखी होकर बोले, “अरे, यह क्या?” फिर बोले, “मेरे बेटे के पैर भी ऐसे ही हैं!”
इसके बाद उन्होंने जुराबें मँगवाईं और अपने हाथों से उन्हें जुराबें पहनाने लगे। सत्यार्थी जी भौचक! बोले, “आप क्या करते हैं! कहाँ आप जैसा महापुरुष और कहाँ मैं! आप अपने हाथ से जुराबें पहना रहे हैं। मैं इस लायक़ कहाँ हूँ?”
तब मालवीय जी ने अपने बेटे से कहा और उसने अपने हाथ से सत्यार्थी जी को जुराबें पहनाईं।
“तो आप समझ सकते हैं, सचमुच कैसा महामना था वह आदमी। कितना विशाल दिल था उनका . . .!” सत्यार्थी जी भावाकुल होकर बता रहे थे, “उन दिनों फटेहाली में भी इन्हीं चीज़ों से ताक़त मिलती थी। बड़ी से बड़ी मुश्किलें आती थीं राह में, पर लोग भी मिलते थे जो जान छिड़कते थे। क्या किसी बड़े से आदमी को वह आदर मिल सकता है जो मुझ जैसे नाचीज़ को मिला?”
कहते हुए सत्यार्थी जी का स्वर भीग सा गया। और मैं एकदम अवाक्। ऐसे कितने स्वर्णिम लम्हे छिपे हैं इस दाढ़ी वाले लोक यायावर की यादों की पिटारी में?
“मेरा घर से भागना एक तरह से, स्कूल से भागकर जीवन की पाठशाला में सीधे-सीधे दाख़िला लेना था!” एक बार सत्यार्थी जी ने कहा था, पर उनकी बातों का अर्थ अब खुल रहा था।
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पथ की पुकार सुनकर चलते रहे पैर
ऐसे ही एक दिन अपनी लंबी और बीहड़ लोकयात्राओं का ज़िक्र करते हुए, सत्यार्थी जी बहुत भावुक हो गए। लगा कि उन अनवरत लोकयात्राओं में बीच-बीच में मिलते गए लोगों के चेहरे उनकी स्मृतियों में तैर रहे हैं।
उन्होंने जैसे भावनाओं के आवेग में बहते हुए बताया कि इन यात्राओं में बहुत-से लोग मदद करने वाले मिल जाते और राहें आसान हो जातीं। ये लोग न सिर्फ़ अपने घर ठहरने और भोजन का प्रबंध करते, बल्कि आगे की यात्रा के लिए रेलगाड़ी का टिकट ख़रीदकर भी दे देते थे। ऐसे ही सहृदय लोगों के कारण भाषा की समस्या भी आड़े न आती और कोई सुंदर भावों वाला गीत मिलता, तो वे लोगों से पूछ-पूछकर उसका अर्थ लिख लेते। फिर रास्ते में कोई स्कूल या कॉलेज मिलता तो वहाँ जाकर लोकगीतों पर व्याख्यान देते। वहाँ से कुछ आर्थिक सहायता मिलती तो फिर आगे की राह पकड़ लेते।
बातों-बातों में सत्यार्थी जी ने कई दशकों पीछे के इतिहास में पहुँचा दिया था, जब पंजाब का चेहरा आज से बहुत अलग था। तब जीवन में सादगी और भावनात्मक लगाव कहीं गहरा था। रिश्तों और इंसानी जज़्बात का मोल लोग समझते थे।
सत्यार्थी जी के साथ बातों की रौ मैं बहते-बहते मैंने पूछा, “अच्छा सत्यार्थी जी, इतना तो सर्वविदित है कि बचपन में आपको घुमक्कड़ी का बहुत शौक़ था और आप पढ़ाई छोड़कर भाग निकले थे। पर एक बात बताएँ! इसके पीछे लोकगीत इकट्ठे करने की धुन थी या कोई और ही चक्कर था? आज सोचें तो क्या लगता है?”
सुनकर सत्यार्थी जी एक क्षण के लिए भीतर कहीं खो गए, फिर अचानक किसी झरने का-सा स्वर फूट पड़ा। और उनकी लोकयात्राओं की गंध शब्दों में घुलने लगती है। बोले, “घूमने का शौक़ तो था ही और इस मामले में राहुल सांकृत्यायन की तरह मेरी गति भी बड़ी रपटीली थी। दूर-दराज़ के स्थान, नदियाँ, पहाड़, लोग मुझे बुलाते थे। मैं पथ की पुकार सुनकर दौड़ पड़ता था। शायद इसीलिए मेरे घर के लोग और परिचित कहा करते थे, “इस लड़के के पैर में चक्कर है, यह कहीं टिक ही नहीं सकता।”
“तो घुमक्कड़ी का शौक़ तो था ही, लेकिन यह शौक़ ख़ाली दिल बहलाव की चीज़ नहीं थी। इसके पीछे लोकगीत इकट्ठे करने की धुन और यह आदर्श भी बराबर रहा कि इस देश को उसके सभी रंगों, रूपों और विविधताओं में जानना है। लोकगीत बहुत प्रमुख तो थे, लेकिन लोकगीत भी शायद एक ज़रिया थे जिससे देश की लोक संस्कृति, लोक सभ्यता और सुख-दुख के अमृत-हलाहल का साक्षात्कार किया जा सकता है।”
फिर एक बात यह भी थी कि पढ़ाई की बँधी-बँधाई रीति से उन्हें लगातार अरुचि हो रही थी। उन्हें बराबर लगता था कि पढ़-लिखकर वे क्या करेंगे? यह उनके जीवन का मक़सद नहीं हो सकता। उन्हें तो कुछ और ही काम करना है, कोई बड़ा काम करना है। इस ‘कुछ और’ ने ही उन्हें पूरी ताक़त से लोकगीतों की ओर ठेल दिया। जो शक्ति पढ़ाई में नहीं लग पा रही थी, उसने लोकगीत-संग्रह का रोमांचकारी और किसी हद तक दुस्साहसी मिशन पा लिया। और एक बार मन में यह तय हो गया तो फिर उन्होंने पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा। कई बार घर से भाग-भागकर गए। जब भी जी उचाट होता, निकल पड़ते।
इन यात्राओं में बार-बार भूख और फटेहाली सामने आकर खड़ी हो जाती। कई बार किसी पेड़ के नीचे या फ़ुटपाथ पर भूखा सोना पड़ता। बीच-बीच में मेहनत-मजदूरी से उन्हें गुरेज़ न था। उन दिनों गुज़ारे के लिए सत्यार्थी जी ने टाटानगर में टीन की चद्दरें उठाने से लेकर अख़बार बेचने, ट्यूशन, प्रूफ़रीडिंग जैसे काम किए। अजमेर में एक प्रेस में ‘सत्यार्थ प्रकाश’ छपता था। वहाँ काम करते हुए उन्होंने अपना नाम ‘सत्यार्थी’ रखा और पारिवारिक नाम ‘बत्ता’ से छुट्टी पा ली, जो उन्हें बचपन से ही अप्रिय था . . .।
आख़िर घर वालों ने उनके पैरों में ज़ंजीरें डालने के लिए उनका विवाह कर दिया। लेकिन विवाह के बाद भी उनकी घुमक्कड़ी कहाँ रुकी? कई बार उन्होंने चुपके से घर से भाग-भागकर यात्राएँ कीं। चार आने की सब्ज़ी लेने के लिए निकले और चार महीने बार घर पहुँचे। पत्नी खीजकर कहती, “तुम तो चार आने की सब्ज़ी लेने निकले थे!”
इस पर वे जवाब देते, “मेरा थैला देखो, इसमें चार हज़ार लोकगीत हैं।”
“वह अजब समय था, मन में अजब हिलोरें . . . समझिए, पूरा एक समंदर था,” कहकर सत्यार्थी जी खुलकर हँसते हैं। रुक-रुककर उनकी हँसी हवाओं में एक प्रफुल्ल हिलोर-सी पैदा कर रही थी।
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शान्तिनिकेतन की छाया में
सत्यार्थी जी अक्सर बहुत भावुक होकर शान्तिनिकेतन का ज़िक्र किया करते थे, जहाँ गुरुदेव रवींद्रनाथ से उनकी कई मुलाक़ातें हुईं तथा उनकी लोकयात्राओं को गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर का आशीर्वाद मिला। सच तो यह है कि शान्तिनिकेतन एक तरह से उनके लिए ‘दूसरा घर’ बन गया था। अपनी लोकयात्राओं के सिलसिले में वे कहीं भी आ या जा रहे हों, राह में ‘पांथ निवास’ में ठहरना न भूलते। शान्तिनिकेतन के खुले नैसर्गिक वातावरण और वहाँ संथाल युवक-युवतियों की मुक्त हँसी और साहचर्य से उन्हें अपार ऊर्जा और प्रेरणा मिलती थी। फिर वहाँ गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर तो थे ही, जो सत्यार्थी जी में अपनी युवावस्था का आत्मचित्र देखते और उन्हें भरपूर स्नेह से नहलाते थे।
सत्यार्थी जी दर्जनों बार शान्तिनिकेतन गए और वहाँ लंबा प्रवास किया। बाद के दिनों में वे शान्तिनिकेतन नहीं जा सके, पर शान्तिनिकेतन किसी ‘पुकारती हुई पुकार’ की तरह उन्हें बुलाता था और वे वहाँ जाने के लिए विकल हो उठते। अंतिम दिनों तक न शान्तिनिकेतन उन्हें भूला और न वहाँ की यादें!
सत्यार्थी जी से शान्तिनिकेतन और गुरुदेव के बारे में सुनना सचमुच एक आनंददायक अनुभव था। ऐसे क्षण जब वे पूरी तरह ख़ुद में डूब जाते और उनके शब्दों में गुरुदेव और शान्तिनिकेतन का बड़ा ही छबीला चित्र उभरता था। गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर से उनकी मुलाक़ात कब और कैसे हुई? यह जानने की ग़रज़ से एक दफ़ा मैंने पूछा, “अच्छा सत्यार्थी जी, ज़रा बताइए तो, शान्तिनिकेतन में आपका प्रवेश कैसे हुआ? गुरुदेव से इतनी आत्मीयता . . .!”
“मैं तो रमता जोगी था, घूमते-घूमते ही शान्तिनिकेतन पहुँचा था।” सत्यार्थी जी ने मुस्कुराते हुए बात का सिरा पकड़ा। और फिर ‘सुर’ में आकर बताने लगे, “उन दिनों शान्तिनिकेतन की दूर-दूर तक कीर्ति फैल चुकी थी। एक से एक बड़ी प्रतिभाएँ वहाँ थीं। उनसे मिलने, बात करने का मन होता था, पर सबसे बढ़कर तो गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर से मिलने की लालसा थी। तब तक गुरुदेव से छोटी-मोटी मुलाक़ातें तो हुई थीं, लेकिन खुलकर बात नहीं हुई थी। उनके बारे में प्रसिद्ध था कि वे किसी से पैर नहीं छुआते थे। एक दफ़ा मैंने धोखे से उनके पैर छू लिए तो उन्होंने मुझे प्यार से आशीर्वाद दिया। उसके बाद मैंने विस्तार से उनसे अपने लोकगीत संग्रह की चर्चा की तो बड़े ग़ौर से सुनते रहे। ख़ुश होकर बोले कि मैंने भी बचपन में बैलगाड़ी में बैठकर पूरे देश की यात्रा करनी चाही थी और ‘पल्ली गीत’ इकट्ठे करने की योजना बनाई थी, पर वह काम अधूरा रह गया। मुझे ख़ुशी है कि जो काम मैं नहीं कर सका, वह तुम कर रहे हो!”
रवींद्रनाथ ठाकुर ने ही उन्हें बताया कि बंगाल में लोकगीतों को ‘पल्ली गीत’ कहा जाता है!
सत्यार्थी जी के प्रति रवींद्रनाथ ठाकुर का प्रेम बड़ी गहरी भावाकुलता के साथ बह रहा था। उन्हें लगा, यह युवक उन्हीं के अधूरे काम को पूरा करने के लिए आगे आ खड़ा हुआ है। इसके बाद तो शान्तिनिकेतन के ‘पांथ निवास’ के दरवाज़े सत्यार्थी जी के लिए हमेशा के लिए खुल गए। गुरुदेव का आदेश था कि ये जितने दिन भी चाहें, यहाँ रह सकते हैं। इन्हें कोई रोके नहीं।
तो इस तरह शान्तिनिकेतन यायावर सत्यार्थी जी की लोकयात्राओं के लिए एक तरह का ‘हाल्ट-स्टेशन’ बन गया था। वे कहीं से भी आ या जा रहे हों, प्रयत्न करके बीच में शान्तिनिकेतन ज़रूर रुकते थे। इससे उनके मन को बड़ी शान्ति मिलती थी, बड़ी ताज़गी मिलती थी।
शान्तिनिकेतन में गुरुदेव से मिलना तो होता ही था, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, अवनींद्रनाथ ठाकुर, नंदलाल बसु, रामकिंकर तथा और भी न जाने कितनी विभूतियों से वे वहाँ पहले-पहल मिले। यह उनके लिए एक नए जन्म की मानिंद था। एक नया और सार्थक जीवन, जिसने उसके लोकगीत संग्रह के अभियान और घुमक्कड़ी को नया अर्थ दिया।
गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर से उनका मिलना एकदम अनौपचारिक अंदाज़ में होता था। गुरुदेव से सत्यार्थी जी की आत्मीयता इस क़द्र बढ़ गई थी कि एक दफ़ा उन्होंने कहा, “अगर तुम चाहो तो शाम को चाय के समय तुम नियमित मेरे पास आ सकते हो। हम साथ-साथ चाय पी सकते हैं।”
“इस तरह जितने दिन भी मैं शान्तिनिकेतन रहता, शाम को चाय के समय नियमित गुरुदेव के पास पहुँच जाता था।” सत्यार्थी जी पुरानी स्मृतियों के प्रवाह में बहते हुए कह रहे थे, “गुरुदेव अक्सर अपनी नई रचनाओं या मन में उमड़-घुमड़ रहे भावों, विचारों की चर्चा करते थे। मेरे लिए इससे बड़ा सुख भला और क्या हो सकता था! मैं ग़ौर से सुनता रहता। गुरुदेव कभी-कभी मेरे काम की बाबत भी पूछा करते थे। और इस बात से ख़ुश भी होते थे कि मैं एक महत्त्वपूर्ण काम में लगा हूँ। बराबर मुझे प्रोत्साहित भी करते थे।”
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रामानंद चटर्जी और उनका रौलीफ्लेक्स कैमरा
सत्यार्थी जी अपनी आत्मकथा और कई कहानियों में चोला बदलकर कभी ‘फ़ादर टाइम’ हो जाते हैं, और कभी ‘काल-यात्री’। असल में ये दोनों सत्यार्थी जी के ही नाम हैं, जिनमें शायद वे अपनी प्रतीकात्मक छवि देखा करते थे। और जब कभी वे बहुत डूबकर अपनी यादगार लोकयात्राओं के बारे में बता रहे होते थे, तो लगता था, सच ही हम किसी बहुत ऊँचे क़द के कालयात्री या फ़ादर टाइम के आगे बैठे हैं, जिसकी पुरानी पोथियों से निकलकर एक से एक अनमोल प्रसंग बाहर झाँक रहे हैं।
सत्यार्थी जी से सुने क़िस्सों में ‘मॉर्डन रिव्यू’ के यशस्वी संपादक रामानंद चटर्जी और उनके रॉलीफ्लैक्स कैमरे का क़िस्सा भी कमाल का है। हुआ यह कि एक दफ़ा ‘मॉर्डन रिव्यू’ के संपादक रामानंद चटर्जी ने सत्यार्थी जी को रॉलीफ्लैक्स कैमरा ख़रीदकर भेंट किया, ताकि वे लोकगीतों के साथ-साथ अपने मनमाफ़िक चित्र भी खींच सकें। नया-नया कैमरा था। उसे लिए हुए वे बड़े उत्साह से गुरुदेव के पास जा पहुँचे।
गुरुदेव बड़ी मुश्किल से फोटो खिंचवाने के लिए राज़ी होते थे। बोले, “अच्छा, ठीक है। कल आ जाना। पर मुझे अपनी जगह से उठकर बाहर आने के लिए मत कहना।”
अगले दिन सत्यार्थी जी पहुँचे तो गुरुदेव के पास एक विदेशी अतिथि बैठे थे। सत्यार्थी जी के मन में संकोच था कि कहें कैसे? गुरुदेव ने उन विदेशी अतिथि की ओर इशारा करते हुए कहा, “तुम चाहो तो इनका चित्र खींच सकते हो।”
सत्यार्थी जी ने विनम्रतापूर्वक कहा, “यहाँ लाइट ठीक नहीं है, मैं बाहर कुर्सी लगा देता हूँ।”
थोड़ी देर बाद सत्यार्थी जी ने बाहर दो कुर्सियाँ लगा दीं और मुस्कुराते हुए गुरुदेव से कहा, “मैं इनका चित्र तो खींचूँगा, पर इनके मित्र के साथ। चलिए, आप भी साथ ही बैठ जाइए!”
गुरुदेव हँसे, फिर फोटो खिंचवाने को राज़ी हो गए। कुछ दिन बाद सत्यार्थी जी फोटो एनलार्ज कराकर उन्हें भेंट करने गए। गुरुदेव देर तक फोटो को बड़े ग़ौर, बल्कि कौतुक से देखते रहे। सत्यार्थी जी ने पूछा, “आपको अपना फोटो कैसा लगा?”
गुरुदेव हँसकर बोले, “इसमें तो मैं किसी डिक्टेटर जैसा लगता हूँ। क्या मैं सचमुच ऐसा ही हूँ?”
सुनकर सभी को हँसी आ गई। स्वयं गुरुदेव भी हँसे। गुरुदेव की वह प्रसन्न छवि हमेशा के लिए सत्यार्थी जी के मन में अंकित हो गई।
कुछ समय बाद सत्यार्थी जी अपनी बेटी कविता के साथ गुरुदेव से मिले, तो उन्होंने कविता को ख़ूब प्यार करते हुए आशीर्वाद दिया था। फिर यायावर की ओर देखते हुए बड़े ही मृदु हास के साथ उन्होंने एक मीठा कटाक्ष भी किया था, “तुम हो कविता के पिता! तुम्हें कविता लिखने की क्या दरकार? पर मैं कविता न लिखूँ तो मुझे कवि कौन मानेगा?”
कहकर गुरुदेव इस क़दर खिलखिलाकर हँसे थे कि सफ़ेद, उज्ज्वल दाढ़ी पर से किसी शुभ्र झरने की तरह झरती हुई उनकी वह प्रसन्न हँसी सत्यार्थी जी कभी भूल नहीं पाए। वह एक बड़े कवि की शिशु-सरलता थी।
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हमसफ़र मिलते रहे
सत्यार्थी जी की धूलभरी यात्राओं ने उन्हें चाहे कितने अभाव और कष्ट दिए हों, पर उनके प्रति वे यह कहकर कृतज्ञता जताए बग़ैर नहीं रहे कि इन यात्राओं ने ही उन्हें देश के बड़े से बड़े कर्णधारों, राजनेताओं, चिंतकों, लेखकों और कलाकारों से मिलवाया। जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों के मूर्धन्यों ने भी उनकी इन लोकयात्राओं के लिए ख़ास आदर प्रकट किया और उत्सुकता से उनके बारे में जानना चाहा। बेशक इनमें से बहुत-से दिग्गजों और मनीषियों ने ख़ुद आगे बढ़कर उनकी मदद भी की। इससे सत्यार्थी जी की ये यात्राएँ आनंदपूर्ण और कुछ आसान भी हो गईं।
इस तरह के मूर्धन्यों में एक ओर प्रेमचंद और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे अपने-अपने क्षेत्रों के दिग्गज थे, तो अज्ञेय और जैंनेद्र सरीखी बड़ी साहित्यिक प्रतिभाएँ भी थीं। बलराज साहनी और साहिर जैसे हरदिल अज़ीज़ शख़्स थे जिन्होंने आगे जाकर फ़िल्मी दुनिया में बड़ा नाम कमाया तो पाब्लो नेरूदा भी, जो उस समय विश्वविख्यात शख़्सियत बन चुके थे। फिर गुरुदेव टैगोर और महात्मा गाँधी का तो सदैव उन्हें आशीर्वाद मिला ही। और सत्यार्थी जी के उनसे जुड़े अनेक प्रसंग अब ऐतिहासिक थाती बन चुके हैं।
सत्यार्थी जी को राजनेताओं से मिलने में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं थी। उन्हें आम लोगों, लेखकों, कलाकारों और जनता के बीच काम कर रहे समाजकर्मियों से मिलना कहीं अधिक पसंद था। पर गाँधी जी की तरह सत्यार्थी जी पंडित जवाहरलाल नेहरू के भी प्रशंसक थे और उनसे उनकी कई अंतरंग मुलाक़ातें हुई थीं।
हुआ यह कि गाँधी जी ने कांग्रेस के फैजपुर अधिवेशन में सत्यार्थी जी को बुलाने के लिए काका कालेलकर को विशेष रूप से भेजा था। काका ने सत्यार्थी जी को गाँधी जी का संदेश दिया। सत्यार्थी जी गाँधी जी के इस प्रेम और गुणग्राहकता को देख, भावविह्वल हो गए। वे इस सम्मेलन में शामिल हुए तो गाँधी जी ने उन्हें लोकगीतों पर अपना व्याख्यान देने के लिए कहा।
सत्यार्थी जी ने अपने व्याख्यान में ख़ासकर ऐसे लोकगीतों का विशेष रूप से ज़िक्र किया, जिनमें देश की जनता के दर्द और ग़ुलामी की पीड़ा की अभिव्यक्ति थी। सुनकर सभी बेहद प्रभावित हुए। बाद में गाँधी जी बोलने के लिए खड़े हुए तो उन्होंने सत्यार्थी जी के व्याख्यान के साथ-साथ, उनके द्वारा सुनाए गए एक लोकगीत की बेहद प्रशंसा की। उन्होंने भावविभोर होकर कहा, “अगर तराज़ू के एक पलड़े में मेरे और जवाहरलाल के सारे भाषण रख दिए जाएँ, और दूसरे में यह लोकगीत, तो लोकगीत का पलड़ा भारी रहेगा . . .।”
कांग्रेस के फैजपुर अधिवेशन में बैलगाड़ी पर नेहरू जी का जुलूस निकला था। सत्यार्थी जी ने उसका वर्णन फैजपुर अधिवेशन पर लिखे गए अपने लेख ‘कांग्रेस गोज़ टु ए विलेज’ में किया है, जो न्यूयार्क से निकलने वाली पत्रिका ‘एशिया’ में छपा था। उस सम्मेलन में गाँधी जी की तरह नेहरू जी और पटेल ने भी उनकी लोकयात्राओं के प्रति उत्सुकता प्रकट की थी।
सम्मेलन में सत्यार्थी जी को कुछ ऐसे लोकगीत सुनने को भी मिले, जिनमें नए ज़माने का भी असर था। कुछ लोकगीतों में इस बात का ज़िक्र था कि सरदार पटेल की पहले बड़ी-बड़ी मूँछें हुआ करती थीं जो अब ग़ायब हो गईं। कुछ लोकगीतों में बैलगाड़ी पर यात्रा कर रहे नेहरू जी का मज़ेदार वर्णन था। सत्यार्थी जी ने अपने लेख में इन लोकगीतों का भी वर्णन किया है, जो आम जनता के बीच से पैदा हुए थे, पर आज दिग-दिगंत को गुंजारित कर रहे थे और एक बदले हए इतिहास के गवाह बन चुके थे।
आगे चलकर नेहरू जी से सत्यार्थी जी की ख़ासी लंबी और अंतरंग मुलाक़ात तब हुई, जब वे अंतरिम सरकार में प्रधानमंत्री थे। तब पं. जवाहरलाल नेहरू के घर पर सत्यार्थी जी की उनसे कोई डेढ़-दो घंटे तक बातचीत चली। उनमें एक फ़्रैंच पत्रिका के फ़्रैंच संपादक भी शामिल थे। आतिथ्य श्रीमती इंदिरा गाँधी ने किया था। जब वे चाय लेकर आईं, नेहरू जी ने सत्यार्थी जी का परिचय कराया। इस पर इंदिरा जी ने मुस्कुराते हुए कहा, “मैं इनसे शांतिनिकेतन में मिल चुकी हूँ, गुरुदेव टैगोर के साथ!”
और जब नेहरू जी ने इंदिरा को पास बैठकर चाय पीने को कहा, तो उनका विनम्रतापूर्वक साफ़ इनकार। इंदिरा जी का कहना था, “मैं भला अपने गुरु जी के सामने कुर्सी पर कैसे बैठ सकती हूँ?”
इस घटना की पृष्ठभूमि भी सत्यार्थी जी से ही पता चली। असल में सत्यार्थी जी अक्सर शांतिनिकेतन में जाते थे और वहाँ हजारी बाबू से उनकी मुलाक़ात होती थी। एक बार द्विवेदी जी अस्वस्थ थे तो उन्होंने सत्यार्थी जी से कहा कि आज मेरी जगह आप जाकर पढ़ा दीजिए . . .।
सत्यार्थी जी हैरान। बोले, “आपकी जगह मैं कैसे पढ़ा सकता हूँ? मैं तो आपके विषय का विद्वान नहीं हूँ।”
इस पर द्विवेदी जी का जवाब था, “आपको इसकी क्या ज़रूरत है? आप तो जो विषय अच्छा लगे, उसी को लेकर बच्चों से बातें करें। वही विद्यार्थियों के लिए आनंददायक विषय बन जाएगा।”
और सत्यार्थी जी ने जिस कक्षा में पढ़ाया था, उसमें इंदिरा गाँधी छात्र के रूप में मौजूद थीं।
हालाँकि यायावर साहित्यकार का पढ़ाना भी क्या था! उन्होंने लोकगीतों की चर्चा करते हुए, अपनी घुमक्कड़ी के रोमांचक प्रसंगों का ज़िक्र किया था और बच्चों को यह ख़ासा रुचिकर लगा था। फिर तो ऐसा अक्सर होता कि द्विवेदी जी सत्यार्थी जी को अपनी कक्षा में बुला लेते और फिर यायावर को अपनी यात्रओं के दुर्लभ प्रसंग और अनुभव सुनाने के लिए कहते। बच्चे बड़े कौतुक और आदर के साथ सुनते। इस अद्भुत लोकयात्री के लिए उनके मन में सम्मान और श्रद्धा का भाव उत्पन्न हो गया था।
यही बरसों बाद इंदिरा गाँधी को भी याद रहा। और सत्यार्थी जी के लिए उनके मन में जीवन भर एक गुरु जैसा ही आदर रहा।
नेहरू जी बाद में प्रधानमंत्री हुए, तब भी उनसे सत्यार्थी जी की कई मुलाक़ातें हुईं। 1956 में पी.ई.ऐन. सम्मेलन में सोफिया वाडिया ने नेहरू जी का सत्यार्थी जी से परिचय कराया, तो वे हँसकर बोले, “कॉल हिम फोकलोर इंडिया . . .!”
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उस दौर की चर्चित हस्तियों में बनारसीदास चतुर्वेदी के साथ तो उनका लंबा सान्निध्य था। चतुर्वेदी जी द्वारा ‘विशाल भारत’ में छापे गए लेखों ने ही सत्यार्थी जी को हिंदी साहित्य में प्रतिष्ठित किया। दूर-दूर तक उन लेखों की चर्चा हुई। गाँधी जी और गुरुदेव ने भी उन्हें पढ़ा और बड़े प्यार से उनका उल्लेख किया है। फिर गाँधी जी से सत्यार्थी जी को मिलवाने वाले भी बनारसीदास चतुर्वेदी ही थे जिन्हें उनके मित्र प्यार से ‘चौबे’ जी कहकर बुलाते थे। सत्यार्थी जी से उनके सम्बन्ध बहुत कुछ घरेलू क़िस्म के थे।
चतुर्वेदी जी का ज़िक्र चलने पर एक दिन सत्यार्थी जी ने बताया कि “शुरू में मैं सोचता था कि बनारसीदास चतुर्वेदी ये लेख मुझे पर कृपा करने के लिए छापते हैं, ताकि मुझे पारिश्रमिक मिलता रहे और इस तरह मेरी झोली में थोड़ी भीख डाल देते थे। पर बाद में बनारसीदास चतुर्वेदी ने ‘विशाल भारत’ में ख़ुद एक लेख लिखा कि सत्यार्थी जी के लेख छापकर हम उन पर कोई अहसान नहीं कर रहे हैं, बल्कि वे अपने लेख ‘विशाल भारत’ में छपने के लिए देते हैं, यह ‘विशाल भारत’ पर उनका अहसान है। हालाँकि इस प्रशंसा से मेरा कोई सिर कहीं फिर गया। इसलिए कि मैं तो ख़ुद को साहित्य का विद्यार्थी मानता था, आज भी मानता हूँ। और एक छोटे बच्चे से भी सीखने को तैयार हूँ . . .।”
सत्यार्थी जी का यह अंदाज़ भला किसे नहीं मोह लेगा!
फिर एक मज़ेदार प्रसंग उन्होंने और सुनाया। बनारसीदास चतुर्वेदी ने एक पत्र में सत्यार्थी जी ‘डॉ. देवेंद्र सत्यार्थी’ कहकर संबोधित किया था। यायावर सत्यार्थी ने सोचा, मज़ाक़ में उन्होंने यह लिखा होगा। सो टाल गए। कुछ रोज़ बाद एक पत्र फिर आया उनका। उसमें उन्होंने लिखा, “आपने ध्यान दिया, पिछले पत्र में मैंने आपको ‘डॉ. देवेंद्र सत्यार्थी’ कहकर संबोधित किया था। असल में आपका लोकगीतों पर जो काम है, उस पर आपको कब की डॉक्टरेट मिल जानी चाहिए थी। मुझे उम्मीद है, कोई न कोई यूनिवर्सिटी इसके लिए आगे आएगी और जो भी यूनिवर्सिटी आपको डॉक्टरेट प्रदान करेगी, वह ऐसा करके आपको नहीं, ख़ुद को ही सम्मानित करेगी।”
इससे सत्यार्थी जी के प्रति उनके सम्मान और विश्वास का भी पता चलता है।
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अपनी लोकयात्राओं की चर्चा करते हुए सत्यार्थी जी डब्ल्यू.जी. आर्चर का भी बड़े प्यार से नाम लेते थे, जो लोक साहित्य की जानी-मानी हस्तियों में से थे और सत्यार्थी जी से उनका बड़ा प्रेम था। डब्ल्यू.जी. आर्चर से उनका पत्र-व्यवहार तो बहुत पहले से चल रहा था। उन्होंने अपने किसी लेख में सत्यार्थी जी की बहुत तारीफ़ भी की थी, पर उनसे मिलने का कोई मौक़ा लंबे समय तक नहीं आया था। फिर एक दफ़ा ‘आजकल’ के दफ़्तर में सत्यार्थी जी के पास डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल का फोन आया, “आप आइए . . . वो आने वाले हैं जिनसे आपको मिलना है।”
सत्यार्थी जी को बड़ी ख़ुशी हुई कि डब्ल्यू.जी. आर्चर से मिलना होगा। वे उनकी किताब ‘द ब्लू ग्रोव’ पढ़ चुके थे और उस पर उन्होंने लिखा भी था। ख़ैर, सत्यार्थी जी वासुदेवशरण अग्रवाल के पास जाकर बैठ गए। और फिर दूर से आता दिखाई दिया उन्हें वह शख़्स जिसका नाम तो उन्होंने सुना था, पत्र-व्यवहार भी हुआ पर कभी मिलना नहीं हुआ था। जब आर्चर आकर सत्यार्थी जी से गले मिले तो उन्होंने जैसे ख़ुशी से झूमकर कहा, “इट्स इंडिया एंड इंग्लैंड एंब्रैसिंग!”
आज जब सत्यार्थी जी नहीं है तो उनकी अनथक लोकयात्राएँ और निराला लोक-अध्ययन ही नहीं, वे हमसफ़र भी याद आते हैं जिन्होंने सचमुच इस देश की देसी पहचान यानी लोक-संग्रह और लोक-अध्ययन का एक बड़ा कारवाँ बनाया और देखते ही देखते समूचे देश में लोक साहित्य का एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया।
सत्यार्थी जी की स्थिति उसमें ऐसे नायक की थी, जिसने अपने ख़ून-पसीने से उसे सींचा और ग़रीब किसान और स्त्रियों के दर्द से सीझे लोकगीतों को दूर-दूर तक हवाओं में गुँजा दिया। लिहाज़ा जब भी आज़ादी की लड़ाई के सामाजिक और लोक-पक्ष की याद आएगी, तो सत्यार्थी जी के व्यक्तित्व और काम का महत्त्व हमें कहीं अधिक समझ में आएगा।
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ख़ुद एक लोकगीत बन गए सत्यार्थी जी
अपने जीवन में ही ‘किंवदंती पुरुष’ बन गए देवेंद्र सत्यार्थी आख़िर अपनी ‘टूटन’ और थका चोला छोड़कर चले गए। और यों लोकगीतों का यह ‘यायावर मसीहा’ जिसने अपना समूचा जीवन लोक साहित्य और लोक संस्कृति को सम्मान दिलाने के लिए लगा दिया, जिसने जीवन भर सिर्फ़ दिया ही, किसी से कभी कुछ लेना नहीं जाना, 12 फऱवरी, 2003 को अपार शान्ति से मृत्यु की गोद में सो गया। एक लंबी, अनंत लंबी नींद!
हालाँकि आख़िर तक उनमें ज़िंदादिली बनी हुई थी और नब्बे बरस की अवस्था में भी उनसे बतकही करने पर मानो गुज़रा हुआ ज़माना आँखों के आगे उपस्थित हो जाता था। समय के साथ-साथ धीरे-धीरे शक्तियाँ शिथिल हो रही थीं, पर मन अब भी परिंदों की तरह मुक्त हवा में उड़ानें भरने के लिए उत्सुक था। उनसे बात करने का मतलब शब्दों में लोकगीतों और लोक साहित्य की एकदम ताज़गी और ज़िंदादिली से भरपूर व्याख्याओं को उतरते देखना था। उन्होंने जैसे लोक साहित्य को साँस-साँस में जिया था। और वे जो कुछ भी कहते या लिखते, उसमें लोक की तमाम-तमाम रूपों में अभिव्यक्ति होती। साँसें थमने लगीं, पर उनके शब्दों में लोक जीवन की सुवास कम नहीं हुई।
इसी तरह जिन दिनों वे ‘आजकल’ के संपादक थे, तब इस पत्रिका का जो रूप, जो साहित्यिक गरिमा थी, उसे आज भी बड़े से बड़े साहित्यकार सम्मानपूर्वक याद करते मिल जाएँगे। फिर उनकी अलमस्त फक्कड़ी वाली अदा और स्वाभिमान! बलराज मेनरा ने कभी बेहद चुभते हुए शब्दों में कहा था, “सत्यार्थी के घायल, थके हुए, धूल से अँटे और मंज़िल से अपरिचित पाँव कलाकार अस्तित्व की साख और ज़मानत हैं।”
और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने तो एक लोकगीत का ही सहारा लेकर, बड़े अलबेले अंदाज़ में उन्हें लिख भेजा था, “ओ सतार्थी भैया, तोरी डगरी अकेल . . .!”
सच तो यह है कि लोकगीत की खोज करते-करते देवेंद्र सत्यार्थी ख़ुद एक लोकगीत बन गए, जिसकी मार्मिक धुन और करुणा हमारे अंतरतम को बेधती है और हमारे कंधे पर हाथ रखकर, हमें कुछ और निर्मल, कुछ और संवेदनशील इन्सान बनने को न्योतती है! यहाँ तक कि ग़ौर से सुनें तो समूची बीसवीं सदी के साहित्य और संस्कृति की ‘मर्म-पुकार’ उसमें सुनाई दे सकती है! इससे बड़ा और सार्थक जीवन भला सत्यार्थी जैसे विलक्षण लोकयात्री का और क्या हो सकता था।
9 टिप्पणियाँ
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आदरणीय मनु जी! क्या ही कहूँ। आपके बारे में जब सत्यार्थी जी की पुत्रियों से सुन था, तब तक नहीं जानती थी कि आप भी मेरे नाम से परिचित हैं। आपसे बात करके आपकी संवेदना से परिचित हुई और आँखों के किसी कोने में आँसू आकर ठिठक गए। आपने अपनी लेखन-शैली व प्रक्रिया के बारे में चर्चा की थी। मुझे लगा, आप बहुत कुछ ऐसी संवेदना मुझसे साझा कर रहे हैं, जो किन्ही नाज़ुक क्षणों में मुझ पर हावी हो जाती है। अवसर व समय की अथवा कहें प्रारब्ध की बात होती है। 2016 में मैंने अपने पति को खोया था। उसके बाद बेटी और दामाद मुझे हरिद्वार व उत्तर प्रदेश ले गए थे। उस समय मेरा मन हुआ कि मैं कुछ समय उधर ही रहूँ और सबसे मिल लूँ। लगभग सातेक वर्ष पूर्व मैं दिल्ली में अपनी एक चचेरी बहन के पास भी। लगभग दसेक दिन रही, जहाँ मेरे मन की बात करने वाला कोई नहीं था। मेरी बहन नई दिल्ली में थी और वहीं वह बगीचा भी था, जो आदरणीय सत्यार्थी जी के घर के ठीक सामने था। मेरी बहन ने कहा कि जीजी, तुम्हें यहाँ पर अपने जैसे लोग मिलेंगे। वहीं मेरा परिचय उनकी दोनों पुत्रियों से हुआ। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैंने देवेन्द्र सत्यर्थी जी का नाम सुन है? ऑफ़ कोर्स! मैं यह सुनकर गद्गद हो गई कि उनकी बेटियों से कैसे मेरा परिचय हुआ है? उन्होंने मुझे उनकी कोई कहानी की पुस्तक भी दी थी जो अब याद नहीं है, क्योंकि मेरी वापस आने की फ़्लाइट बुक थी और मुझे उनको वह पुस्तक लौटनी थी। सरसरी नज़र से ही देख पाई। लेकिन उनसे काफ़ी समीपी संबंध हो गए और अलका, जिन्हें कविता लिखने में रुचि है, को मैंने अहमदाबाद में आकर अपने 'वनकाम' यानि विषतः नागरिक मंच के पटल पर जोड़ लिया, जो ऑन लाइन चलता ही और उसमें पूरे गुजरात व स्वराष्ट्र के कवि-कवियित्री अपनी काव्य-रचना का पाठ करते हैं। इस प्रकार से उनसे घनिष्टता हुई। मेरा उनसे बार-बार प्रश्न यह था कि क्यों सत्यार्थी जी के नाम पर उस सामने वाले बाग का नामकरण नहीं किया जा सकता? संभवत: मेरी उनसे मुलाकात लगभग दस दिनों तक एकाध घंटे होती रही होगी, और उनके मुँह से जो उनके पिता जी की बातें मैंने सुनीं, मुझे बार-बार इस एहसास ने संवेदना से भर दिया कि ऐसे व्यक्तित्व बिरले ही होते हैं। लोग उनकी गहनता के बारे में समझ पाने में असमर्थ हैं तो बेटियाँ अपने पिता के नाम के लिए कुछ प्रयत्न करें। आप ही बताएं क्या यह छोटा सा काम उनके लिए नहीं होना चाहिए? आपने बहुत सी बातें जैसे मदनमोहन मालवीय जी के बारे में बताईं, मुझे अपने पिता डॉ. विष्णु शर्मा शास्त्री की स्मृति हो आई जो उनके बहुत करीब रहे हैं व बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के स्वर्णपदक प्राप्त छात्र रहे हैं। मुझे लगता है कि कहीं न कहीं जीवन एक-दूसरे से संबंधित रहता ही है। मेरी तो आंतरिक इच्छा है कि उनके घर के सामने वाले पार्क पर कम से कम उनके नाम की स्मृति-पट्टिका लग सके। आपकी बहुत शुक्रगुज़ार हूँ इस विस्तृत लेख के लिए। प्रणाम आपको। - प्रणव भारती, अहमदाबाद
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देवेंद्र सत्यार्थी जी की स्मृतियों को पाठकों तक पहुंचाने का यह अनुष्ठान बहु आयामी है। पढ़ कर पाठक विभोर होने के साथ जीवन के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण के कई प्रतिमान प्राप्त कर स्वयं को अतिरिक्त समृद्ध महसूस करता है। आदरणीय प्रकाश मनु जी को सादर प्रणाम। बधाई। शुभकामनाएं। प्रहलाद श्रीमाली
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डा प्रकाश मनु की कलम.से -देवेन्द्र सत्यार्थी एक बूढे फरिश्ते की यादें साहित्य कै.शिखर पुरुष, वरिष्ठ साहित्यकार डा देवेन्द्र सत्यार्थी पर लिखना या उनके सृजन को समीक्षित कर पाना अत्यंत कठिन है।जब मैने डा प्रकाश मनु जी की कलम.से अपने गुरु देवेन्द्र सत्यार्थी को.समर्पित भाव सुमन के रुप मे एक संस्मरण को पढा तो चमत्कृत रह गई,स्नेह आदर और श्रद्धा के इस अविरल प्रवाह पर। जब वे दिल्ली आये सत्यार्थी जी तो एक पितृवत स्नेह और साहित्यिक गुरु के रुप में उनका.मार्गदर्शन करते रहे। लेखन और सृजन की चुनौतीपूर्ण भूमिकाओं में.भी एक.सारथी की.तरह उनके साथ रहे यह बात आदरणीय प्रकाश मनु जी की.श्रद्धा और स्नेह का अनुमान उदाहरण बन गई थी जब.वे लिखते हैं कि"उनसे मिलकर मुझे लगा था, जैसे मेरी आत्मा निर्मल और उजली हो गई है, और काम करने की अनंत राहें मेरे आगे खुल गई हैं। लिखना क्या होता है, यह मैंने पहलेपहल उनके पास बैठकर जाना था।सत्यार्थी जी को लोकसाहित्य, लोकगीत और लोक परंपराओं से अपार लगाव थाथा डआ मनु लिखते.हैं कि उन्होने किसी फरिश्ते की तरह जीवन के मर्म को समझाने का प्रयत्न किया था।अपनी आत्मा को अपने स्व को पहचानने और साहित्य के नये रुप से.परिचित करवाने का.श्रेय भी वे उन्हे देते हैं।उनका मानना है कि लिखना केवल लिखना ही नहीं, लिखना अपने आपको माँजना था, जिससे अपने भीतर और बाहर उजाला होता है। यह मांजना भी साधारण नही था थाम ।आनी आत्म शुद्ध या मन की आंतरिक गहनता में निहित आत्म का परिष्कार जैसा था जिसने एक सर्वथा नयी दुनिया से परिचित करवाया। उनके जीवन को,समाज को देखने व परखने का दृष्टिकोण ही बदल गया। इस संस्मरण को पढते.समय.मन एक अद्भुत भाव प्रवाह में बहता चला जाता है।जैसे.मैं दो पीढियो के साहित्यिक पुरोधाओं को एक साथ सृजन पथ पर चलते हुए देख रही हूं। हृदय अनुभूत करता है और कलम चल रही है निर्विघ्न निर्बाध, अविरल,लगातार। जैसे सृजन के.विशाल समंदर में भावों,शब्दों की उत्ताल तरंगे उठती ,गिरती हैं और पाठक का.मन भी उस प्रवाह के.साथ एकाकार हो.लह रहा है।डा प्रकाश मनु अपने संस्मरण में लिखते हैं, जीवन तो एक महाकाय समंदर है जिसे शब्दों में बाँधा नहीं जा सकता। ऐसे ही साहित्य हो, संगीत या अन्य कलाएँ, सबसे पहले तो ये हृदय की आवाज़ हैं,आदरणीय सत्यार्थी जी का.लोकगीतों से जुडाव अप्रतिम था।शायद लोकगीत.मिट्टी की सोंधी खुशबू और आत्मीयता से.भरे.हुए अमृत कलश जैसे थे उनके.लिए जो भावों, और स्नेह की अमृत वर्षा करने में सक्षम थे,और वही स्नेह वो दूसरों में बांटते थे।यद्यपि उनका संग्रह कठिन कार्य था पर.यदि मनुष्य के मन में लग्न व दृढ इच्छा शक्ति हो तो कोभी कार्य दुरुह नहीं लगता।उन्होने देश भर.में घूमकर लोकगीत संकलित किए और उनके.संदर्भ और निहित अर्थ को.भी परिभाषित करने का प्रयत्न किया था।उनकी सरलता ,बच्चो जैसी निश्छलता उनके.व्यक्तित्व को गरिमामय बनाती थी। जब मनु सर.उनसे पहलीा बार मिले तो दिल्ली जेसे शहर में निवास कर पाने की आशंका से परेशान थे परंतु आदरणीय देवेंद्र जी से मिलने के बाद ही उन्होने अनुभव किया कि जब इतने सच्चे सरल व्यक्ति यहां रह सकते.हैं तो.वो क्यों नहीं?आदरणीय प्रकाश मनु सर.स्वय एक प्रबुद्ध सशक्त कवि,कथकार हैं पर जब वे अपने गुरु आदरणीय सत्यार्थी जी को याद करते.हैं तो जैसे उनकी निष्ठा , आदर स्नेह दूसरों के लिए भी प्रेरणादायक बन जाता है। मैं स्वयं उनकी प्रशंसिका हूं परंथु सत्यार्थी जी के प्रति उनके स्नेह और सम्मान का भाव अभिभूत करता है उनके प्रति मेरा सम्मान और भी अधिक प्रगाढ ,सशक्त और स्नेहिल हो उठता है। जैसा कि स्वयं मनु सर.ने लिखा है कि पहली बार सत्यार्थी जी ने मुझे जीना सिखाया। उन्होंने एक मीठी फटकार लगाते हुए कहा, “तुम अपने आनंद में आनंदित क्यों नहीं रहते हो? . . . ख़ुश रहा करो मनु . . .। तुमने कोई अपराध थोड़े ही किया है। खुलकर हँसना सीखो, खुलकर जियो . . . हमें यह जीवन आनंद से जीने के लिए मिला है। अगर तुम यह सीख लो तुम्हें कोई मुश्किल नहीं आएगी।” यह भाव बोध किसी की भी प्रेरणा का स्रोत और मार्गदर्शन कर सकता है। आज उनकी जयंती पर उन्हे याद करते हुए अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करती हूं।शत-शत नमन, अशेष प्रणाम। पद्मा मिश्रा-जमशेदपुर
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सत्यार्थी जी पर इतना विस्तृत और सुंदर लेख लिखने हेतु हार्दिक बधाई। इतने अपनत्वपूर्ण लेख को पढ़ते समय लगा, काश, थोड़ा और पढ़ पाती। यह आपकी चुंबकीय लेखन-शक्ति का कमाल है। - सुकीर्ति भटनागर, पटियाला, पंजाब
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परमादरणीय सत्यार्थी जी के जन्मदिन के अवसर पर उनको सादर प्रणाम! ऐसी विभूतियाँ, ऐसे व्यक्तित्व विरले ही होते हैं। - प्रो (डा.) शशि तिवारी, आगरा
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देवेन्द्र सत्यार्थी जी को जो आदर- सम्मान आप ने अपने इस अमूल्य संस्मरण में दिया है,वह उन के मूल्यांकन में वृद्धि तो करता ही है,साथ में आप की निश्छलता और प्रतिभा भी हमारे सामने लाता है। जिस दुर्लभ आत्मीयता से आप ने देवेन्द्र सत्यार्थी जी की गहरी साहित्यिक समझ का और लोक- गीतों के प्रति रहा उन के जुनून का वर्णन किया है,वह अपने आप में भी किसी महान कृति से कम नहीं। आप की प्रभावशाली लेखन- शक्ति का प्रवाह ऐसा आकर्षक है कि कोई भी पाठक इसे पूरा पढ़ने का लोभ संवरण नहीं कर पाएगा। ढेरों बधाई व शुभ कामनांए, प्रकाश मनु जी|
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बहुत ही विस्तृत और मनमोहक लेख है सर। - रतनलाल, रेवाड़ी, हरियाणा
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क्या खूब लिखा है। इसे पढ़ते हुए लगता है कि आलेख और भी बड़ा होता। सत्यार्थी जी पर तो कितना ही लिखा जा सकता है। - किशोरकुमार कौशल, फरीदाबाद
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देवेंद्र सत्यार्थी जी पर इतना बृहत पर रोचक खोजपूर्ण आलेख ।ऐसा लगता है कि कोई बड़ा वृतचित्र देख रहे हों। देवेंद्र सत्यार्थी जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को सहेजते समेटते ऐसा लगा कि पाठक उस युग को जी रहा है।
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