सिंदूरी प्रेम
डॉ. ममता पंत1.
फिर फूलों ने राग सुनाया है
कलियाँ हुई हैं गुंफित
लगे गुनगुनाने भँवरे
सुबह हुई है प्रफुल्लित
चाँद आलिंगन कर ऊषा का
हो गया उसमें समाहित
दिनकर ने रश्मियाँ बिखेरीं
हो गया सवेरा सिंदूरी
मन-मयूरा नाच रहा है
देख परिंदों को शृंखलित
सपनों की उड़ान भर
चल पड़ा मन-पखेरू प्रफुल्लित
जो कही थी लक्षणा, व्यंजना में
वो कह दी है अभिधा में
सुना है उसने साफ़-साफ़
जैसे मंदिर का शंखनाद
कोंपल अंतस् का खिलना है
प्रियतम से अभी मिलना है
मन-मयूरा है हर्षित आज
खिल गया है जीवन में अप्रतिम मधुमास!
2.
साँझ मिलकर सूरज से
सिंदूरी हो गई
होना ही था
मिलन का यह क्षण
अद्भुत है
इंतज़ार ख़त्म हुआ किसका
यह कह पाना दुष्कर है
नित नवरंग ले सँवरती
प्रकृति बिखेरती
धरा पर नए रंग
राग-विराग के
संयोग-वियोग के
हर्ष-उल्लास के . . .
सबसे अप्रतिम
प्रेम का रंग
चढ़ गया है मेघों में
वह भी होने लगे हैं
धीरे धीरे सिंदूरी
होना ही था
प्रेम का रंग तो
होता है ऐसा ही
हवा में घुलकर
बिखेरता है ख़ुश्बू
औ' कर देता है
चमन को
अपने ही रंग से सराबोर
मिलन का जश्न मनाने
आ रहे हैं
चाँद-तारे
धीरे-धीरे
रात्रि का आलिंगन कर!
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