समकालीन यथार्थ की गहन पड़ताल करतीं कविताएँ

01-02-2023

समकालीन यथार्थ की गहन पड़ताल करतीं कविताएँ

डॉ. ममता पंत (अंक: 222, फरवरी प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

पुस्तक: अब पहुँची हो तुम
लेखक: महेश चंद्र पुनेठा
प्रकाशन: समय साक्ष्य, देहरादून
पृष्ठ:123
मूल्य: ₹125/-

‘अब पहुँची हो तुम’ महेश चंद्र पुनेठा का 55 कविताओं का संग्रह है जो समय साक्ष्य प्रकाशन देहरादून से प्रकाशित हुआ है। इससे पूर्व उनके तीन कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं—‘भय अतल में’; ‘पंछी बनती मुक्ति की चाह’ और ‘समकाल की आवाज‘। ‘अब पहुँची हो तुम’ पीड़ा, यातना, स्वीकृति, मोहभंग, आशा-निराशा, विश्वास तथा अविश्वास के स्वर से उपजी अंतर्मन की भावनाओं, चिंताओं एवं व्यग्रताओं की यथार्थ अभिव्यक्ति है, जो हमारे समक्ष एक विशाल फलक को लेकर उपस्थित हुई है। भूख, ग़रीबी, लाचारी, बेरोज़गारी, विकास, विनाश, किसानों के दर्द की अभिव्यक्ति, बाज़ारवाद, प्राकृतिक एवं राजनीतिक सत्ता के बीच का द्वंद्व, नारी जीवन की विवशताएँ इत्यादि कविताओं के मुख्य विषय हैं। 

संग्रह की प्रथम कविता ‘अमर कहानी’ सत्य के महत्त्व को प्रदर्शित करते हुए, एक बालक के कहन को आधार बनाकर सम्पूर्ण मानव-जाति को उनके दायित्व एवं कर्तव्यों का भान कराती है। सत्य कड़वी दवा की भाँति होता है जो पूरे मुँह का स्वाद बिगाड़ देता है लेकिन अंदर के रोग को नष्ट कर पुनः ऊर्जावान बनाकर जीने की ललक पैदा करता है:

“न उस राजा के कारण
न पारदर्शी पोशाक के कारण
न उस पोशाक के दर्जी के कारण
न चापलूस मंत्रियों के कारण
न डरपोक दरबारियों के कारण
कहानी अमर हुई बस
उस बच्चे के कारण
जिसने कहा राजा नंगा है।” (पृ.9) 

सत्य हमेशा से ही कड़वा रहा है, इसकी राह कठिन होती है। लेकिन सत्य अपनी ताक़त से जीवन-जगत की विसंगतियों को यथार्थ के साथ चित्रित भी करता है जिस पर यह कविता पूर्णतः सफल हुई है। 

जीवन सुख और दुःख का संयोजन है, लेकिन दुःख हमेशा सुख पर ही भारी पड़ता है। जीवन-सागर पर उसका फैलाव अनंत है जिसकी अभिव्यक्ति कवि ने बहुत ही सहजता से की है:

“वह दुख लिखने लगी
लिखती रही
लिखती रही
लिखती ही रह गयी।” (पृ.10) 

‘नचिकेता’ शीर्षक कविता में कवि ने मिथक के माध्यम से पुराकालीन जीवनशैली और भविष्य की ओर तकती उस आशा को देखने का प्रयास किया है जिसमें चुपचाप रहना ही एकमात्र विकल्प नहीं होता अगर परिवर्तन की चाह है तो प्रतिरोध करना बहुत ज़रूरी है और प्रतिरोध के लिए आवश्यक है प्रश्नों का होना। प्रश्नों के महत्त्व को रेखांकित करतीं ये पंक्तियाँ मनुष्य के जीवन-दर्शन की ओर भी संकेत करती हैं:

“नचिकेता! 
तुमने चाहे
प्रश्नों के उत्तर
इसलिए तुम
हज़ारों साल बाद भी
ज़िन्दा हो
जब तक प्रश्न रहेंगे
तब तक तुम भी रहोगे।” (पृ.11) 

पलायन के दर्द को बयाँ करती ‘गाँव में सड़क’ कविता बहुत महत्त्वपूर्ण है। गाँव में बुनियादी ढाँचे का न होना पलायन का मुख्य कारण है और उस पीड़ा को कवि ने बड़े ही सामान्य एवं अत्यंत प्रभावशाली रूप में अभिव्यक्ति दी है:

“सड़क! 
अब पहुँची हो तुम गाँव
जब पूरा गाँव शहर जा चुका है
सड़क मुस्कुराई
सचमुच कितने भोले हो भाई
पत्थर-लकड़ी और खड़िया तो बची है न!” (पृ.12) 

‘जेरूसलम’ कविता एक गहरी भाव भूमि को लेकर हमारे समक्ष उपस्थित होती है और उसकी अंतिम पंक्तियों में वह गहन भाव स्पष्टत: दृष्टिगोचर होता है जिसमें वह अपनी सार्थकता खो चुके एक प्राचीन शहर के यथार्थ को उद्घाटित करती हुई उसे उलाहना देती है:

“हे! दुनिया के प्राचीन शहर
क्या कभी तुम्हें लगता है
कि पवित्र भूमि की जगह तुम
काश! एक निर्जन भूमि होते।” (पृ.14) 

स्त्री-जीवन विसंगतियों का अपार भंडार होता है। उनके सुख-दुख व यादों की कोई लिखित डायरी नहीं होती; या फिर उनके पास अपनी यादों को सँजो पाने का अवकाश ही नहीं होता! बस उनका अंतर्मन ही होता है जिसमें वह इस अपार को समाए रहती हैं:

“याद नहीं कि देखी हों कभी
माँ की पुरानी चिट्ठियाँ
या पुरानी डायरियाँ
मान लिया माँ बहुत कम पढ़ी-लिखी थी
पर पत्नी की भी तो नहीं देखीं
जबकि बात-बात पर
वे अपनी स्मृतियों में जाती रहती हैं
और अक़्सर नम आँखों से लौटती हैं
कभी उन की छंटनी भी नहीं करती हैं” (पृ.16) 

पहाड़ी स्त्रियों का जीवन भी पहाड़ की ही भाँति दुर्दांत होता है। उनके पास उनके हिस्से की बेचैनी भी नहीं होती; समय ही नहीं होता उनके पास बेचैन होने को भी! इस ओर भी कवि की दृष्टि गई है जिसे उन्होंने ‘उड़भाड़’ कविता में बड़ी संजीदगी से अभिव्यक्त किया है:

“एक औरत के लिए और भी बुरा होता है उड़भाड़
पुरुष हो तो
पूरी कर ले रात की बची नींद
औरत के लिए तो यह भी सम्भव नहीं
एक और डर कि
देर तक सोती रह गयी कहीं
तो परिवार में पूरे दिन उड़भाड़ न हो जाय।” (पृ.17) 

‘जो दवाएँ भी बटुवे के अनुसार ख़रीदती थी’ कविता स्त्री-जीवन का वह अनकहा-अनछुआ वृत्तांत है जिसके मर्म को समझकर कवि ने पहाड़ी स्त्रियों की आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक और नैतिक ज़िम्मेदारी का और उनसे उपजी व्यवस्थाओं के यथार्थ को उद्घाटित किया है। अपने जीवन में कई बार मरती स्त्रियों का वृत्तांत है यह कविता:

“उसकी परेशानियों को
सुनने के बाद
डॉक्टर आधे दर्जन से अधिक
जाँचों के लिए लिख देता है
वह गिड़गिड़ाती है
कुछ जाँचें तो कम करवा दो साहब
डॉक्टर पर्ची वापस लेकर
कुछ पेनकिलर लिख
घर जाने को कहता है
वह राहत की एक लंबी साँस लेती है।” (पृ.18) 

पहाड़ की दिनचर्या इतनी व्यस्त होती है कि स्त्री को अपनी बीमारी जीने का अवकाश भी नहीं मिल पाता। उसकी ज़िम्मेदारियों का बोझ इतना बड़ा होता है जिसके सामने वह केवल अपने सुख-दुख को ही अनदेखा नहीं करती अपितु अपने स्वास्थ्य की गंभीरता को भी उपेक्षित कर देती है:

“बच्चेदानी में बहुत अधिक इंफेक्शन है जल्द से जल्द ऑपरेशन कराना ही होगा
वह सोच ही रही थी-
क्या करे? 
घर से संदेश आ गया
कि गाय ब्या गई है उसकी
लेकिन
उठन नहीं पाई है अभी तक . . .” (पृ.19) 

उसकी ज़िम्मेदारियाँ भुला देती हैं दर्द को, नासूर होती बीमारी को; जो जानलेवा भी हो सकती है। वह अकेले ही ठेलते रहती है पीड़ा को अपनी पीठ पर आजीवन; कई प्रकार की पीड़ाओं को ठेलती वह अपने जीवन में कई बार मरती है:

“अब की बार हालत
इतनी बिगड़ गई उसकी
कि भर्ती कराना पड़ा अस्पताल में
आज पहली बार
उसका पति भी उसके साथ था
नहीं लौट पायी वह
अबकी बार पेन किलर लेकर
पति को उसकी लाश लेकर लौटना पड़ा। 
आज अचानक नहीं मरी
हाँ आज अंतिम बार मरी
उसको जानने वाले कहते हैं
मरी क्या बेचारी तर गई।” (पृ.20) 

संग्रह में संकलित कविताओं की भाव-भूमि विभिन्न संदर्भों से आच्छादित है लेकिन संवेदनशीलता कवि-कर्म की मुख्य विशेषता है। कहीं कहीं तो उनकी कविताओं की अंतिम पंक्तियाँ जिस तरीक़े से विराम लेती हैं; एक अप्रतिम भाव-भूमि का विस्तार देकर अंतर्मन को उद्वेलित कर देती हैं। 

परिवेश में व्याप्त स्वार्थान्धता, कमीशनख़ोरी, योजनाओं के स्वीकृत होने के सत्य को कवि ने संकेतों के माध्यम से बड़ी ही सरलतापूर्वक उजागर किया है:

“मीलों दूर से
पानी सारते-सारते
थक गये कंधे . . .
नहीं मिली एक पेयजल योजना
मगर
बिन माँगे मिल गया
लाखों के बजट का
एक भव्य मंदिर . . .” (पृ.25) ‌

‘ग्रेफीटी’ शीर्षक कविता जहाँ एक परीक्षा ड्यूटी देते हुए अध्यापक द्वारा कक्षाओं की बेंच पर, दीवारों पर ख़ुदी कलात्मक इबारतों को पढ़ते हुए बच्चों के मनोविज्ञान को पकड़ने-समझने की कोशिश और अनेक सवालों का जन्म है:

“अनेक सवाल उठ रहे थे
क्या दुनिया के उन समाजों में भी
इसी तरह भरे होते होंगे
मेज़ें और दीवारें
जहाँ प्रेम और आक्रोश की
सहज होती होगी अभिव्यक्ति
जहाँ बच्चों को
ज़बरदस्ती न बैठना पड़ता होगा
बंद कक्षाओं में
या कुछ और है इसका मनोविज्ञान?”(पृ.29) 

वहीं ‘परीक्षा कक्ष के बाहर पड़े मोजे-जूते‘ कविता स्कूल/काॅलेजों में वाहनों के शोरगुल से पड़ते व्यवधान और सर्दियों में होने वाली परीक्षाओं पर एक व्यंग्य भी है; जिसमें कवि ने अपनी आत्मपरक दृष्टि से परीक्षार्थियों की व्यथा को समझते हुए व्यवस्था की संवेदनहीनता पर सटीक एवं ज़रूरी प्रश्न दागा है:

“बार-बार टूट रही तुम्हारी तन्मयता
हमें महसूस हो रही है
ठंड कैसे तुम्हारे पैरों के पोरों से
पहुँच रही है हाथों की
अंगुलियों तक
लगता है जैसे बर्फ़ीली हवाएँ भी
ले रही हैं तुम्हारी परीक्षा
पता नहीं तुम पर गढ़ी दो-दो जोड़ी आँखें
ये सब देख पा रही हैं या नहीं। 
या फिर देखकर भी अनदेखा कर रही हैं
किसी मजबूरी में . . . . . . . . . . . . . . . . . .
क्या यह ठंड
या परिसर में गूँजती आवाज़ें नहीं प्रभावित करती हैं
किसी परीक्षा परिणाम को . . . . . .” (पृ.53-54)

‘मेरी रसोई-मेरा देश’ शीर्षक कविता एक विस्तृत फलक को हमारे समक्ष रखती है; जिसमें जीवन-जगत के कई-कई रंग हैं। इस कविता को संग्रह की प्रतिनिधि एवं ज़रूरी कविता कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। रसोई एवं उसमें निहित सामग्रियों का सहारा लेकर कवि ने परिवार से लेकर राष्ट्र तक की असंगतियों को जिस प्रकार से उजागर किया है वह अद्भुत है। ये कविता प्रतीकों के माध्यम से जहाँ एक ओर सामाजिक विसंगति के कई संदर्भों को उकेरती है वहीं समरसता व सहिष्णुता के भावों का भी प्रतिपादन करती है:

“कितने सारे रूप
कितने सारे रंग
कितनी सारी गंध
कितने सारे स्वाद
कितनी सारी ध्वनियाँ
बसी हैं रसोई में
क्या कभी कोई
खड़े दिखे
एक दूसरे के ख़िलाफ़? 
मिलकर ही बनाया सबने
रसोई को खुशहाल।” (पृ.33) 

घर-परिवार हो या फिर सामाजिक संगठन, सत्ता पक्ष की बात हो या विपक्ष की या फिर टीवी चैनलों में डिबेट से जुड़ी बातें; सब अपना-अपना राग अलापते हैं। तवा, कढ़ाही, रसोई, रोटी-सब्जी जैसे उपमानों का सहारा लेकर कवि ने गहन व्यंजना के साथ परिवेशगत यथार्थ को उद्घाटित किया है:

“तवा कहे-देखो कढ़ाही कितनी काली है
कढ़ाही भी वही दोहराए
देखो तवा कितना काला है
तवा और कढ़ाही की लड़ाई में
पूरी रसोई शर्माए
रोटी-सब्जी के कुछ समझ ना आये।” (पृ.43) 

किसान आंदोलन के दौरान सत्ता पक्ष का उपेक्षित एवं उदासीन रवैया और किसान की दुर्दशा व व्यथा का जीवंत चित्रण कवि ने ‘त्रासद’ कविता में बड़ी बेबाकी के साथ किया है:

“अक़्सर खेतों में
घाम में पसीना बहाता . . . 
दिन-रात खटकर
खेती करता देखा जिसको। 
आज राजपथ में
वाटर कैनन से जूझते
लाठियाँ खाते
आँसू गैस झेलते
खेती बचाने को लड़ते देखा उसको
ख़ुद ही खटना
ख़ुद ही लड़ना
क्या नहीं यह त्रासद घटना?” (पृ.64) 

‘ठिठकी स्मृतियाँ’ ग्रामीण जीवन की स्मृतियों को ताज़ा करती बेहतरीन कविता है:

“बचपन की स्मृतियाँ ठिठक रही हैं
ठिठकी स्मृतियाँ ढूँढ़ रही हैं उन किनारों को
जहाँ संगी साथियों के साथ
गाय-बछियों को चराया करते थे
जहाँ मई-जून के तपते दिनों में भी झलुआ-काली-सेती
ढूँढ़ लेती थी हरे घास के तिनके
गाज्यौ-पराल-नलों के अभाव में भी
पल जाते थे गोठभर जानवर . . . ” (पृ.66) 

‘आपसी मामला’ कविता में कवि ने आधुनिकता का जामा पहने संकुचित लोगों की उस संकुचित विचारधारा और असंवेदनशीलता की ओर संकेत किया है जिसमें सड़क पर गुंडों-लफंगों द्वारा परेशान की जाती लड़कियों को उनका निजी मामला है कहकर अनदेखा कर आगे की ओर बढ़ जाते हैं लोग:

“भला हम क्या कर सकते हैं
ये वही लोग हैं जो
सड़क पर किसी लड़की को
गुंडों द्वारा छेड़ते हुए देख
अनदेखा कर आगे बढ़ जाते हैं” (पृ.50) 

‘कुएँ के भीतर कुएँ’ कविता हमारे परिवेश में व्याप्त विभिन्न संकीर्णताओं की ओर इशारा करते हुए कहती है:
“मुझे शक है
कि तुम ख़ुद को भी देख पाते हो या नहीं
लोग कहते हैं तुम ज़िन्दा हो
पर मुझे विश्वास नहीं होता है
एक ज़िन्दा आदमी
इतने संकीर्ण कुएँ में
कैसे रह सकता है भला!” (पृ.52) 

‘माँ की बीमारी’ शीर्षक कविता में कवि ने बीमारी के दौरान हाल-चाल लेने पहुँचे रिश्तेदारों, आस-पड़ोस के लोगों द्वारा कही जाने वाली सकारात्मक एवं नकारात्मक बातों का बीमार मनुष्य के अन्तर्मन में पड़ने वाले व्यापक प्रभाव की गहन एवं यथार्थ पड़ताल की है। ‘कितना ख़तरनाक है’ हमारे समाज के मज़दूर वर्ग की प्रतिनिधि कविता है। कवि की दृष्टि से मज़दूर महिलाओं और उनके बच्चों की व्यथा छुप नहीं पायी है। इस कविता में कवि ने एक श्रमजीवी महिला एवं उसके छोटे बच्चे का जो चित्र खींचा है वह मार्मिक होने के साथ-साथ एक ऐसा सत्य भी है जिसको जीना मानो उनकी नियति हो:

“खेलते खेलते नींद में चला जाता है वह
गिट्टियाँ तोड़ती माँ
एक कपड़े का टुकड़ा डाल
सुला देती है उसे
गिट्टियों के ही ऊपर
पता नहीं कहाँ खो जाती है गिट्टियों की चुभन . . . . . .” (पृ.72) 

‘भीमताल’ कविता में कवि ने प्रकृति के अनेक रंग और उन रंगों को लेकर निखरती-सँवरती प्रकृति मानव-मन को रोमांचित ही नहीं करती अपितु एक सहचरी के रूप में कैसे हर पल साथ रहती है; उसका जीवंत चित्रण किया है:

“एक कैनवस सी फैली तू
हर पल एक नया चित्र होता जिसमें
न जाने कौन था वो
पुराने को मिटा
नया बना जाता था जो
चुपचाप। 
सुबह जहाँ तैल रंगों से बना लैंडस्केप होता
शाम के आते-आते वहाँ
बिजलियों के पेड़ उग आते
और चाँदनी रात में
चाँद दिख जाता
ख़ुद को निहारते हुए तुझमें।”(पृ.74) 

‘दीपावली’ कविता में कवि ने संसार में गहनता से विद्यमान उस अँधेरे की ओर संकेत किया है जिसे मोमबत्ती, दिए एवं चमचमाते बल्बों की रोशनी दूर नहीं कर सकती क्योंकि मानव ने अपने मन के अँधेरों को दीप्त करना नहीं सीखा है अभी:

“देखता हूँ
जहाँ जले हैं
सबसे अधिक दीये
मोमबत्तियां
विद्युत मालाएँ और बल्ब
पाता हूँ
वहीं छिपा है
सबसे अधिक अंधेरा।” (पृ.77) 

‘किस मिट्टी के बने हैं पिताजी’ शीर्षक कविता में कवि ने श्रम के महत्त्व को प्रदर्शित करते हुए बताया है कि जिसने आजीवन श्रम किया है, श्रम ही जिसका जीवन रहा है उन्हें शहरों की भौतिक सुविधाएँ बाँध नहीं पाती हैं बल्कि उन्हें तो शहरों में घुटन महसूस होती है:

“शहर आते हैं हमारे पास
पल भर ठहरना जैसे मुश्किल होता है उनके लिए
कहते हैं मेरा दम घुटने लगता है
इन बहुमंज़िली इमारतों के बीच
आने से पहले ही
चल पड़ते हैं गाँव की ओर” (पृ.80) 

ऊँचे-ऊँचे, हरे-भरे पहाड़, गहरी घाटियाँ, झर-झर झरते झरने सबको आकर्षित तो करते हैं; लेकिन वहाँ रहकर देखें तो वहाँ का जीवन बहुत कठिन होता है। पहाड़ों में बुनियादी ज़रूरतों का अभाव होने के कारण वहाँ का जीवन बहुत दुर्दांत होता है; किसान की हाड़-तोड़ मेहनत के बाद भी साल भर का अनाज नसीब नहीं हो पाता उन्हें। कभी अतिवृष्टि तो कभी अनावृष्टि, प्रकृति की मार से फ़सल बच भी जाय तो जंगली जानवरों की मार सब बरबाद कर देती है। घास काटती औरतों का पैर तनिक भी फिसल जाय तो उन्हें काल का ग्रास बनने से कोई नहीं रोक सकता:

“एकदम सीधे खड़े पहाड़
देख रहे हो ना! 
घास काटती हैं औरतें
तनिक असुंतलन बिगड़ने का मतलब
नीचे गधेरा या उफनती नदी
ऐसी घटनाएँ
आम होती हैं यहाँ” (पृ.85) 

अंतिम पंक्तियों में गहरी व्यंजना छिपी है जिसमें कवि हृदय पहाड़ों की सुंदरता को देखकर आकर्षित होते हुए सैलानियों का आह्वान करता है:
“दुख
अभाव
संघर्ष
क्या क्या बताऊँ
सैलानी! 
समय हो अगर
तुम्हारे पास
तो ठहरो कुछ दिन
देखो
पहाड़ को
जीकर।” (पृ.88) 

‘डर, नफ़रत और लोकतंत्र के पहरुवे’ कविता में कवि ने सत्ता पर बैठे ढोंगी समाजवादियों और लोकतांत्रिक व्यवस्था का मख़ौल उड़ाने वालों, सत्ता का दुरुपयोग करने वालों के ऊपर अपनी लेखनी चलाई है। सत्ता पक्ष के द्वारा की जाने वाली घृणित राजनीति के असल चेहरे को उजागर किया है। सत्ता में बने रहने हेतु राजनेताओं द्वारा वैमनस्यता के बीज बोए जाते हैं और सद्भावना को उजागर होने ही नहीं दिया जाता उसका पर्दाफ़ाश भी कवि ने बड़ी बेबाकी से किया है:

“सत्ताएँ
डरती रही हैं
सत्य से
अहिंसा से
और सबसे अधिक प्रेम से
असत्य, हिंसा
और सबसे अधिक नफ़रत
सत्ता के मज़बूत हथियार रहे हैं।” (पृ.90) 

कवि अपने परिवेश के प्रति सजग और सतर्क है जिस कारण आसपास व्याप्त तनाव, अंतर्विरोधों, द्वंद्वों और विकृत विसंगतियों को ज़्यादा सजकता और चौकन्नेपन के साथ कविताओं में अभिव्यक्ति मिली है। ‘प्याज़ का खेत’ शीर्षक कविता में कवि ने प्याज़ के माध्यम से हाशिए के लोगों के प्रति चिंता व्यक्त की है:

“सदा रहा होगा काश्तकार का ध्यान
खेत के मुख्य भाग पर
नहीं पहुँच पाई होगी
पर्याप्त खाद और पानी . . . 
कितना सुंदर होता यह दृश्य
हाशिए पर खड़े पौधों ने भी
गर पाई होती
मुख्य भाग के पौधों सी कद-काठी।” (पृ.119) 

‘अथ पंचेश्वर घाटी कथा’ कविता में उन्होंने नई बसासत को लेकर जहाँ कई सवाल उठाए हैं:

“बैलों की घंटी की रुनझुन . . .  
पूछती है बस एक सवाल
तुम्हारे नए शहर में कहाँ होगा इनका स्थान
है क्या किसी डीपीआर में इसका जवाब?” (पृ.102) 

वहीं भ्रमजाल फैलाती योजनाओं पर शक भी है:

“जिन्होंने कभी पूरा नहीं किया
एक अदद सपना
एक स्कूल का
एक अस्पताल का
एक सड़क का
माँगती रह गई जनता
वे आज गाँव-गाँव घूम रहे हैं
एक नए लोक का
सपना दिखाने
डूब क्षेत्र के लोगों को।” (पृ.104) 

जिन्होंने जीवन भर लूटना-चूसना जाना वे आज देश के लिए आमजन को उनके कर्तव्यों के बारे में बता रहे हैं। आगामी बाँध परियोजना के चलते डूबते क्षेत्रों की निशानदेही होने पर कवि हृदय पीड़ा से भर उठता है और एक गहरी व्यंजना के साथ व्यवस्था पर तंज़ कसता है। जो योजनाओं को साकार करने में लगे लोगों को भी निश्चित ही एक बार सोचने को विवश कर देती है:

“पेड़ों की निशान देही होने लगी है
डूब क्षेत्र में खड़े पेड़
पूछ रहे हैं एक-दूसरे से
अपनी ज़रूरत के लिए
एक पेड़ काटना
क़ानूनी अपराध है
पर समूह के समूह नष्ट कर डालना
राष्ट्र का विकास है
यह कैसा मज़ाक है?” (पृ.106) 

कवि की दृष्टि से कोई भी क्षेत्र नहीं बच पाया है चाहे वह आर्थिक हो या राजनीतिक; सामाजिक हो या धार्मिक; सभी संदर्भों पर उनकी लेखनी चली है। वर्तमान में उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे जीवन पर पूर्णतः हावी है जिसके कारण मानव स्वकेंद्रित होते जा रहा है। हमारे सामाजिक मूल्य ख़त्म होते जा रहे हैं जो भविष्य के लिए चुनौतीपूर्ण है। भूमंडलीकरण और उदारीकरण ने जिस मुक्त बाज़ार की परिकल्पना को हमारी समक्ष रखा है वह हमारे दैनिक जीवन का विशेष अंग बन चुका है। बाज़ार ने आदमी की नब्ज़ पकड़ ली है:

“सस्ते कम्बलों का रहस्य भले कुछ भी हो
यह कहना ही पड़ेगा
कि आदमी की नब्ज़ पकड़ना तो बाज़ार ही जानता है” (पृ.122) 

व्याकरणिक दृष्टि से देखा जाय तो कहीं-कहीं पर पदों, शब्दों के क्रमों का सही एवं संयोजित न होना कविता की लयात्मकता को बाधित अवश्य करता है लेकिन कविताओं का कथ्य इतना सशक्त है कि वह बाधा भी दृष्टि से ओझल हो जाती है। कविताओं को उनके कथ्य के अनुरूप श्रेणीबद्ध किया जाता तो भावप्रवणता में आसानी होती . . .। कवि से यह आशा है कि आने वाले संग्रहों में इस आंशिक कमी को पूरी कर कविता को और सशक्त करेंगे। 

निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि कुछ सामान्य और कुछ गहन व्यंजनाओं से आप्लावित कविताओं का यह संग्रह पठनीय एवं संग्रहणीय है। कविताएँ जहाँ परिवेश में व्याप्त विसंगतियों के यथार्थ को उजागर करती हैं वहीं विषम और कठिन परिस्थितियों से बाहर निकलने का मार्ग भी प्रशस्त करती हैं। इसकी बानगी ‘हरेपन को बचाना‘ शीर्षक कविता में देखी जा सकती है; जिसमें कवि के अनुसार उम्मीद ही सबसे बड़ा सहारा है जिसे बचाए रखना ज़रूरी है:

“पेड़ अपनी पत्तियाँ खो देते हैं
फिर बहुत दिनों तक
उदास-उदास रहते हैं
मगर उनके हरेपन को
अपने भीतर बचाए रखते हैं
और इस तरह
वे सूखने से बच जाते हैं।” (पृ.110) 

महेश चंद्र पुनेठा जी को इस संग्रह हेतु हार्दिक बधाई एवं अनंत शुभकामनाएँ। उनकी लेखनी का प्रकाश समकालीन कविता को यूँ ही अपने उजास से भरता रहे। 

—डॉ. ममता पंत

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