दंश जाति-भेद का

01-09-2022

दंश जाति-भेद का

डॉ. ममता पंत (अंक: 212, सितम्बर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

निःशब्द हूँ आज
कहूँ भी क्या
जब होता है
ज्ञानालय में भी
नृशंस हत्या का नाच
घड़े से पानी पीने पर
सुला दिया
एक निर्दोष मासूम को 
पीट-पीटकर मौत के आग़ोश में
न सुन पाये
करुण चीत्कार उसकी
अपने दंभ में
महसूस भी नहीं किया
उसकी प्यास को
हे राम! 
क्या अपराध था उसका
ये कैसा संसार बसाया है हमने
विधाता की अप्रतिम कृति है मनुज
जिसमें लगता जा रहा ग्रहण
जाति-भेद का दंश 
डस रहा मनुष्यत्व को
 
जिस घड़े को कुम्हार ने
बनाया था मिट्टी से
जिसमें अंकित नहीं थी जाति
उसकी भीतर भरे पानी में भी
नहीं तैर रही थी कोई जाति
लगी थी प्यास उसे
सो पी लिया पानी
उसके घर पर भी था
ऐसा ही घड़ा
जिसके पानी से
बुझाया करता था
वह अपनी प्यास
सो आज भी बुझा दी
पर ये क्या
जाति के नाम पर
तथाकथित आदर्श समाज में
बुझा दिया गया
उसके जीवन का ही दिया
 
पवित्र मंदिर ज्ञान का
कहते हैं जिसे ज्ञानालय
वहीं पर नहीं हो रहे ख़त्म
समीकरण जाति के तो
मात्र पानी पीने के जुर्म में
अपनी बलि चढ़ाएगा
फिर कोई मासूम
फिर उसकी छुवन से
घड़ा ज़हर हो जाएगा
जिसे पता ही नहीं
जाति का अछूतपन
जो छूने मात्र से ही 
परिवर्तित हो जाता है
भयानक विष में
और हत्या कर दी जाती है
विषधर की
 
हत्या!!!! 
मात्र हैडिंग बन रह जाती है
अख़बारों, न्यूज़ चैनलों औ' सोशल मीडिया की
धीरे-धीरे भूल जाते हैं सब
परत-सी जम जाती है मिट्टी की
बस परिवार जीता है उस हत्या को
उसकी माँ
अपने कलेजे के टुकड़े को
तिल-तिल
मौत के आग़ोश में समाता
देख रही थी अस्पताल में
औ' देश में मनाया जा रहा था
अमृत महोत्सव आज़ादी का
पर आज भी हम नहीं हो पाए आज़ाद
अपने तथाकथित कुलीन संस्कारों से
क्या ये वही आज़ादी है?  
जिसके लिए दीवानों ने
चूमा था हँसते-हँसते
फाँसी के फँदे को
शीश कटा अपना
चढ़ाया था माँ के चरणों में
आज उनकी आत्मा भी कर रही चीत्कार
कि, “जिस आज़ादी का सपना लिए
लगा दी जान की बाज़ी हमने
वो हमारा वतन तो
आज भी ग़ुलाम ही है
अपनी सोच में
संस्कारों में
औ' ज्ञानार्जन में भी!!!!”

1 टिप्पणियाँ

  • 27 Aug, 2022 08:12 PM

    बहुत सामयिक और जिम्मेदार रचना। शुभकामनाएं।

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