दो क़दम भागीदारी के
डॉ. ममता पंतरत्न ही तो हैं वे
जिन्होंने
धूल धूसरित मैदानों में
लोट पोट हो निखारा है ख़ुद को
नुकीली-चुभती आँखों से
बच-बचाकर खड़ा किया अस्तित्व
जानी पहचानी गईं जो
‘पराई’ संबोधन से
दूसरे की देहरी पर क़दम रखते ही
मान लेतीं जिसे अपना
सबसे बड़ी चुनौती!
सबका मन जीतने की
प्रेम से स्वीकार कर
जो बजती हैं
किचन के भाँड़े-बर्तनों में
मंदिर की घंटियों में
दुनिया-जहान के तानों में
भीगती हैं
कपड़े धोते
झाड़ू-पोंछा करते
बोझा ढोते हुए
रत्नगर्भा की भाँति
सब भार अपने ऊपर लेकर
हँसतीं-मुस्करातीं
रोपती हैं संसार . . .
कीचड़ से सने पैर उनके
औ' नयी पौध को रोपते हाथ
जो जीवन देते मुरझाये जगत को
वो क़लम पकड़ आज
प्रतिकार कर रहे सत्ताओं का
जो अपने गर्व, मद, मोह तले
रौंदते रहे उनकी विवशता को!
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