ख़बरदार
डॉ. ममता पंतवो साज़िशें करते रहे
हम बेख़ौफ़ बढ़ते रहे
उन्हें ज़िद थी हमें गिराने की
हम गिरकर भी प्रतिमान गढ़ते रहे
क्या हम इतने अहं हैं उनके लिए
या फिर हमसे वो ख़ौफ़ज़दा हैं
कि साज़िशों का अंत ही नहीं होता
हर रोज़ एक नयी साज़िश है
हर रोज़ नया बखेड़ा है
न जाने कब तक
ये दस्तूर चलेगा
अपनों की साज़िश का
बदस्तूर शिकार जारी है
एक के बाद एक ख़ंजर
झेले हैं सीने में अपने
क्या इस दर्द से भी ज़्यादा
और कोई पीड़ा झेलनी है बाक़ी अभी
या फिर हमारी
क़ाबिलियत को मिटाकर ही
आप साँस लेंगे कभी
ऐसा कोई फ़्रस्ट्रेशन तो नहीं
जो निकाला जाता है हम पर . . .
ध्यान रहे इतना मगर
हम वो सुषुप्त ज्वालामुखी हैं
जो अपने गर्भ में अनंत काल तक
लावे को समाहित करते चलते हैं
पर जब फटते हैं तो
विनाश के सिवाय कुछ नहीं बचता!!
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