दिवास्वप्न
डॉ. ममता पंतये कैसा खेला जीवन का
पता ही नहीं चलता
कि हम खेल रहे हैं इससे या फिर
कर रहा है जीवन आँखमिचौली!
दिवास्वप्नों से भरा
वह टूटा टुकड़ा मन का
टूटकर-बिखरकर
बहुत दर्द देता है
प्रेमिल स्मृतियों के रंग
रँगती उदास तूलिका
भीगते जज़्बात
जिन्हें था भीगना ही
नयनों में उभर न जायें कभी
समेटा है अंतस्-फलक पर!
इंतज़ार की निशा
गहन अमावस से ज़्यादा
बहुत दर्द दे गया है
दिवास्वप्न का टूटना
हाँ ये भी सच है कि
स्वप्न पूरे होते हैं कहाँ
दोष वक़्त का था या फिर
क़िस्मत का
कहना मुश्किल है ज़रा
हमसे तो वक़्त ने
हर मोड़ पर ही दग़ा किया!
स्वप्न तो स्वप्न ही हैं
खुली आँखों से देखें या फिर
बंद आँखों से
अंतस् से निकली है दुआ
वक़्त उनसे दग़ा न करे
जो हैं बीड़ा उठाये
स्वप्न पूरे करने का
न टूटें किसी के दिवास्वप्न!
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