रिश्ते बुलबुले से!
डॉ. ममता पंतबात
पीले पत्ते की
मर्म बड़ा उसकी बात का
सुनिए ज़रा आप भी
कहता पीला पड़ता पत्ता
शाखा से अपनी
अब जब मन बना ही लिया है
ख़ुद से अलग करने का तो
करना धीरे-धीरे
चुपके-चुपके
बिना आवाज़ किए
कहीं लोगों का
एतबार न उठ जाय रिश्तों से!
अलग करोगे
मुझे जहाँ से
फूटेंगे नव-किसलय वहाँ से
सजेंगी शाखा तुम्हारी
नये-नये झुरमुटों से
होगा डेरा कोयल का
बसेरा बुलबुल का
चहचहाते जीवन का
छाँव तले तेरी
बैठेंगे बटोही
झुरमुटों से तुम्हारी
लिपटेंगी लतिकाएँ
तुम रहोगे
दुनिया में अपनी अलमस्त
और मैं
दला जाऊँगा
किसी के पैरों तले
या फिर झुलसती गर्मी में
खो दूँगा अस्तित्व अपना
गर बच गया तो
ओस की बूँदों औ' बरसात के पानी से
धीरे-धीरे सड़ता जाता
बन जाऊँगा खाद
जड़ों को तुम्हारी ही
दूँगा बल
नहीं रखूँगा याद
क्या किया तुमने मेरे साथ!
जब हो रहा था मैं वृद्ध
पड़ रहा था मैं पीला
नाकारा समझ मुझे
कर दिया ख़ुद से विलग!
फिर भी मैं करूँगा
तुम्हें ही पोषित
या फिर
हो जाऊँगा शिकार
आँधी-तूफ़ान का
उड़ा ले जायेगी
जो मुझे मेरे अस्तित्व से दूर
ऐसी ही नियति है मेरी . . .
1 टिप्पणियाँ
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बेहतरीन और मनमोहक..
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