संघर्ष एवं संवेदना की जीवंत प्रस्तुति

01-12-2021

संघर्ष एवं संवेदना की जीवंत प्रस्तुति

डॉ. ममता पंत (अंक: 194, दिसंबर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

पुस्तक:  सीट नं. 49
लेखक: आरती स्मित   
प्रकाशक: शिल्पायन पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली
संस्करण: 2020
ISBN:  978-81-940025-3-6
पृष्ठ संख्या: 112
मूल्य: 200.00 रु.

बौद्धिक संपदा की धनी, उत्कृष्ट कवयित्री, समीक्षक एवं आलोचक तथा संवेदनशील कथाकार के रूप में हिंदी साहित्य जगत में विख्यात डॉ. आरती स्मित जब समसामयिक विषयों पर अपनी लेखनी चलाती हैं तो पाठक वर्ग को उनकी बौद्धिकता एवं संवेदनशीलता का क़ायल होना पड़ता है। एक लेखिका में इतने सारे लेखकीय गुण; हमें एकबारगी सोचने को विवश कर देते हैं।

प्रस्तुत कहानी संग्रह ‘सीट नं. 49’ को स्त्रीगत जीवन मूल्यों एवं अधिकारों की सजगता का जीवंत चिट्ठा कहा जाय तो अतिशयोक्ति न होगी। यह तेरह कहानियों का संग्रह है जिसमें स्त्री जाति के प्रति होने वाले असमान व्यवहार, संघर्ष एवं समाज में उनकी दोयम दर्जे की स्थिति को उद्घाटित करती कहानियों में ‘ऋण-मुक्ति’, ’विलगाव’, ’विडंबना’, ‘पुन्नु की चिट्ठी’, ‘मोम की गुड़िया’, ‘दस्तक’, ‘वो सात दिन’, ‘गुलाबी सपने’ एवं ‘दहशत’ प्रमुख हैं। इन कहानियों में नारी के त्रासद जीवन, परम्परागत रूढ़ियों एवं बंधनों से जकड़ी व उनसे मुक्ति हेतु छटपटाती नारी की बेचैनी स्पष्टतः परिलक्षित है। ‘ऋणमुक्ति’ कहानी की निशा जब बार-बार ससुराल वालों द्वारा प्रताड़ित होती है तो उसकी मुक्ति की छटपटाहट एवं अपने जीवन मूल्यों (नारीगत) के प्रति सजगता निम्नलिखित संवाद के आधार पर देखी जा सकती है—

"बापू जी आप माँ को गूँगी बना सकते हैं, मुझे नहीं... माँ! ईंट गारे की दीवारों से मगज़मारी करते-करते तुम्हारी संवेदना भी सीमेंट हो गई है। मगर याद रखो, मेरी साँसों पर पहरे बिठाकर कोई सुखी ना होगा... अगर ससुराल वालों से आजीवन प्रताड़ित होना संस्कार है तो मैं इस संस्कार का दाह संस्कार करती हूँ।"

आज भी तथाकथित सभ्य-समाज में स्त्री के किसी भी रूप को चाहे वह शिशु रूप में हो या फिर 8-9 वर्ष की बालिका ही क्यों न हो; कुछ विकृत मानसिकता वाले पुरुषों द्वारा अपनी घृणित वासना की पूर्ति का साधन मात्र समझा जाता है। क्षणिक वासना की पूर्ति हेतु तथाकथित सभ्य कहे जाने वाले पुरुषों की इस घृणित कुत्सित एवं विकृत पाशविक मनोवृत्ति को उद्घाटित करती कहानी ‘दहशत’ में लेखिका ने एक नौ वर्षीय बालिका का चित्रण किया है जिसके मुँहबोले नाना डॉ. रमेश (एसोसिएट प्रोफसर से सेवानिवृत्त) जो 66 वर्षीय हैं; उसे घर में अकेली पाकर उसके साथ दुराचार करते हैं। उससे भी बड़ी यातनामयी स्थिति उस बच्ची के लिए तब होती है जब वे ये नहीं जान पाती है कि उसके नाना उसके साथ ऐसा व्यवहार क्यों कर रहे हैं! वे बच्ची तो अपने साथ हो रहे ऐसे घृणित एवं दुर्दांत व्यवहार से अनजान — "फ्रिज से पानी की बोतल निकालती हुई शिप्रा पीछे साया-सा महसूस कर अचानक हड़बड़ा गई। बोतल हाथ से छूट गया। पीछे उससे सटकर डॉ. रमेश खड़े थे। वो झुके ओर शिप्रा को गोद में उठा लिया। गाल, आँख, नाक, माथा... होंठ पर चुंबन की लगातार बारिश से हतप्रभ, घबड़ाई सी शिप्रा जितना छटपटाती, पकड़ उतनी ही मजबूत हो जाती। उन्होंने पहले भी उसे दुलारा था, मगर इस तरह नहीं, सोफे पर लिटाई गई वह चीखना चाहती थी, मम्मी को बुलाना चाहती थी पर जगह से हिलडुल न सकी। नानाजी की उँगलियाँ सांपिन-सी उसके बदन पर यहाँ-वहाँ रेंगती रहीं.... होंठ जगह-जगह निशान छोड़ते रहे। हज़ारों चींटियों के एक साथ शरीर पर छोड़े जाने की पीड़ा से गुज़रती वह कब बेहोश हो गई पता नहीं... चेतना लौटी तो फ्रॉक शरीर से अलग था, दर्द बदन में घाव बनकर टीस रहा था...वह सोचने की कोशिश करने लगी, नाना जी ने आज किस क्यों किया? गंदे तरीक़े से! वह आगे कुछ याद करने की कोशिश करती पर नाज़ुक दिमाग़ दबाव सहने को तैयार न हुआ... वह फिर अचेत होकर गिर पड़ी।"

शिप्रा की ये कहानी लाखों-करोड़ों बालिकाओं की वह पीड़ा है जो तथाकथित सभ्य एवं संभ्रांत कहे जाने वाले पुरुषों की घृणित एवं कुत्सित वासना का शिकार होकर नितांत दुर्दांत जीवन जीने को विवश हैं। अपने साथ हुए दुर्व्यवहार से अनजान शिप्रा की पीड़ा जब उसके माता-पिता नहीं समझ पाते हैं तो बचपन में भयाक्रांत यौन-शोषण का दंश झेली उस बच्ची की पीड़ा सोलहवें वर्ष में कहानी का स्रोता बनकर फूट पड़ती है।

अपने ही परिवार में माता-पिता द्वारा बच्चों की जो उपेक्षा की जाती है और उसका बालमन पर पड़ने वाले प्रभाव का अंकन करती कहानियों में ‘कागज का टुकड़ा’, ‘वो सात दिन’ एवं ‘दहशत’ प्रमुख हैं। इन कहानियों के माध्यम से लेखिका ने बालमन के संवेदनात्मक पक्ष को उघाड़ा ही नहीं है अपितु परोक्षतः यह संदेश भी दिया है कि अपने यांत्रिक जीवन से समय निकालकर अपने बच्चों को थोड़ा सा ही सही पर समय अवश्य दें; अन्यथा ये बाल-पौधे जल्द ही इस संसार में अपनी जगह बनाने से पहले कुम्हला जाएँगे। ‘कागज का टुकड़ा’ कहानी को अगर मैं बालमन की उपेक्षा एवं उससे उपजे संत्रास का जीवंत चित्रण कहूँ तो अतिशयोक्ति न होगी। क्योंकि लेखिका ने इस कहानी में अंश के माध्यम से यांत्रिक युग में विलुप्त हो रही बच्चों की ख़ुशियों पर व्यापक दृष्टिपात किया है। ‘कागज का टुकड़ा’ आठ साल के अंश की उपेक्षा से उपजा एक उद्वेलन है; दूसरी संतान के आने के बाद माता-पिता द्वारा अनजाने में जो उपेक्षा होती है और उसका असर उसके मन-मस्तिष्क को इस प्रकार उद्वेलित करता है कि वह अनायास ही अकेलेपन का शिकार हो जाता — "बुुआ जी! मम्मी मुझे प्यार नहीं करती सिर्फ अंकू को करती है।... उसके चेहरे पर कभी स्वाभाविक हँसी नहीं दिखी मुझे। हमेशा गुमसुम खोया-खोया सा रहता।" जब उसके अकेलेपन को उसकी बुआ (उन्हीं के मकान पर रहती है किराये पर) का सहारा मिलता है तो वह भी हँसना सीख जाता है। लेकिन ट्रांसफर आने के बाद जब उसकी बुआ जी उसे छोड़ दूसरे शहर को जाने वाली होती है तो अंशु के जीवन में फिर से ख़ालीपन पसर जाता है और वह स्वयं अपने माता-पिता से ज़िद करके अपना एडमिशन बोर्डिंग स्कूल में करवा देता है; "गौतम भैया और भाभी उसकी मनःस्थिति से बिल्कुल अनजान थे। उन्हें तो इतना पता था कि अंशु को मेरे पास रहना अच्छा लगता है। लेकिन क्यों? इस पर उन्होंने कभी ग़ौर नहीं किया.... ज़रूरत नहीं समझी। यह भी उनकी कल्पना से बाहर की बात थी कि एक किराएदार से अलगाव, उस मासूम की ज़िंदगी में ख़ालीपन ला देगा... बहुत खोजने के बाद भी जब नहीं पा सकी तो दुखी मन से गाड़ी की तरफ बड़ी। दरवाज़ा खोलते ही सीट पर छोटा सा पैकेट नज़र आया। पैकेट खोला तो आपे में ना रह सकीं, आँखें बरबस बरसने लगीं। उस पैकेट में अंशु की वही गेंद थी जिससे वह मेरे साथ खेला करता था। एक छोटा-सा काग़ज़ का टुकड़ा भी था जिस पर लिखा था, अब मुझे इसकी ज़रूरत नहीं... मैं कभी किसी के साथ नहीं खेलूँगा।"

"मैं कभी किसी के साथ नहीं खेलूँगा" वाक्य अंशु के बालमन पर पड़े नकारात्मक प्रभाव को स्पष्टतः परिलक्षित करता है। अंशु, शिप्रा या फिर ‘वो सात दिन’ की बाल चरित्र आलिया जो जाने-अनजाने अपने माता-पिता या परिवार की उपेक्षा का शिकार इसलिए होते हैं क्योंकि आज के यांत्रिक जीवन में माता-पिता भी यंत्र हो चुके हैं जिनके पास अपने बच्चों के लिए समय ही नहीं है; जिस कारण उनके बच्चे ख़ुद को अनाथ सा महसूस कर अपना बचपन जीने को नहीं बल्कि झेलने को विवश हैं; इन परिस्थितियों का जीवंत एवं यथार्थ चित्रण लेखिका ने अपनी कहानियों के माध्यम से किया है।

बेरोज़गारी भ्रष्टाचार, अपराधवृत्ति एवं न्याय-व्यवस्था का कच्चा चिट्ठा उघाड़ती कहानियों में ‘विलगाव’, ‘फड़फड़ाते पन्ने’ एवं ‘धरोहर’ मुख्य हैं। हाईस्कूल से स्नात्कोत्तर पर्यन्त प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण, पीएच-डी., एम.फिल. धारक शिक्षित बेरोज़गारों के दंश एवं अनवरत् संघर्ष की व्यथा को लेखिका ने जहाँ ‘विलगाव’ कहानी में बड़ी तटस्थता से रेखांकित किया है; वहीं कॉलेजों में व्याप्त राजनीति की ओर संकेत भी किया है, "मनोज नौकरी के आवेदन भर-भर कर परेशान तो था ही, आज कॉलेज के ऑफ़िस क्लर्क से तू-तू मैं-मैं हो गई, तो बुरी तरह खीझ उठा। स्मिता उसका अवसाद समझ रही थी, मगर करती भी क्या? वह भी तो कॉलेज की राजनीति के कारण अब तक ख़ाक छान रही थी।" राजनीति की इस व्याप्ति को मानव जीवन और समाज में अनेक रूपों में देखा जा सकता है।

समाज में फैली अपराधवृत्ति और न्याय-व्यवस्था भी आरती स्मित की नज़रों से छिप नहीं पाई है। षडयंत्रों के हत्थे चढ़ते या फिर परिथितियों के मारे, बेबस-लाचार, जो निरपराध होते हुए भी दंड भुगतने को विवश हैं; उनकी वास्तविकता का यथार्थ अंकन लेखिका ने सरोज कुमार (समाजसेविका) के माध्यम से ‘फड़फड़ाते पन्ने’ नामक कहानी में किया है। ‘धरोहर’ कहानी में लेखिका ने समाज के असामाजिक तत्वों और क़ानून एवं न्याय व्यवस्था के यथार्थ का उजागर चित्रकार हिमांशु मुखर्जी के माध्यम से करवाया है जो अपने साथ हुए हत्या के षडयंत्र एवं हत्यारों के डर से अपनी असल पहचान छिपाने को विवश हैः "वो रोड एक्सीडेंट हुआ नहीं था, कराया गया था जिसमें मेरा वाइफ और मेरा बेटा मुझे छोड़ गया, मेरा मौत लिखा नहीं था, इसलिए बच गया... आपने भी न्यूज में पढ़ा या सुना होगा कि "हिमांशु मुखर्जी का लाश लापता है।"... किसको बताता? पोलिस को या न्यूज चैनल वालों को? जो सवाल दाग-दाग कर मेरे और मेरे जख्मों को खरोंचते रहते और फिर मुझे मारने की साजिश रचा जाता... आप सब शायद पूरा न्यूज नहीं सुना। मेरा पेंटिंग भी गायब कर दिया गया घौर से। इतना ही नहीं मेरा स्टूडियो में आग भी लगा दिया गया। क्या किया पोलिस? कुच्छ नहीं! करता कैसे ऊपर से माल जो खाया केस दबाने के लिए। मैं गुमनाम रहा इसलिए इतना सब कुछ जान पाया और जिसने करवाया वो भी...।"

इसके अतिरिक्त लेखिका की ‘ऋण मुक्ति’, ‘दस्तक’ एवं ‘सीट नं. 49’ कहानियों में वृद्धावस्था का दंश झेलते अपनों से उपेक्षित वृद्धों का वृद्धायु प्रवास, वृद्ध जीवन की मानसिक उहा-पोह का जीवंत चित्रण भी देखने को मिलता है। कहने का तात्पर्य है कि लेखिका की दृष्टि से कोई भी प्रसंग छूट नहीं पाया है।

‘गुलाबी सपने’ कहानी ग़रीब बस्ती में जन्मी उमा की है जो अन्य बच्चों की तरह पढ़ना चाहती है पर ग़रीबी के कारण पढ़ नहीं पाती। पढ़ाई के प्रति उसकी उत्कट इच्छा को देखते हुए एक बड़े स्कूल के मौलिक जो ग़रीबी व होनहार बच्चों को मुफ़्त में पढ़ाते हैं; उसकी पढ़ाई की ज़िम्मेदारी स्वयं ले लेते हैं। अपने कलेवर में यह कहानी भले ही छोटा आकार लिए हो लेकिन लेखिका द्वारा इस कहानी के माध्यम से जो संदेश दिया गया है वह अत्यधिक गंभीर और प्रासंगिक है। मेरा यह मानना है कि ‘बालिका पढ़ाओ बालिका बढ़ाओ’ योजना के अन्तर्गत प्रेरक कथा के रूप में इस कहानी को प्राथमिक हिंदी पाठ्यक्रम में लगाया जा सकता है।

भाषा एवं शिल्प-विधान की ओर दृष्टिपात् करें तो लेखिका ने प्रसंगानुकूल भाषा का सफलतम प्रयोग किया है। प्रकृति-चित्रण में जहाँ लेखिका की भाषा-शैली चित्रात्मक एवं संगीतात्मक होती है वहीं सामाजिक विद्रूपताओं के चित्रण में संकेतात्मक एवं अत्यंत मार्मिक। फ़्लैशबैक पर आधारित इन कहानियों का कलेवर अपनी वस्तुगत एवं शैलीगत आधार पर अत्यंत मौलिकता लिए हुए है। पात्र स्वयं ही कथानक को गति देते हैं एवं भाषाई संवाद की सृष्टि करते हैं। एक उदाहरण दृष्टव्य है—

"इधर तनि छांह में आ जाओ, बहुते धूप है।"

"हाँ! तनि पानी मिलेगा?"

"अभी लाते हैं, ऐसे इ चिट्ठी कहाँ से आया है बेटा?"

"नोएडा से"

"नोएडा से! के भेजा है?" 

"पुनीता गुप्ता का नाम लिक्खा है।"

नाम सुनते ही उसके पैर थरथराने लगे, सिर घूमने लगा। धीरे-धीरे चौकी पर बैठ गई "पुन्नु का चिट्ठी! एतना बरस बाद! बूढ़ा माय-बाप का याद आखिर आइये गया।" आरती स्मित के इस कहानी संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता बहुभाषिकता है। विविध क्षेत्रीय एवं आंचलिक भाषा/बोली का जो समन्वय इनकी कहानियों में मिलता है वह अपने आप में एक बहुत बड़ी कला है। यदा-कदा मुहावरों एवं लोकोक्तियों का प्रयोग भी कुशलतापूर्वक किया गया है जिस कारण कथानक में सरसता एवं जीवंतता का समावेश हुआ है।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि डॉ. आरती स्मित सहजता एवं सरलता की कथाकार हैं। यथार्थ की मौलिक प्रस्तुति ही उनकी निजता एवं विशेषता है। जो अपने आस-पास देखा भोगा उसी को साहित्यिक तंतुओं से बुनने की अद्भुत क्षमता उन्हें एक विशिष्ट कहानीकारों की पंक्ति में खड़ा करती है उनसे अपना तादात्म्य स्थापित कर उन्हें आत्मसात् कर लेती हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो ये कहानियाँ न होकर लेखिका का अपना संघर्ष है, अपनी संवेदनाएँ हैं जो कहानियों के रूप में प्रस्फुटित होकर पाठक-वर्ग के सम्मुख उपस्थित हुई हैं।

प्रस्तुत कहानी संग्रह ‘सीट नं. 49’ में वस्तु एवं शिल्प या फिर कलेवर की दृष्टि से कोई भी संदर्भ ऐसे नहीं हैं जो नीरसता पैदा करते हों बल्कि मेरा तो मानना यह है कि इस संग्रह की सभी कहानियाँ पाठक को शुरू से लेकर अंत तक बाँधे रखती हैं। एक ही छोटी सी कमी जो मुझे दृष्टिगत हुई वह है पुस्तक में फोंट का आकार छोटा होना। जिसकी नज़र कमज़ोर है उनके लिए कहानियों को पढ़कर उनका आस्वादन ले पाना थोड़ा कठिन होगा। अतः ये मेरी व्यक्तिगत राय है कि जब इस कहानी संग्रह का दूसरा संस्करण निकाला जाय तो फोंट के आकार का विशेष ध्यान रखा जाय। इस कहानी संग्रह हेतु मैं लेखिका को साधुवाद देती हूँ।

डॉ. ममता पन्त
असिस्टेंट प्रोफेसर
हिंदी विभाग
एस.एस.जे, परिसर, अल्मोड़ा
कुमाऊ विश्वविद्यालय नैनीताल
(सोबन सिंह जीना विश्वविद्यालय, अल्मोड़ा)
मेल: mamtapanth.panth@gmail.com

2 टिप्पणियाँ

  • बेहद सधे शब्दों में सार्थक समीक्षा।आप दोनों को शुभकामनाएँ और बधाइयाँ!

  • 21 Nov, 2021 07:09 PM

    डॉ आरती स्मित द्वारा लिखित सीट नं.49 कहानी संग्रह का डॉ ममता पंत द्वारा सटीक ,सुंदर एवं संग्रह को पढ़ने की उत्सुकता जगाता विश्लेषण। लेखिका एवं समीक्षक दोनों को हार्दिक बधाई।

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