अधूरी औरतें!
डॉ. ममता पंतकाम को जाती औरतें!
अधूरी रातों के साथ
उठ जाती हैं तड़के विहान
औ' जुट जाती हैं काम पर
मशीन की भाँति!
ऑफ़िस जाने की जल्दबाज़ी में
नहीं कर पाती कोई काम ढंग से पूरा
छोड़ जाती हैं घर पर
अधूरा खाना
अधधुले बर्तन
अधूरे ख़्वाब
अधूरी नींद
और भी न जाने क्या-क्या . . .
नहीं पड़ती जिन पर
किसी की भी नज़र
ये ख़ुद भी तो रहती हैं
जाने क्यों उनसे बेख़बर!
चक्की की तरह
पिसती हैं दिन-रात
अपने दर्द से बेख़बर
एक मुखौटा ओढ़े
उस अस्तित्व की तलाश में
जो है ही नहीं उसका!
है तो बस
एक ख़ालीपन
अधूरापन . . .
ये काम को जाती औरतें
अधूरी ही क्यों रह जाती हैं?
3 टिप्पणियाँ
-
सच्चाई यही है, काम काजी महिलाओं की, उम्दा लिखा है आपने
-
बहुत सटीक कविता
-
बहुत ही सार्थक और सटिक शब्द संयोजन
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