फड़फड़ाता मौन!
डॉ. ममता पंत
मौन का आगमन
ऐसे ही न था
जीवन के थपेड़ों ने
बना दिया था समझदार
इतना कि चुप रहना सीख लिया
औ' कब मौन ने आकर जकड़ा
पता ही न चला
वैसे ही जैसे
जकड़ा था प्रेम जाल ने
जिससे आज तक
नहीं निकल पाए
खिल उठा था चेहरा
जिरेनियम सा
ख़्वाबों के पर लगा
उड़ने लगी आसमान में . . .
आसमान!
सँकरा ही रहा
स्त्रियों के लिए
नहीं मिल पाई जगह कभी
उनके परों को फ़ैलाने की
स्वप्न का सब्ज़-बाग़
होता रहा धराशाई
अधकटे पंखों वाली बुलबुल सा!
फड़फड़ाता रहा मौन
अंदर ही अंदर . . .
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