बंदिनी!
डॉ. ममता पंत
जब तुम्हारा
करती रही इंतज़ार
तब तुमने
इंतज़ार ही करवाया
नहीं ली सुध कभी
ना ही रख पाए कभी ख़्याल
उन बातों का
लम्हों का
चाहतों का
जो सिर्फ़ तुम्हारे लिए थीं
अब जब
इन सबसे ऊपर है
देकर तिलांजलि
जीना चाहती हूँ ख़ुद के लिए
अपनी इच्छाओं
महत्वाकांक्षाओं
और प्रतिस्पर्धा के लिए भी
जिन्हें छोड़ दिया था बहुत पहले तुम्हारे लिए!
अब तुम्हें याद हो आई है मेरी
अनायास ही
मेरे न होने पर
हो उठते हो बेचैन
रहना चाहते हो
साथ मेरे
इंतज़ार भी तो करते हो ना मेरा!
लेकिन
अब इन सबके
कोई माइने नहीं
उठ चुकी हूँ इन सबसे ऊपर
तोड़ चुकी हूँ
मोह के धागे
जो तुम्हारे लिए
सिर्फ़ बंधन थे
औ' मैं तुम्हारी बंदिनी
जिसे अब तुम बाँध नहीं सकते
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सहज शब्दों को पिरोते हुए एक अबला नहीं अपितु एक सबला के मनोबल को व्यक्त करती उत्तम कविता।
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