पथरीला वुजूद
डॉ. ममता पंतसाँचा
जाति
धर्म
रीति
संस्कार
औ' मर्यादाओं का
जिसमें सीमित कर दी गई पीढ़ियाँ
क़त्ल कर दिए गए वे
जो ना हुए साँचे में फ़िट
अमिट रेखाएँ
जाति धर्म की
हो जाना था जिन्हें
असत् अब तक
बढ़ रही हैं निरंतर
अमर बेल सदृश
लपेट रही हैं
अतुंद, असहाय को
अपनी निरंकुश लताओं से
अन्याय विजयी हो
करता है अट्टाहास
औ' न्याय!
घुटते-घुटते
तोड़ देता है दम
संकट अस्तित्व का
औ' तमाम मायूसियाँ
घेरती हैं
घनघोर घटा सदृश
डराती हैं चमचमाकर
पर जो बुझा नहीं
एक दिया आस का
बाक़ी है अब तक
उसकी किरण
झिलमिलाते हुए
अपने वुजूद को
रखेगी ज़िन्दा
हाँ; शेष है अभी मानवीयता
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कहानी
- पुस्तक समीक्षा
- कविता
-
- अंतस् का रावण!
- अधूरी औरतें!
- अनहद नाद
- अराध देव रुष्ट हो गये!
- करती हूँ रिजैक्ट तुम्हें . . .
- कैसा होगा यह साल
- खोखले दावे
- घुटन
- ताकि ख़त्म हो सके . . .
- दंश जाति-भेद का
- दिवास्वप्न
- दुत्कार
- दो क़दम भागीदारी के
- नव सृष्टि आधार
- नियंत्रण नियति पर
- पथरीला वुजूद
- प्रेम, हक़ और प्रपंचनाएँ!
- फड़फड़ाता मौन!
- बंदिनी!
- रिश्ते बुलबुले से!
- विडम्बना कैसी ये!
- सँकरा आसमान
- संघर्ष
- सहारा
- सिंदूरी प्रेम
- सीरत उसकी
- हिंदी दिवस
- ख़बरदार
- विडियो
-
- ऑडियो
-