प्रेम, हक़ और प्रपंचनाएँ!
डॉ. ममता पंत
बेशक
हक़ तो जताया तुमने
रिश्तों में
पर निभाया नहीं
जैसे निभाते हैं
फूल काँटों से
नदी रोड़े-रोखड़ों से
पर्वत अपनी शृंखलाओं से
वसुंधरा गर्भीय हलचलों से . . .
उसी तरह
वे भी
निभातीं रहीं
रिश्तों को
ताउम्र सँभालती रहीं
तत्परता से
वंश, परंपरा, संस्कृति, धर्म
और भी न जाने क्या-क्या . . .
बदले में चाहा तो
सिर्फ़ प्यार और सम्मान
वह भी नहीं मिला
घर की चारदीवारी में क़ैद
निभातीं रहीं स्त्री धर्म
पर तुम बाहर
अपना अलग संसार बसाए
विश्वास और ईमानदारी का
चोला ओड़े
छलते रहे सदा
आज जब पाखंड से तुम्हारे
हटा है पर्दा
तो तुम देने लगे
रिश्तों की दुहाई
हक़ जताने लगे . . .
कौन सा रिश्ता
जो तुम्हारे लिए मात्र एक बँधन था
पर तुम भूल गए
कि वे
अपना घर-आँगन छोड़
लिपट आती हैं
प्रेम के धागे से
प्रेम . . .
जो तुम्हारे लिए
सिर्फ़ बँधन है
जिसे तुम बाँध सको
अपने पाखंड से
छलावे से
प्रपंचनाओं से!
रोड़े-रोखड़=छोटे बड़े पत्थर
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