शजर अपनी ज़िंदगी की भीख हर दिन माँगते हैं
अंजना वर्माशजर अपनी ज़िंदगी की भीख हर दिन माँगते हैं
रोज कटके और मरके ज़िंदगी ही बाँटते हैं
कुर्सियाँ हों, मेज़ हों, या और कोई चीज़ घर की
ये दधीचि दूसरों के ही लिए तन त्यागते हैं
जंगलों को काटते हो गाँव-घर जो हैं किसीके
दूसरा कोई ठिकाना प्राणी-खग क्या जानते हैं ?
देख लो नज़रें उठाकर पेड़ से जीवन की धड़कन
काटने वाले कुल्हाड़ी ज़िंदगी पर मारते हैं
इस इलाक़े में बचे हैं लहलहाते पेड़ थोड़े
है प्रलय की नाव में सृष्टि -शिशु अब पालते हैं
1 टिप्पणियाँ
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बहुत संवेदनशील ,!!!