फिर कभी बताऊँगा

01-05-2020

फिर कभी बताऊँगा

अंजना वर्मा (अंक: 155, मई प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

फिर कभी बताऊँगा सुनने के लिए क्लिक करें

 

"आंटी जी! पेपर.......पेपर हैं?" रद्दी वाले ने पुकार कर कहा।

"नहीं भाई! पेपर नहीं है," नीहारिका बोली। 

इस समय वह रसोई में व्यस्त थी। रसोई कि खिड़की से सड़क दिखायी देती थी जहाँ से वह आवाज़ देकर नीहारिका से पूछ लेता था। परन्तु अभी वह खीझ गई थी। फिर वह ओठों से बुदबुदाने लगी, "रोज़ चला आता है तंग करने। पेपर-पेपर......।"

"कौन है नीहारिका?" बैठक से नीहारिका के पति संजीत ने अख़बार से अपनी नज़रें हटाकर नीहारिका से पूछा। वह चाय का कप सामने रखे हुए अख़बार पढ़ रहा था। उसकी दिनचर्या का यह एक अहम समय हुआ करता था जब वह सुबह की ताज़ा ख़बरों को चाय की चुस्कियों के साथ अपने दिमाग़ में भरा करता था। वैसे उसका थोड़ा ध्यान इस पर भी रहता था कि घर में क्या हो रहा है? कौन आया, कौन गया? इसीलिए पूछ बैठा।

नीहारिका ने जवाब दिया, "रद्दी वाला है।"

"तो तुमने उसे बुला क्यों नहीं लिया? ख़ूब सारे अख़बार जमा हो गये हैं। अब उन्हें हटा देना ज़रूरी है।"

"बुलाऊँगी किसी ऐसे दिन जिस दिन मुझे फ़ुर्सत होगी। समय-असमय चले आते हैं सब।" 

"हाँ बुला लेना। पर देखना इन्हें घर में अंदर नहीं आने देना। ये घर का सामान भी उठा लेते हैं।" 

"हाँ बाबा! जानती हूँ।” सबेरे का समय उसके लिए सबसे अधिक व्यस्तता से भरा होता था। कितने सारे काम निपटाने पड़ते थे उसे-ख़ासकर रसोई में। और जब वह लंच के कई डब्बे पैक करती हुई थकती तो यही सोचती कि स्त्री के अन्नपूर्णा रूप की क़द्र करनेवाला आज की दुनिया में कोई है क्या? थोड़े-से भी पैसे औरत कमाकर लाये तो उसकी पूछ होती है, परंतु रसोई में औरत अपना सारा जीवन लगा देती है तो भी न कोई देखने वाला होता न समझने वाला।

उस दिन वह फिर हाज़िर था। रोज़ की तरह आवाज़ लगता हुआ- "आंटीजी! पेपर.....पेपर!”

वक़्त वही सुबह का। रसोई में व्यस्त, हाथ में कलछी थामे कढ़ाई में सब्ज़ी को उलटती-पलटती नीहारिका फिर खीझ उठी। मन-ही-मन कहने लगी कि इन लोगों को और कोई वक़्त नहीं मिलता। अब सारे काम छोड़कर कौन इन्हें रद्दी पेपर निकालकर दे! फिर दस-पन्द्रह मिनट तक इनके साथ अपना समय बर्बाद करे! पर यह ज़रूरी भी था। घर में कब तक कबाड़ जमा किये रहती? एक बात उसके दिमाग़ में आयी कि वह उसे बाद में फ़ुर्सत के समय बुला ले।

रद्दी वाला एक जाना-पहचाना अनाम चेहरा था जिसको इधर कुछ समय से वह पुराने अख़बार बेचने लगी थी। किशोरावस्था पार कर युवावस्था की दहलीज़ पर क़दम रखता एक कुपोषित, बिखरे भूरे बालों वाला चेहरा जो पहली नज़र में ग़रीब बस्ती में रहनेवाले अनगिनत गन्दे चेहरों में से एक लगता था जिसे देखने के बाद याददाश्त की अलमारी उसे सहेजने से इनकार कर देती थी 

नीहारिका भी तो इधर ही आकर उसे पहचानने लगी थी कई बार उसे अख़बार बेचने के बाद! किस तरह अख़बारों का पुलिंदा उसके हवाले करे और उससे पैसे लेकर अपने किवाड़ बंदकर ले। बस इतना-सा ही मतलब उसके साथ था। वह कहाँ रहता है? क्या नाम है? क्या धर्म है? उसके परिवार में कौन-कौन है? वह क्यों पेपर बेच रहा है? इन सारे सवालों के उठने से पहले ही उसे आँखों से ओझल कर दिया जाता था। वो पेपर बाँधकर पैसा थमाकर निकला और इधर घर के कपाट बंद। दिमाग़ से भी उसे बाहर कर दिया गया।

"आंटीजी! पेपर.....।" और इस बार तो वह अड़ियल की तरह द्वार पर खड़ा था। आवाज़ देकर देख रहा था कि नीहारिका निकले। आखिर खिड़की से झाँककर उसने कहा, "तुम ग्यारह बजे के बाद आना।"

"ठीक......" कहता हुआ वह चला गया। और उस दिन वह नियत समय पर आ भी गया। नीहारिका ने जल्दी-जल्दी सारे पुराने अख़बार पत्रिकाएँ, रद्दी कापियाँ, डायरियाँ निकालकर उसके सामने पटक दीं। अपने सामने अख़बारों, पत्रिकाओं वग़ैरह का अंबार देखते ही उसके हाथ फ़ुर्ती से चलने लगे और वह जल्दी-जल्दी अख़बार और काग़ज़ अलग-अलग छाँटकर क़रीने से थाक लगाकर रखने लगा। यही वह काम था जिससे नीहारिका बचना चाहती थी। लेकिन उसके मन में कोई था जो यही कहता था कि भले ही काम रद्दी ख़रीदने का ही हो। परंतु कितनी लगन के साथ वह अपना काम कर रहा है। यह विचार आते ही वह हर बार संयत हो जाती और रद्दी तौलवाने के लिए खड़ी रहती। पर दिल न लगता तो मोबाइल से किसी को काल करने लगती।

उस दिन भी वही हुआ। जब तक वह लड़का अख़बार वग़ैरह सँभालता रहा तब तक वह फोन पर व्यस्त रही। उसके कानों में जैसे ही पड़ा- "हो गया आंटीजी। ये देखिये पाँच किलो पेपर......" 

नीहारिका ने उसकी बात पूरी होने से पहले ही काट दिया। और बोली, "ठीक है..... ठीक है। अब बताओ मत कि कितना हुआ। जो तौला है तुमने वह सब-सब ठीक है। लाओ पैसे दो।"

पैसे देकर वह रद्दीवाला लड़का चला गया। नीहारिका अख़बार बेचकर बहुत हल्का महसूस कर रही थी। कितने दिनों से यह काम टाला जा रहा था। पर आज यह काम संपन्न हो गया। चलो, घर थोड़ा साफ़ तो हुआ। 

उसके लिए रोज़ की दिनचर्या वही थी। सुबह उठो। लंच बनाओ। बच्चों को स्कूल भेजो। पति ऑफिस जायें। तब तक वह मशीन की तरह हाथ चलाती रहती। इस बीच अपने मन का कुछ करना तो ऐसा ही था जैसे रात में सूरज को ढूँढ़ना।

दो दिनों बाद फिर वही पहचानी आवाज़ सुनायी पड़ी- "आंटीजी!”

इस बार नीहारिका पूरी तरह झुँझला उठी। इसे यही समय मिलता है आने का? और एक मेरा ही घर? मुहल्ले में कहीं और रद्दी-अख़बार लेने क्यों नहीं जाता है? जानता है कि इस समय मुझे फ़ुर्सत नहीं रहती है। पर इसे यह समझने से क्या मतलब? इसका अपना रोज़गार होना चाहिए। यह फिर आ धमका। दो दिनों में ही कहाँ से जमा हो जायेंगे अख़बार? उसने रसोई से झाँका। वह सिर पर टोकरी लिये खड़ा था...... प्रतीक्षारत।

वह तेज़ी से निकली और तल्ख़ स्वर में कहा, "क्या हर दिन तुम चले आते हो? अभी तो परसों पेपर लेकर गये हो? रोज़-रोज़ क्या पेपर निकलेंगे?"

"नहीं आंटी जी......." यह कहते हुए वह उसके सामने अपनी टोकरी लेकर खड़ा था। टोकरी उसने नीचे रखी और उसमें से कुछ काग़ज़ात निकालकर उसके आगे बढ़ाये। अचंभित होकर उसने कहा, "ये क्या है?"

"ये शायद आपकी ज़मीन के काग़ज़ हैं।"

"पर तुम्हें.......तुम्हें कैसे मिले?"

ज़मीन के काग़ज़- ये तीन शब्द सुनते ही वह हकलाने लगी और समझ गयी कि उसकी या संजीत की ग़लती से ऐसा हुआ है। क्या होता यदि यह काग़ज़ात लौटाने न आता? पल-भर में उसने कितना कुछ सोच लिया- अपनी लापरवाही, बेचारे इस ग़रीब की ईमानदारी और नेकनीयती! उसके काग़ज़ात लौटाने के लिए परेशानी उठाकर धूप में उसका आना और उसकी चीज़ उसे सौंपना। इन ग़रीबों के बारे में अमीरों के विचार कैसे होते हैं? जब उसने कुछ कहा तो उसका ध्यान टूटा।

उस रद्दी वाले ने कहा, "आंटीजी! उस दिन आपने उन पत्रिकाओं के साथ कई काग़ज़ भी तौल देने के लिए कहा था। मैंने तौल दिये सब, पर जब घर जाकर काग़ज़ और पेपर छाँट रहा था तो समझ गया कि ग़लती सेे आपने ज़मीन का काग़ज़ रद्दी में रख दिया था। इसीलिए मैंने इसे सँभालकर रख लिया और लेता आया। ज़्यादा दिनों तक मेरे पास रहता तो अख़बार में मिलकर गुम हो जाता। इसीलिए इसे जल्दी लेकर चला आया।"

नीहारिका अवाक् उसका मुँह देखती रही। कानों में पति के स्वर गूँजते रहे- "उन्हें अंदर मत आने देना.......।" नीहारिका ने उसके चेहरे की रेखाओं को पहचानने की कोशिश की कि वह ऐसे मामूली पर एक सच्चे व्यक्ति को याद रख सके- एक धूल-भरे चेहरे को, जिसे कोई पहचान नहीं पायेगा, समय की गर्द से बचा कर अपनी याददाश्त में सुरक्षित रख सके। 

नीहारिका ने उसे सौ का एक नोट देते हुए कहा- "यह रख लो।"

"नहीं जी, ठीक है।"

नीहारिका झेंप गई। सोच नहीं पायी कि उसकी इंसानियत का बदला कैसे चुकाये? उसे लगा कि सारे हिसाब-किताब कभी बराबर नहीं होते। किसी-न-किसी का हाथ तो ऊपर रहता ही है। जब जो होना है होगा हो जायेगा। हारकर उसने पूछा, "क्या नाम है तुम्हारा?"

"इमरान।"

"तुम्हारे घर में कौन-कौन है?"

"जी माँ हैं और एक बहन है।"

"कहाँ तक पढ़े हो?"

"दसवीं की परीक्षा नहीं दे सका।"

"क्यों?"

वह चुपचाप उसकी ओर देखता रह गया-उसने कितनी बातें किसी अनजानी भाषा में कह दीं। वह कुछ समझी, कुछ नहीं। उसके बारे में जानने की उत्कंठा ज़ोर मारने लगी। इतनी ग़रीबी में उसके भीतर एक सच्चा इंसान बचा हुआ है आख़िर कैसे?

"फिर कभी बताऊँगा।" एक सूखी मुस्कुराहट उसके सूखे ओठों पर फैल गई और उसके आँखों में बादल के कुछ टुकड़े तैर आये। यह कहकर वह चला गया।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

दोहे
गीत-नवगीत
कविता
किशोर साहित्य कविता
रचना समीक्षा
ग़ज़ल
कहानी
चिन्तन
लघुकथा
साहित्यिक आलेख
बाल साहित्य कविता
विडियो
ऑडियो