लौटते हैं श्रमिक
अंजना वर्माधमाके सुनके उड़े ज्यों
परिंदे भयभीत होकर
लौटते हैं श्रमिक अपने
गाँव फिर मजबूर होकर
गाज गिरती है समय की
वक़्त के मारे ये ही हैं
सहारे सबके, किसीकी
आँख के तारे नहीं हैं
ज़िंदगी यायावरी में
बीतती है चैन खोकर
गोद में बालक लिये
और हाथ में झोला उठाये
संगिनी चलती है संग में
थकन अपनी कह न पाए
वह भी बोझा लिये चलता
है बहुत मायूस होकर
कहाँ जाएँ? क्या करें? जब
जान साँसत में पड़ी है
रोग बाहर, भूख घर में
मौत घर-बाहर खड़ी है
निहत्थे होकर भी लड़ना
है उन्हें हँसकर या रोकर