रेत का तालाब
अंजना वर्मादिवाकर जी के दोनों बच्चे जब छोटे थे, प्रशांत दस साल और निशांत आठ साल के, तभी उनकी पत्नी माला गंभीर बीमारी से गुज़र गयीं। उन्होंने अपने दोनों बच्चों के चेहरे देखते हुए शादी नहीं की कि उनकी पत्नी बनकर घर में क़दम रखने वाली स्त्री इन दोनों बच्चों की माँ नहीं बन सकेगी और इन दोनों को अपनी माँ के विछोह के साथ-साथ दूसरी माँ के सौतेलेपन का दर्द भी झेलना पड़ेगा। यही सोच कर उन्होंने दूसरा विवाह नहीं किया और अपनी पूरी जवानी अकेले रहकर इन दो बच्चों की परवरिश करते हुए काट दी। सुबह उठकर बच्चों का लंच बनाते, उन्हें खिलाते और दोनों को स्कूटर पर बैठाकर स्कूल छोड़ते। तब अपने ऑफ़िस जाते। इस तरह वर्षों निकल गए। दिवाकर जी एक सरकारी ऑफ़िस में काम करते थे। किसी तरह समय निकालकर बच्चों को स्कूल से लेकर घर आते तो कभी-कभी, जब उन्हें फ़ुर्सत नहीं मिलती बच्चों को अकेले ही आना पड़ता। ऑफ़िस से लौटते तो फिर रात का खाना भी तैयार करते। इसी तरह दुर्वह परिस्थितियों से जूझते हुए उन्होंने दोनों बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलवायी जिसके कारण प्रशांत एवं निशांत अपने मुक़ाम तक पहुँच भी गये। उन्हें इसी बात की तसल्ली रहती थी कि उनके दोनों बच्चों को अच्छी-अच्छी जॉब भी मिल गई थीं। अच्छी लड़कियाँ देखकर उन्होंने उन दोनों की शादियाँ भी कर दीं और दोनों बच्चे दिल्ली में रहने लगे।
उनके दिल्ली में सेट्ल कर जाने के बाद दिवाकर जी अपने घर और अपने छोटे-से शहर में अपनी नौकरी के शेष दिन काटने के लिए अकेले बच गये। फिर भी निश्चिंत थे। बेटों को सेट्ल करके उनके दिल पर से एक बड़ी चिंता का बोझ हट गया था। लगता था कि उन्होंने दो बेटियों को विदा कर दिया था या किसी बड़े यज्ञ की पूर्णाहुति कर दी थी। 'जल्दी ही रिटायर होऊँगा तो दिल्ली जाकर अपने बच्चों के साथ रहूँगा' – हमेशा यही सोचा करते थे। दिल्ली में अपना एक दो कमरों का फ़्लैट भी ले लिया था जिसमें प्रशांत अपने परिवार के साथ रहता था। छोटा बेटा निशांत किराये के फ़्लैट में रहता था। कम-से-कम एक बेटे को तो वे फ़्लैट ख़रीदकर दे सके थे और लोन लेने से बचा लिया था जिसका बहुत संतोष उनके मन में था। अब अपने रिटायर होने का बड़ी बेसब्री इंतज़ार कर रहे थे। बस कुछ दिनों की बात है। उनकी नौकरी के बचे हुए कई वर्ष इसी आशा और ख़ुशी में गुज़र गये।
जिस दिन वे सेवानिवृत्त हुए, उस दिन वे ख़ूब ख़ुश थे। अपनी सेवानिवृत्ति की मिठाई खाते हुए उन्होंने अपने सहकर्मियों से कहा, "अब मैं चला जाऊँगा दिल्ली और वहीं बच्चों के साथ रहकर ज़िंदगी बिता लूँगा। ईश्वर की दया से मेरे बच्चे सभी योग्य निकल गये। अच्छी-अच्छी जॉब में हैं। "
उनके मित्र नरेंद्र अग्रवाल ने भी कहा, "ठीक ही तो कह रहे हैं आप दिवाकर जी! अब आपको क्या करना है? अपनी सारी ज़िम्मेवारी आप पूरी कर चुके हैं। आप दिल्ली जाइयेगा और वहाँ बहू के हाथ के बने हुए स्वादिष्ट व्यंजन खाइयेगा और मौज कीजियेगा। आपने ज़िंदगी-भर मेहनत की है।"
तब दिवाकर जी ने भीतर से ख़ुश होते हुए कहा, "हाँ, आप सही कहते हैं नरेंद्र जी! प्रशांत और निशांत भी बुला रहे हैं। अब मुझे वहीं चले जाना है। वहाँ चला जाऊँगा तो आप लोगों की याद बहुत आएगी।"
उनके दूसरे मित्र सदानंद ने कहा, "इसी को कहते हैं ख़ुशनसीबी। अब दिल्ली जाइए और आराम कीजिये। अपना सारा जीवन बच्चों में लगा दिया आपने। अब आपको इस मेहनत का मीठा फल खाने को मिल रहा है।"
धीरेंद्र कुमार ने कहा, "आपकी तरह सब कोई ख़ुशनसीब नहीं होता।"
और सचमुच दिवाकर जी ने दिल्ली का रिज़र्वेशन सेवानिवृत्ति की तारीख़ एक हफ़्ते बाद का करवा कर रखा था। उनकी तो इच्छा थी कि अवकाश-प्राप्ति के दूसरे या तीसरे दिन ही चले जायें, लेकिन एक सप्ताह का समय इसलिए ले लिया कि अच्छी तरह से अपने सामान तैयार कर लेंगे और इस घर को भी सँभाल देंगे तब जायेंगे। आने का कोई ठीक नहीं था। हालाँकि न जाने का सामान अधिक था और न ही घर में बहुत अधिक कुछ जोड़ पाए थे। बिना घरनी के क्या जोड़ते? फिर भी घर की थोड़ी चिंता थी, पर उससे अधिक जाने का उत्साह था।
खिला कचनार बने वे दिल्ली पहुँच गये जिन्हें स्टेशन पर रिसीव करने के लिये प्रशांत और निशांत दोनों आये। दोनों बेटों को देखकर उनकी छाती पुष्ट हो गयी। कार में उन दोनों के साथ बातें करते, हँसते- मुस्कुराते चले। स्वयं तो कार ख़रीद नहीं सके थे। अपनी ख़ुद की कार में घूमने का स्वप्न बेटे की कार में बैठकर पूरा कर रहे थे। इसीलिए दुगुनी ख़ुशी थी। अपने फ़्लैट में पहुँचे जिसमें प्रशाांत रह रहा था, तो देखकर दंग रह गये। आधी ज़िंदगी बिना पत्नी के गुज़ारने वाले दिवाकर जी भूल चुके थे कि स्त्री कैसे चार दीवारों को अपने हाथों की जादूगरी से घर में तब्दील देती है? अपना सजा-सँवरा फ़्लैट जो देखा तो सोचना पड़ा कि उन्होंने तो फ़्लैट ख़रीदा था उसको सँवार कर बहू ने घर बना दिया था। मन में पूरा संतोष हुआ और अपने बेटे-बहू पर गर्व भी।
उन्हें लगा कि वे दिल्ली, अपने बेटे के यहाँ नहीं, बल्कि अपनी ज़िंदगी के मुक़ाम पर पहुँच गये हैं। उनका ख़ूब स्वागत-सत्कार हुआ और वहाँ उनके कई दिन आनंद के आकाश में उड़ते हुए बीत गये। मन का पंछी आकाश में उड़ते हुए ख़ुशनसीबी के गीत गा रहा था।
लेकिन एक महीना बीतते न बीतते यथार्थ की रुखड़ी ज़मीन पर उसे उतरना ही पड़ा। एक दिन बड़ी बहू ईशा ने कहा कि वे बच्चे को स्कूल छोड़ दें। उसके बाद बच्चे को स्कूल छोड़ना उनकी दिनचर्या में शामिल हो गया जिससे उनका सवेरे का टहलना बंद हो गया और घुटनों में दर्द रहने लगा। स्कूल से लौटते तो नाश्ता करते-करते देर हो जाती। तब तक एसिडिटी से ग्रस्त हो जाते और उनके घुटने भी टीसने लगते। अब वे देख रहे थे कि इस घर में कोई उनकी फ़िक्र नहीं करता था। सब अपनी-अपनी धुन में खोए हुए रहते थे। वे किसीसे दो शब्द बोलने के लिए भी तरस जाते और मौन साधकर बैठे रहते। लगता था जैसे कि वे घर में नहीं प्लेटफ़ॉर्म पर बैठे हों।
शाम को ईशा सब्ज़ी लाने जाती थी। अब पापा जी आ गए तो यह काम उसने पापा जी के हवाले छोड़ दिया जिसके कारण दुखते हुए घुटनों का दर्द बर्दाश्त करते हुए वे सब्ज़ी भी लाने लगे।
महीना-भर से ऊपर बीता तो एक दिन निशांत उनसे मिलने आया। बड़ी देर तक वह उनसे बातें करता रहा। थोड़ी देर बाद ईशा भी वहीं आ गई और उसने मुस्कुराते हुए कहा, "पापा को अपने यहाँ कब बुला रहे हो? वे तुम्हारे यहाँ जाने के लिए बेचैन हैं।"
यह सुनकर दिवाकर जी ने अचंभित होकर ईशा को देखा। ऐसा तो उन्होंने नहीं कहा था? ईशा की मंशा समझ कर वे कुछ नहीं बोल पाये, पर उसकी मुस्कुराहट उनके कलेजे में चुभ गयी।
प्रशांत अपने काम में व्यस्त रहता था और ईशा और आयुष के लिए तो वे अभी तक अजनबी ही बने हुए थे। इस पूरे घर में दिवाकर जी एक ग़ैरज़रूरी सामान की तरह सबके सामने होकर भी सबकी नज़रों में अनुपस्थित रहते थे। कुछ दिनों बाद निशांत उन्हें अपने फ़्लैट में ले गया। उसका भी भरा-पूरा घर देख कर वे बहुत ख़ुश हुए। लेकिन पिछला अनुभव याद कर तुरंत एक उदासी ने उन्हें घेर लिया। यहाँ की कहानी भी बहुत-कुछ ऐसी ही थी। निशांत का बेटा सरल अभी छोटा था। स्कूल नहीं जाता था। इसलिए उसे सँभालने की ज़िम्मेदारी उन्हीं पर आ गयी। अब बग़ल के ग्वाले के यहाँ से आँखों के सामने निकाला गया दूध भी उन्हें ही जाकर लाना पड़ता था; क्योंकि सरल को पीने के लिए शुद्ध दूध चाहिए था। सबह-सुबह दूध लाने पैदल निकलते तो थोड़ा संतोष होता कि इसी बहाने टहलना हो जा रहा है। लेकिन यहाँ भी उनके लिए रिश्तों की संज्ञाएँ लुप्त हो गई थीं। वे किसके कौन थे? उनके दु:ख-सुख की किसी को परवाह नहीं थी और उनकी हर ज़रूरत मुँह खोले खड़ी रह जाती थी।
अतः एक महीना निशांत के घर में काटने के बाद अपने अरमानों के टुकड़े अपने बहुत-सारे कपड़े-लत्तों के बीच छुपाये हुए वे अपनी पुरानी दुनिया में लौट आये, जहाँ आकर ज़िन्दगी ने धीरे-धीरे फिर अपनी पुरानी रफ़्तार पकड़ ली। इस छोटे शहर ने अपने चिरपरिचित दिवाकर बाबू का नाम फिर से उचारना शुरू कर दिया। वे अभी भी सबकी यादों में बने हुए थे। उनकी पुरानी दिनचर्या, उनका इधर-उधर आना-जाना फिर प्रारंभ हो गया और अब वे अपना जीवन अपने ढंग से जी रहे थे! अकेलापन खलता था ज़रूर, लेकिन उसे दूर करने के उपाय भी थे।
उस दिन दिवाकर जी बाहर से घूम कर लौट रहे थे तो न जाने कैसे ठीक अपने घर के सामने ही गिर गए। उन्होंने उठने की बहुत कोशिश की, परंतु उठ नहीं सके। कुछ राहगीरों ने देखा तो दौड़े आये। तब तक उनके पड़ोसी अरुण जी भी आ गये। राहगीर और अरुण जी ने मिलकर उन्हें घर के भीतर पहुँचा दिया। उन्होंने एक और मेहरबानी की कि अस्पताल ले जाकर उनके पैर का प्लास्टर करवा दिया और उन्हें वापस घर ले आये। पर अब उनकी देख- रेख करने वाला कोई नहीं था। कोई खाना बनाकर भी देने वाला नहीं। कुछ दिनों तक अरुण जी ने अपने घर से खाना मँगवाकर खिलाया और उन्हें सुझाव दिया, "दिवाकर जी! मैं आपकी मजबूरी समझ रहा हूँ। आपके लिए खाना बनाने तथा घर के अन्य कामों के लिए किसी को कहता हूँ; क्योंकि इस तरह कैसे चलेगा?"
दिवाकर जी ने अपने दोनों बेटों को फोन किया कि दोनों बहुएँ बारी-बारी से यहाँ आ जायें और एक-एक महीने तक सँभाल दें। उसके बाद फिर देखा जायेगा। तब तक तो उनकी स्थिति बेहतर हो जायेगी।
प्रशांत ने जवाब दिया, "पापा! अभी तो ईशा का जाना मुश्किल है और वह एक बीमार व्यक्ति की देख-भाल भी नहीं कर पायेगी। आप कोई नौकर रख लीजिये। हम पैसे भेज देंगे।"
नाउम्मीदी में भरे हुए उन्होंने छोटे बेटे को फोन किया। बोले, "मेरा पैर टूट गया है, निशांत!"
"कैसे हुआ यह सब?"
"अरे! मैं सड़क पर गिर गया – ठीक घर के सामने। वह तो कहो कि बेचारे अरुणजी जैसा सज्जन पड़ोसी मिला है मुझे, जिसने अस्पताल ले जाकर मेरा प्लास्टर करवा दिया है। लेकिन अब मुझे खाना-पीना बनाकर कौन देगा? एक महीने के लिए बहू को भेज देते तो आराम हो जाता।"
निशांत ने कहा, "रीना की माँ बीमार है, पापा! वह तो अपने मायके गयी हुई है माँ की सेवा के लिए। आप किसी को खाना बनाने के लिए रख लेते तो अच्छा होता।"
यह सुनकर दिवाकर जी को बड़ी पीड़ा हुई। निरुत्तर भी हो गए। इसके आगे क्या कहते? स्पष्ट था दोनों टालमटोल कर रहे थे। बातचीत के दौरान दोनों में से किसी ने यह भी नहीं कहा "पापा! मैं आ रहा हूँ आपको देखने के लिए" जिसे सुनने का इंतज़ार उनके कान करते रह गये। किसी ने बीमार पिता को आकर देखना भी ज़रूरी नहीं समझा। अपना एक-एक दिन देकर उन्होंने दोनों बच्चों को बड़ा किया था और एक-एक पैसा जोड़कर उनके लिए फ़्लैट ख़रीद दिया था। सारी ज़िन्दगी पानी के लिए जिस तालाब को खोदते रहे, न जाने कैसे वह पानी के बदले रेत से भरता रहा। क्या जीवन की शाम अकेले गुज़ारने के लिए ही उन्होंने अपनी जवानी अकेले रहकर गुज़ार दी? दरअसल वे एकाकी ही थे। जिन्हें अपना अंश समझते रहे, वे सब छायाएँ थीं। उन्हें जब पकड़ने की कोशिश की तो हाथ में कुछ नहीं आया।
अभी वे असहाय-निरुपाय बने बिस्तर में पड़े हुए थे और कोई आगे-पीछे देखने वाला नहीं था। वे अब किसको कहते यहाँ आने के लिए? बेटों से बातें करने के बाद आँखों की कोर से दो बूँदें ढुलक गयीं। अब उन्हें अपने पड़ोसी अरुणजी से ही उम्मीद थी कि वे किसीको उनकी सेवा के लिए रख देंगे। कम से कम कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाये जो उनके लिए सीधा-सादा खाना बना दे और शरीर से लाचार हो गये उनको उठा-बैठा कर उनकी दिनचर्या पूरी करवा दे। और सचमुच अरुण जी ऐसे जुगाड़ू व्यक्ति निकले कि उन्होंने ढूँढ़-ढाँढ़कर एक पुरुष को तो नहीं, बल्कि एक स्त्री को उनके सामने हाज़िर कर दिया।
क़रीब पैंतीस-चालीस साल की एक स्त्री उनके सामने खड़ी थी। एक स्त्री को देखकर वे मन ही मन चौंके कि यह खाना बनाने के अतिरिक्त क्या कर पायेगी? तब उनके दिल की बात समझते हुए अरुणजी ने उनके कान में धीरे से कहा, "बहुत ढूँढ़ा, लेकिन कोई आदमी न मिला। एक ही ग़रीब औरत मेरे जान-पहचान की थी जिसको मैंने कहा तो वह तैयार हो गई। अब इसीसे काम चलाइये।"
फिर उसकी ओर मुख़ातिब होकर कहा, "देखो मंटू की माँ! यही दिवाकर जी हैं जिनके बारे में मैं कह रहा था। बेचारे का पैर टूट गया और ये बिस्तर पर पड़े हुए हैं। इस घर में तो कोई दूसरा है नहीं जो इनकी देख-रेख करेगा। तो तुम कुछ महीनों के लिए इनकी सेवा-टहल कर दो। जो पैसा कहोगी वह तुम्हें मिल जायेगा। दिवाकर जी तुम्हें देने में कंजूसी नहीं करेंगे। इतना तुम जान लो।"
दिवाकर जी ने देखा उस स्त्री के साथ उसका दस-बारह साल का एक बच्चा भी खड़ा था गंदी-सी कमीज़ और पैंट पहने हुए। वह औरत सचमुच ग़रीब और बेसहारा लग रही थी जिसके गोरे गालों पर झाइयाँ उभर आयी थीं और आँखों से निराशा झाँक रही थी।
अरुण जी ने दिवाकर जी से कहा, "देखिए, इसको एक छोटा बच्चा भी है – मंटू, जो अपनी माँ के साथ ही रहेगा। इसके भी पति नहीं है। बिचारी अकेली किराये में रहती है। पर अभी कुछ दिनों तक आपकी ख़ाली कोठरी में रह लेगी और आपकी सेवा कर दिया करेगी।"
दिवाकर जी को यह सुनकर बड़ा अच्छा लगा कि कोई तो इस संकट से उबारने वाला आ गया। वे अरुण जी के प्रति कृतज्ञ होकर बोले, "अरुण जी! आपने इस मुश्किल समय में मेरी मदद करके सगे भाई की भूमिका निभाई है। आपका यह एहसान कभी नहीं भूलूँगा।"
अरुण जी ने कहा, "क्या बात करते हैं दिवाकर जी? हम लोग हमेशा से पड़ोसी बन कर रहे हैं। इतनी भी अपेक्षा आप मुझसे नहीं करते हैं? ऐसा न कहिए। . . . ठीक है। तो मैं चल रहा हूँ। इसका नाम शोभा है, लेकिन लोग इसे मंटू की माँ बोलते हैं। अब मंटू की माँ आपके सब काम कर दिया करेगी।"
यह बोलकर अरुण जी चले गए तो शोभा ने कहा, "मैं अपना बैग कहाँ रखूँ?"
दिवाकर जी ने कहा, "देखो, यह जो बग़ल वाली कोठरी है, इसमें तुम अपना बैग और बाक़ी सामान रख दो और इसीमें रहो। बग़ल में रहोगी तो जब ज़रूरत होगी तो तुम्हें पुकार भी लूँगा। सामने रसोईघर है। वहाँ सब कुछ मिल जायेगा। जो समझ में आये, बना लो।"
शोभा ने कोठरी में अपना सामान व्यवस्थित कर दिया और उसके बाद निश्चिंत होकर दिवाकर जी की परिचर्या में लग गयी। वह उनसे जुड़े सारे काम करती थी। इसी बीच जाकर रसोई भी सँभालती। समय पर खाना, दवा, उठाना-बैठाना सब करती। दिवाकर जी उसकी सेवा-भावना और काम करने का ढंग देखकर चमत्कृत रह गये। पर उसके औरत होने से यह समस्या हो जाती कि शौच आदि के लिए वे उससे कैसे कहें? ऐसे समय में शोभा अपने बेटे मंटू को बुला लेती जिसके लिए वह बड़ी मुश्किल से तैयार होता था। दोनों माँ-बेटे मिलकर दिवाकर जी की सेवा-टहल कर रहे थे और वे इस स्त्री के उपकार के तले दबे जा रहे थे। जब अपनों ने ना कह दिया तो यह ग़रीब औरत समर्पित भाव से उनका हर काम कर रही थी। इतना ही नहीं, समय मिलने पर वह घर भी सँभाल दिया करती थी। शोभा अक़्सर भूल जाती थी कि यह घर उसका नहीं है। और कभी याद भी आता कि यह पराया घर-आँगन है तो सोचती कि जितने दिन वह यहाँ है उतने दिन मन से काम कर दे। जब जाने के लिए कहा जायेगा तो चली जायेगी।
एक स्त्री के हाथों का स्पर्श मिलने से घर व्यवस्थित हो चला था। दिवाकर जी को अपनी ज़िंदगी के पुराने दिन याद आने लगे थे जब माला जीवित थी। उस समय घर की सारी दीवारें बोलती रहती थीं। माला के गुज़रते ही सारा घर-आँगन निष्प्राण होकर अटूट चुप्पी में डूब गया था, पर उसमें अब फिर से सुगबुगाहट लौट आयी थी।
नाश्ते के बाद शोभा अक़्सर चाय, जूस या फल लेकर चली आती थी। दिवाकर जी जब-जब उसे देखते तब-तब उसके चेहरे में न मिटने वाली मायूसी दिखायी पड़ती। उसके दर्द को जानने की कोशिश करते, लेकिन वह चुपचाप अपने काम में लगी रहती। वे यह भी सोचने लगते की कुछ महीनों बाद तो इसको जाने के लिए कहना ही पड़ेगा तब यह कहाँ जायेगी? उसका जीवन कैसे चलेगा? न उसका अपना घर है, न पति! उनकी नज़र जब मंटू पर पड़ती तो वह बहुत ख़ुश दिखायी देता। यहाँ वह सुख से रह भी रहा था और स्कूल भी जा रहा था। उसका स्वास्थ्य भी अच्छा हो गया था। लेकिन इस घर से निकलते ही दोनों माँ- बेटे की सारी सुख-सुविधाएँ समाप्त हो जायेंगी।
आजकल की दुनिया में पैसे लेने वाले तो बहुत मिलते हैं पर सच्चे दिल से सेवा करने वाला कोई नहीं मिलता। न जाने क्यों शोभा के व्यवहार का अपनापन उन्हें माला की याद दिला देता था और उन्हें यह एहसास होने लगता कि माला उनके आसपास ही मँडरा रही है, जबकि माला को गुज़रे एक लंबा समय बीत चुका था। इधर जब से शोभा उनकी देख-रेख करने लगी थी, तब से नींद में उनके मुँह से कई बार माला-माला निकल जाता था।
एक दिन शोभा ने उनसे पूछा, "आप नींद में माला-माला कहकर किसको पुकारते हैं?"
यह सुनकर दिवाकर जी चौंके, "क्या मैं माला-माला पुकारता हूँ?"
"हाँ, मैंने कई बार सुना है आपको नींद में बड़बड़ाते हुये। यह माला कौन है?"
"माला तो मेरी पत्नी का नाम है।"
"ओह!" यह कहकर शोभा चुप हो गयी।
शोभा की देख-रेख से दिवाकर जी जल्दी ही अच्छे होने लगे। न केवल शरीर, बल्कि मन भी स्वस्थ होने लगा था। काँटों की तरह चुभने वाली बहुत सारी दु:ख-भरी यादें बिसर गयीं। अब वे दिन भी आ गए थे जब दिवाकर जी अपने पैरों पर खड़े होने लगे और शोभा की सहायता लेकर चलने भी लगे। उनकी ज़िंदगी पटरी पर लौट रही थी। शोभा को तो कुछ दिनों के लिए रखा गया था। लेकिन अब उसे छुट्टी देने की बात सोचते ही एक अजीब-सा भय और असुरक्षा का भाव उन्हें घेर लेता; क्योंकि उसके जाने के बाद से वे नितांत अकेले हो जायेंगे। तब कौन देखेगा उन्हें? ज़िंदगी ऐसी अभिनेत्री है जो कब क्या रूप बना लेगी कोई नहीं जानता। अगर वह भूतनी बन गई तो?
एक दिन गोधूलि में प्रशांत का कॉल आया। औपचारिकतावश किये गये इस संक्षिप्त कॉल में अपनापन की थोड़ी-सी भी नमी न पाकर दिवाकर जी का मन उदासी और निराशा में डूब गया। कमरे में शाम का अँधेरा भी आकर पसर गया था जिससे वे बेचैन हो उठे। अंतर का विषाद चेहरे पर छा गया।
तब तक शोभा ने आकर बत्ती जला दी और उनकी ओर देखते हुए पूछा, "आपकी तबीयत तो ठीक है न?"
"मैं ठीक हूँ। पर एक बात तुमसे पूछूँ?"
यह सुनकर शोभा ने प्रश्नवाचक दृष्टि से उन्हें देखा।
"तुम ठीक हो शोभा? जब भी देखता हूँ, तुम हमेशा उदास दिखती हो।"
शोभा ताज्जुब से भर गई कि यह व्यक्ति आज इस तरह का प्रश्न क्यों पूछ रहा है?
उसने कहा, "यह तो आज तक मुझसे किसी ने नहीं पूछा। आप क्यों पूछ रहे हैं?"
"ऐसे ही पूछ रहा हूँ। तुम कभी हँसती-मुस्कुराती नहीं हो," दिवाकर जी ने कहा।
"मैं हँसना भूल गयी हूँ। जीने के लिए हँसना या ख़ुश रहना ज़रूरी थोड़े ही है?"
यह सुनकर दिवाकर जी थोड़ी देर के लिए चुप हो गये। शोभा भी वहीं खड़ी रही।
तब दिवाकर जी ने कहा, "पर मैं चाहता हूँ कि तुम्हारे चेहरे से उदासी की छाया हट जाये। मैं आज ठीक हो गया हूँ तो तुम्हारे ही कारण। तुम चली जाओगी तो कौन देखेगा मुझे?"
शोभा ने कहा, "ऐसा क्यों कहते हैं? मैं स्वयं तो आपको छोड़कर नहीं जा रही।. . . पर आप जब जाने के लिए कह देंगे तो मुझे जाना ही पड़ेगा।. . . पर. . . मैं. . . कहाँ जाऊँगी?. . . नहीं जानती। मेरा भी तो कोई नहीं है एक मंटू को छोड़कर। उसके सिर पर भी पिता का साया नहीं।"
यह कहते हुए वह पीछे मुड़ी और जाने लगी।
दिवाकर जी ने शोभा का हाथ पकड़ लिया, "तुम मत जाओ शोभा!"
शोभा ने कहा, "यह क्या कह रहे हैं आप? . . . मैं किस तरह यहाँ हमेशा के लिए रह सकती हूँ?"
"हाँ शोभा! तुम रह सकती हो हमेशा। तुम ही रह सकती हो। देखो, तुमको छोड़कर कौन है मेरे पास? मैं बिल्कुल अकेला रह गया हूँ।"
शोभा आश्चर्य से उनका मुँह देखने लगी।