मोक्ष
अंजना वर्माबाबा आत्माराम बचपन में ही घर छोड़कर निकल गए थे। कुछ साधु-संतों की संगति में रहते-रहते वे भी साधु हो गए। हर समय उनके ओठों पर ईश्वर का नाम रहता था।
धीरे-धीरे उनकी ख्याति चारों ओर फैलने लगी। उनका प्रवचन सुनने के लिए श्रोताओं की भीड़ उमड़ पड़ती। वे सबको सांसारिकता से दूर रहने का उपदेश दिया करते थे कि इच्छाओं से दूर रहें और इस जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हों। उनका सारा जीवन उपदेश देने में ही बीत गया।
आज वे मृत्यु-शय्या पर पड़े हुए थे। उन्होंने अपने शिष्य दिव्यप्रकाश का हाथ पकड़ रखा था और ठहर-ठहर कर बोल रहे थे, "तुम्हें मैंने अपने बच्चे की तरह स्नेह दिया है, दिव्यप्रकाश! तुम मेरी एक इच्छा पूरी कर देना। मेरे बक्से में तुम्हें मेरी सारी जमा-पूँजी मिल जाएगी। उसीसे तुम मेरी एक मूर्ति बनवा देना। अपनी यह इच्छा मैं जीते-जी नहीं पूरी कर पाया।"
इतना कहने के बाद वे शिष्य का हाथ अपने हाथों में थामे रह गए जैसे कह रहे हों कि तुम मेरी इच्छा पूरी कर दोगे ना? और इसी स्थिति में उनके प्राणों का पंछी देह-पिंजर से मुक्त हो गया।
फूलमती एक ग़रीब स्त्री थी जो घरों में झाड़ू-पोंछा करके अपना और अपने परिवार का पेट पालती थी। पति की मृत्यु होने के बाद शृंगार से उसका नाता हमेशा के लिए टूट गया था। वह बाल भी नहीं सँवारती थी। सिर पर चिड़ियों का घोंसला-सा बन गया था। दुर्बल शरीर लिए सारे दिन काम करती रहती। अत्यधिक श्रम और भोजन के अभाव में उसका शरीर ढह गया था। आज वह भी बिस्तर पर पड़ी हुई थी। उसने खाना-पीना छोड़ दिया था। उसके बेटे जो वयस्क हो चुके थे, उसकी सेवा में कोई कमी नहीं रहना देना चाहते थे। वे बार-बार पूछते कि वह क्या खाना चाहती है? परंतु उसके भीतर कुछ भी खाने या पाने की इच्छा बाक़ी नहीं रह गई थी। कुछ दिनों बाद वह चुपचाप चल बसी। उसे देखने से लगता था कि वह शांति से सो रही है।
1 टिप्पणियाँ
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Dono logon ke moksh me antar, kahani pasand aayee.