आओ सुबह बनकर
अंजना वर्मामन साँझ -सा बोझिल है, तुम बनके सुबह आओ
मेरे मन के आँगन को, तुम रोशन कर जाओ।
गहराता जाता है
हर पल ये अँधेरा।
तनहाई के नागों ने
इस जान को है घेरा।
तुम चाँद बनो आओ, थोड़ी चाँदनी दे जाओ।
ये राह कई जन्मों की,
तुम तक फिर भी ना पहुँची।
क्यूँ सफर हुआ ना पूरा,
मंजिल से दूरी अब भी।
ख़त यूँ ही रहा भटकता, तुम खुद ही चलकर आओ।
कितनी बातें करती हूँ
अपने एकाकीपन में,
जैसे तुम सामने हो
बैठे इस निर्जन में।
त्योहार ही बन जायेगा, वो दिन तुम जिस दिन आओ।
मन साँझ-सा बोझिल है, तुम बनके सुबह आओ।